Tuesday, December 15, 2015

लघु कथा : मतलब

                                                                                                - मिलन  सिन्हा 

रेलवे प्लेटफार्म के मैगेजीन स्टॉल पर एक पत्रिका उलट रहा था कि उसी समय पीठ पर किसी ने हल्की-सी धौल जमायी . मुड़कर देखा तो वह कुमार था , पुराना सहपाठी. हाथ में ब्रीफकेस लिए वह मुस्करा रहा था. ख़ुशी हुई उसे देखकर, उससे मिलकर. करीब पांच वर्षों के बाद हम मिले थे.

“यार, बिज़नेस के सिलसिले में यहाँ आना हुआ है – कुमार सिगरेट सुलगाते हुए बोला. दो दिन यहाँ रुकना पड़ेगा शायद.”

मैं उसे पकड़ कर घर ले आया. दफ्तर से दो दिनों की छुट्टी ले ली. दो दिन बड़ी व्यस्तता में बीत गए. कुमार के आवभगत में मैंने कोई किफायत नहीं की.

कुमार को विदा  करने मैं उसके साथ स्टेशन गया. ट्रेन आने में कुछ देर थी. मैं कुमार के लिए एक पत्रिका लाने गया. लौटा तो देखा कि कुमार अपने किसी परिचित से हंस-हंस कर बातें कर रहा था. लौटते हुए उसने मुझे नहीं देखा था. कुछ दूर पर खड़ा होकर मैं पत्रिका उलटने लगा, तभी मेरे कानों में आवाज गूंजी, “अरे यार, मत पूछो, बड़ा शानदार मुल्ला फंसा था. दो दिनों तक गुलछर्रे उड़ाते रहे. खूब बेवकूफ .....” यह कुमार बोल रहा था.

  
ट्रेन प्लेटफार्म पर आ चुकी थी. जगह खोजकर मैंने कुमार को बिठाया. विदा लेने से पहले कहा, “ कुमार फिर आना, जरुर आना.”

कुमार खामोश रहा, हैरत से मुझे केवल देखता रहा वह. 

         और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

# लोकप्रिय  अखबार , 'हिन्दुस्तान' में 17 अप्रैल, 1997 को प्रकाशित 

Tuesday, November 3, 2015

आज की बात: दाल पर बवाल की पड़ताल

                                                                                             - मिलन  सिन्हा
arharदाल पर बवाल जारी है. राजनीतिक विरोधियों द्वारा केंद्र सरकार से सवाल पर सवाल पूछे जा रहे हैं. विपक्ष राज्य सरकारों से जवाब तलब नहीं कर रहा है जैसे कि दाल प्रकरण में सारा दोष केंद्र सरकार का हो. जमीनी हकीकत को देखें तो दाल की कीमतें बढ़ी हुई हैं. निम्न और मध्यम आय वर्ग के लोगों के लिए ‘दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ वाली बात पर अमल करना भी मुश्किल हो रहा है. बिहार विधान सभा चुनाव में तो साम्प्रदायिकता, जंगलराज, आरक्षण, गौ मांस सेवन के साथ-साथ दाल भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है. कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों के छोटे-बड़े नेता खुले आम बयान दे रहे हैं कि खुदरा बाजार में दालें अब 200 रूपये प्रति किलो बिक रही हैं. मीडिया में भी दाल एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है. आखिर देश के गरीबों एवं आम जनों के लिए दाल ही तो प्रोटीन का सबसे सुलभ प्राकृतिक स्रोत रहा है. ऐसे में, दाल पर लगातार इतनी चर्चा के बीच दाल पर थोड़ी  गहराई से पड़ताल लाजिमी है. 

पहले दालों की कीमत के 200 रूपये प्रति किलो के पार जाने की सच्चाई को जानने की कोशिश करें. झारखण्ड की राजधानी रांची के एक बड़े खुदरा दुकान में चार-पांच दिन पहले  चना दाल 80 रूपये, मसूर 100 रुपये, मूंग 120 रुपये और अरहर दाल 190 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा था. जाहिर है कि केवल अरहर दाल 200 रूपये के आसपास थी, जब कि बाकी दालें 120 रूपये या उससे कम कीमत पर बिक रही थी. दालों की कीमतें अधिकतर प्रदेशों में कमोवेश इसी रेंज में थी. एक दर्जन से ज्यादा प्रदेशों में जमाखोरों तथा मुनाफाखोरों के खिलाफ हाल की करवाई के बाद तो खुदरा बाजार में दाल की कीमत में कमी आनी शुरू हो गई है. तो फिर नेतागण निरंतर चौथाई सच ही क्यों बोले जा रहे हैं ? क्या वाकई दाल में कुछ काला है ? दाल की कीमतें जल्द से जल्द नीचे आयें और बराबर नियन्त्रण में रहें, यह सबकी चाहत ही नहीं, मांग भी होनी चाहिए. लेकिन मात्र तथ्यहीन बयानबाजी से आम जन का कौन सा भला होने वाला है? आम जनता, खासकर बिहारी मतदाता के लिए यह विचारणीय सवाल है. 

कहना न होगा, देश में दलहन के पैदावार और दाल के खपत में अमूमन 40 लाख टन का अंतर रहता है, जिसे मुख्यतः आयात  से पूरा करने की कोशिश केन्द्र की हर सरकार करने का प्रयास करती है, बेशक उनके प्रयासों को लेकर सवाल किये जा सकते हैं. यह भी सच है कि देश में दलहन की पैदावार में लगातार कमी एक बड़ा मसला रहा ही है, लेकिन उससे कहीं बड़ा मुद्दा देश में दाल के उपलब्ध भण्डार को सही तरीके से वितरित करने का रहा है. मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित बाजार में हर बढ़ती मांग और हर घटती आपूर्ति के साथ मुनाफाखोरी और जमाखोरी का सीधा सम्बन्ध देखा गया है, जिसे प्रभावी प्रशासनिक सक्रियता से निबटा जा सकता है. दीगर बात है कि दालों की जमाखोरी एवं उससे संबंधित मुनाफाखोरी से निबटने की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है जिसे सभी सरकारों को आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा -7 के तहत अंजाम तक पहुंचाना होता है. ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि जब दाल की कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही थी जिससे गरीबों की मुसीबतें बढ़ रही थी, तब भी राज्य सरकारें, जिसमें  भाजपा शाषित राज्य सरकारें भी शुमार हैं, ऐसी छापेमारी से क्यों बचती रही? केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का तो कहना है कि केन्द्र सरकार के बारबार दबाव दिए जाने के बाद ही छापामारी का सिलसिला प्रारंभ हुआ. ज्ञातव्य है कि पिछले चार-पांच दिनों में  महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार सहित कई राज्यों में मारे गए करीब 8400 छापों में जमाखोरों-मुनाफाखोरों  के पास से 82000 टन से ज्यादा दाल जब्त किये गए हैं. ऐसी छापामारी आगे भी जारी रहने की संभावना है. यहाँ आम जनता का यह सवाल मुनासिब है कि ऐसे छापे पहले क्यों नहीं मारे गए ; क्या राज्य सरकारें केन्द्र के पहल का इन्तजार कर रही थीं ?

आइये, अब जरा तीन प्रमुख दालों, अरहर, चना और मूंग में मौजूद गुणकारी तत्वों मसलन प्रोटीन, खनिज आदि के बारे में जान लें :  प्रति 100 ग्राम दाल की बात करें तो प्रोटीन का प्रतिशत अरहर में 22.3, चना में 20.8 तथा मूंग में 24.5% होता है, जब कि कैल्शियम की मात्र अरहर में 73 मिलीग्राम, चना में 56 मि.ग्रा और मूंग में 75 मिलीग्राम होता है. प्रति 100 ग्राम अरहर दाल में फास्फोरस के यह मात्रा 304, चना में 331 एवं मूंग में 405 मिलीग्राम होता है. कहा जाता है कि अरहर दाल की उत्पत्ति अफ्रीका से है और इस दाल की प्रकृति गर्म होती है, जबकि मूंग की उत्पत्ति भारत और चने की पश्चिम एशिया से मानी जाती है. तुलनात्मक रूप से मूंग की दाल में प्रोटीन सहित अन्य पोषक तत्व ज्यादा मात्रा में विद्दमान है. मूंग की दाल आसानी से पचने वाली होती है, जिसके कारण भी यह अक्सर बच्चों, वृद्धों और रोगियों को खिलाई जाती है. दाल के अलावे चने के सत्तू और वेसन के अनेकानेक लाभकारी उपयोग से तो हम सभी परिचित हैं ही.  

                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं  

 प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशितदिनांक :31.10.2015      

Monday, November 2, 2015

आज की बात: बिहार में एक नयी व बेहतर शुरुआत की आशा

                                            -मिलन सिन्हा 
कहते हैं, जब सत्य का साथ छूटता जाता है तथा जब तर्क चुकने लगते हैं, तब झूठे वादों और तथ्यहीन दावों को चीख -चीख कर दोहराना मजबूरी हो जाती है। आंकड़ों का खेल भी चल पड़ता है। सच तो यह है कि जब तक सार्वजनिक मंचों से झूठ को सच बताने का यह सिलसिला बंद नहीं होगा, तब तक सकारात्मक राजनीति को पुनर्स्थापित करना मुश्किल होगा .....

....एक तरफ तो हमारे नेतागण बार -बार कहते हैं कि जनता बहुत समझदार है , यह पब्लिक है सब जानती है, परन्तु वहीँ इसके उलट सच को  झूठ और झूठ को सच बताने और दिखाने की कोशिश करके क्या ये नेता आम लोगों को बेवकूफ समझने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं ?

....सोचनेवाली बात है जब आम जनता सब भली-भांति जान व समझ रही है तो उस पर विश्वास कर उसे विवेचना करने दीजिये, मीडिया कर्मियों, राजनीतिक विश्लेषकों को विश्लेषण करने दीजिये। आवश्यक हो तो प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर अपनी बात रखें और सार्थक सवाल-जवाब कर लें।

....सवाल तो उठना लाजिमी है कि क्या अपने विरोधी को नीचा दिखाकर, उनकी परछाईं से अपनी परछाईं को बड़ा दिखाकर विकासोन्मुख राजनीति के वर्तमान दौर में कोई भी दल बड़ी सियासी जंग जीत सकता है ? कहते हैं मुँह से निकली बोली और बंदूक से निकली गोली को वापस लौटाना मुमकिन नहीं होता। फिर बयान बहादुर का खिताब हासिल करने के बजाय आम जनता की भलाई के लिए सही अर्थों में एक भी छोटा कार्य करना नेता कहलाने के लिए क्या ज्यादा सार्थक नहीं है ?

...ऐसे भी राजनीतिक नेताओं को राजनीति से थोड़ा ऊपर उठ कर बिहार की अधिकांश आबादी जिसमें गरीब, दलित, शोषित -कुपोषित, अशिक्षित, बेरोजगार और बीमार लोग दशकों से शामिल हैं, की बुनियादी समस्याओं को समय बद्ध सीमा में सुलझाने का क्या कोई भगीरथ प्रयास नहीं करना चाहिए ?

.....आशा करनी चाहिए कि जल्द ही बिहार में एक नयी व बेहतर शुरुआत होगी, नयी सरकार जिस भी गठबंधन की बने !

(सन्दर्भ : बिहार विधानसभा चुनाव,2015)

                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, November 1, 2015

आज की बात: आखिर इतने कम मतदान प्रतिशत के क्या मायने हैं ?

                                                    -    मिलन  सिन्हा
बिहार के सभी दलों के नेता तथा  बिहार से बाहर बैठे अधिकांश समाज विज्ञानी व कुछ बड़े पत्रकार यह कहते रहे हैं कि बिहार के वोटर राजनीतिक रूप से बड़े परिपक्व हैं; उनकी सूझ-बूझ का कोई जोड़ नहीं, वे बेशक कम पढ़े-लिखे हो सकते हैं, पर हैं बहुत बुद्धिमान आदि,आदि. अगर ऐसा है तो फिर क्या कारण है कि इतने परिपक्व व समझदार आम बिहारी मतदाता मतदान के दिन मतदान केन्द्रों पर बड़ी संख्या में नहीं पहुँचते? पिछले तीन चरण के मतदान में वोट प्रतिशत 60 % (पहले चरण में 57%, दूसरे में 55%,  तीसरे में 53 % और चौथे चरण में करीब 58 % ) से भी नीचे क्यों रह गया ? क्या उनमें लोकतंत्र में चुनाव की महत्ता की समझ कम है या उनमें इसके प्रति जागरूकता का अभाव है या चुनावी राजनीति से उनका मोह्भंग हो रहा है या बिहार में राजनीतिक दल वोटरों को जाने-अनजाने कारणों से मतदान केन्द्रों तक लाने के लिए प्रोत्साहित करने में रूचि नहीं रखते हैं

कुछ तो गड़बड़ है, नहीं तो कोई कारण नहीं कि पिछले विधानसभा चुनाव,2010 में भी वोट का प्रतिशत मात्र 52.73 % रह जाय ! अर्थात 47.27% मतदाताओं ने किसी को भी अपना वोट नहीं दिया. इस तरह  लोकतंत्र कैसे मजबूत हो सकता है, क्यों कि 47.27% मतदाताओं की अपना विधायक चुनने में कोई भागीदारी ही नहीं रही.

क्या पिछले पांच वर्षों में प्रदेश की सरकार, केन्द्र की सरकार, प्रदेश के राजनीतिक दल व उनके छोटे- बड़े नेता और सबसे ऊपर निर्वाचन आयोग ने वोटिंग प्रतिशत को कम-से-कम 80% करने हेतु कोई गंभीर कदम उठाये, कोई नायाब पहल की ? अगर हाँ, तो उसका असर अब तक के तीन चरणों के मतदान में क्यों नहीं दिखा ? और अगर नहीं, तो क्यों ? फिर तो यह सवाल जायज है कि इस तरह के चुनाव की सार्थकता क्या है ?


एक और विचारणीय प्रश्न ! ज्ञातव्य है कि 2010 के चुनाव में बिहार विधान सभा के 243 सीटों के लिए 3523 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा, जिसमें 3019 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गयी. जाहिर है कि  243 सीटों के लिए केवल 504 प्रत्याशियों को ही मतदाताओं ने गंभीरता से लिया. स्पष्टतः लगभग हर सीट पर सीधा मुकाबला था. क्या चुनाव आयोग ने इस बात का नोटिस लिया और इस चुनाव से पहले जमानत राशि में यथोचित वृद्धि करने सहित अन्य प्रभावी कदम उठाये जिससे विकास के लिए अपर्याप्त संसाधनों का रोना रोने वाले प्रदेश-देश में चुनावों को कम खर्चीला बनाया जा सके
(सन्दर्भ : बिहार विधानसभा चुनाव, 2015)

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Friday, October 30, 2015

आज की बात: 'बिहार को बिहारी ही चलाएगा' का क्या मतलब ?

                                                                                                -  मिलन सिन्हा

nitishबिहार को बिहारी ही चलाएगा, ऐसा चुनाव के इस मौसम में नीतीश कुमार कहने लगे हैं, क्यों कि उन्हें बिहारी मतदाताओं को नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को बाहरी बता कर उन पर भरोसा न करने के लिए प्रेरित करना है. राजनीति में ऐसा कहना-करना गैर मुनासिब नहीं कहा जा सकता है. लेकिन तब इस बात से जो बात निकलेगी, उसे भी स्वीकारना तर्क संगत होगा. 

बहरहाल, एक बात तो साफ़ है कि बिहारी में बिहार चलाने की क्षमता है जिसे सभी जानते और मानते हैं. तभी तो अब तक बिहार के मुख्य मंत्री बिहारी ही रहे हैं और आगे भी रहेंगे. तब क्या नीतीश कुमार लोगों को यह कह कर दिग्भ्रमित करना चाहते हैं कि मौजूदा चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी या अमित शाह के नेतृत्व में बिहार में सरकार गठित होगी और तब बिहार का सत्यानाश हो जाएगा. चुनावी राजनीति के कम जानकार भी ऐसा घटित होने की कल्पना  तक नहीं कर सकते. 

यद्दपि भारतीय संविधान में हर नागरिक को देश में कहीं से भी चुनाव लड़ने का अधिकार है, तथापि ‘बिहार को बिहारी ही चलाएगा’ वाले बयान से अगर नीतीश कुमार का आशय यह है चुनावी राजनीति में बिहार का प्रतिनिधित्व करने का हक बिहारी को मिलना चाहिए, तो इसका स्वागत होना चाहिए. ऐसा इसलिए कि न तो बिहार में मेधा की कमी है और  न ही मेहनत व संघर्ष के बूते आगे बढ़ने  की क्षमता रखने वाले लोगों की. लेकिन तब नीतीश कुमार को बिहार की जनता से माफी मांगते हुए राज्य सभा में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले शरद यादव, के. सी. त्यागी, पवन वर्मा सरीखे शुद्ध गैर बिहारियों से अविलम्ब इस्तीफा देने का आग्रह करना चाहिए. 

ज्ञातव्य है कि देश के अन्य प्रदेशों में अपनी–अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने एवं तलाशने में विफल रहे अनेक राजनीतिक नेताओं को बिहार के हमारे नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने ही सर–आँखों पर बिठाया,  जिससे बिहार के अनेक समर्थ नेताओं को उनके वाजिब हक से वंचित रहना पड़ा. ज्ञातव्य  है कि सम्प्रति राज्यसभा में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले कुल 16 सांसदों में से 6 सांसद  बिहार से बाहर के हैं और इन 6 सांसदों में से 5 नीतीश कुमार की पार्टी जदयू से हैं. 
(सन्दर्भ : बिहार विधानसभा चुनाव, 2015)

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं    

 प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशितदिनांक :30.10.2015

Friday, October 16, 2015

आज की कविता : विस्फोट

                                                 - मिलन  सिन्हा 

विस्फोट 
जब 
किसी की 
जबान बन्द हो 
तो सच मानो 
वहां 
विस्फोट की 
अच्छी गुंजाइश है 
पर 
इसके लिए
वहां 
एक खुले 
जबान वाले की 
उपस्थिति 
आवश्यक है ! 

               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Friday, September 18, 2015

आज की बात: आओ, 'डीएनए - डीएनए' खेलें और बुनियादी मुद्दों को नेपथ्य में ठेलें

                                                                                           - मिलन  सिन्हा 
bihar

बिहार के सत्तासीन नेताओं को आजकल नींद नहीं आ रही है, कारण उनका स्वाभिमान आसन्न चुनाव से पहले अबूझ कारणों से लाखों गुना बढ़ गया प्रतीत होता है और उससे भी कहीं ज्यादा जागृत हो कर उन्हें परेशान (?) कर रहा है. कारण, कोई उन्हें आईना दिखाने की जुर्रत (?) करता है, जिसमें उन्हें उनके ( राजनीतिक नेताओं ) द्वारा आजादी के 68 साल तक शासित बिहार का वह  चेहरा दिखाई पड़ रहा है, जहां भूख है, बीमारी है, बेरोजगारी है, शोषण है, कुपोषण है ; जहां राजनीतिक सादगी व शिष्टाचार कम और  आडम्बर, दिखावा, बयानबाजी व भ्रष्टाचार ज्यादा है .  बहरहाल, ‘डी एन ए ’ पर  ऊँचा बोलने वाले ये नेता यह बता भी पायेंगे कि इनकी पार्टी के कितने बड़े नेताओं तक को  ‘डी एन ए ’ का फूल फॉर्म मालूम है और जिनको मालूम है वे क्या बताएंगे कि वैज्ञानिक दृष्टि से सभी बिहारियों  का ‘डी एन ए ’ एक कैसे हो सकता है. फिर सवाल तो पूछना वाजिब है कि जिस स्वाभिमान को मुद्दा बनाने की कोशिश करके ऐसे लोग बिहार में चुनाव से पहले राजनीति का तापमान बढ़ाये रखना चाहते हैं, उनका वह बिहारी स्वाभिमान तब कहाँ चला जाता है, जब यह तथ्य सामने आता है कि स्वतंत्रता के 68 वर्षों बाद भी बिहार में साक्षरता दर मात्र 63 % है जो कि देश में सबसे कम है  या बिहार के 77 % परिवारों को शौचालय की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है या बिहार से रोजगार की तलाश में उन्नत प्रदेशों में जाने वालों की संख्या सर्वाधिक है .

दरअसल, राज्य में अधिकांश किसान कृषक मजदूर हैं, लेकिन उनका यह दुर्भाग्य रहा है कि भूमि सुधार के लिए योजनाएं बनने के बावजूद उनपर सख्ती से अमल नहीं हो पाया । यहाँ भी एक हद तक भू -हदबंदी एवं भूदान के द्वारा खेत मजदूरों को जमीन देने का ढोल वर्षों से पीटा जाता रहा । ऊपर से गांव के सम्पन्न व उच्च जाति के भूस्वामियों द्वारा गरीब - दलितों पर किये जा रहे अत्याचार -अन्याय में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया जिसके फलस्वरूप भूस्वामी एवं भूमिहीन के बीच सामजिक तनाव व हिंसक संघर्ष की स्थिति किसी न किसी रूप में बनी रही । 

एक और विचारणीय सवाल । बिहार में पानी की बहुलता तो है, पर जल प्रबंधन की समुचित योजना के अभाव में कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति बनी रहती है । दूसरी ओर, बीज, खाद आदि मंहगे होते रहने के कारण कृषि उत्पादन लागत बहुत बढ़ गया है, बावजूद इसके फसल को बाजार तक ले जाकर बेचने में बिचौलियों की सेंधमारी भी कायम है । फलतः  किसानों को खेती से पर्याप्त आय तो होती नहीं है, पानी के बंटवारे आदि को लेकर भी मारपीट व हिंसक झड़प  होती रहती है । ऐसी विषम परिस्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब गांव के पढ़े -लिखे नौजवान साल -दर -साल बेरोजगार रहते हैं । जहाँ तक कानून के सामने सबकी समानता के सिद्धांत का प्रश्न है, प्रशासन इसकी दुहाई तो देती है पर जमीनी हकीकत अभी भी भिन्न है । 

आजादी के 68  साल बाद भी जिसमें वर्त्तमान  सरकार  के 120  महीने का शासन भी शामिल है, आम जनता को लगता है कि यहाँ गरीबों, दलितों, शोषितों के लिए अलग क़ानून है तो अमीर, शक्तिशाली, ओहदेदार, रंगदार के लिए अलग क़ानून । हिंसा के बढ़ते जाने का यह एक प्रमुख कारण है  और  मनरेगा  आदि  के तहत रोजगार के कुछ अवसर बढ़ने के बाद भी  गांवों से मजदूरों एवं मजबूरों के पलायन का भी । 

चुनाव प्रचार के दौरान इन मुद्दों पर सार्थक चर्चा होती रहे, तभी बिहार और बिहारियों का सही हित साधन होगा .

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं      

#  प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित, दिनांक :18.09.2015

Tuesday, September 8, 2015

आज की कविता : बंधक

                                                                           - मिलन  सिन्हा 
बंधक 
उसने 
अपने सारे संबंधों को 
बंधक रख दिया 
बदले में 
ढेर सारा धन जुटा लिया 
और 
उस धन से 
अनेक नश्वर वस्तुएं ले आया 
सुख के साधन मिल गए 
खुशी नहीं मिली 
समय ने करवट ली 
न अब इस घाट के रहे 
न उस घाट के।

              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, August 25, 2015

मोटिवेशन: सरल जीवन जीना आनंद का मार्ग

                                                           -मिलन  सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर...
कहा जाता है कि सरल ही सुन्दर होता है और सर्वग्राही भी. सरल जीवन जीना आनंद का मार्ग है.  लियो  टॉलस्टॉय कहते हैं , ‘वहां कोई महानता –उत्कृष्टता नहीं हो सकती, जहां सरलता, अच्छाई और सच्चाई नहीं है.' जरा सोचिये, हम जो हैं, उसे हमसे बेहतर कौन जानता है. फिर भी हम जो नहीं हैं उसे दिखाने के चक्कर में स्वयं ही जीवन को सरल मार्ग से जटिलता की ओर ले जाते हैं. तभी तो  कन्फ़्यूशियस का कहना है, ‘जीवन वाकई सरल है, किन्तु हम इसे जटिल बनाने पर आमादा रहते हैं.’ 

एक कहावत भी हम सभी  वर्षों से सुनते आ रहे हैं, ‘सादा जीवन, उच्च विचार’. देश, विदेश से लेकर अपने आसपास भी कई लोग ऐसे मिल जाते हैं या जिन्हें हम जानते हैं  या जिनके विषय में हम पढ़ते हैं , जो इन बातों के ज्वलंत मिसाल रहे हैं . राष्ट्रपिता  महात्मा  गांधी  से लेकर प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन तक का जीवन देख लें. 

ऐसे भी, सरलता को छोड़कर  चाहे –अनचाहे  जटिलता को अपनाने में समय, उर्जा एवं  पैसे  की बर्बादी में कौन सी बुद्धिमानी है ? असहजता  और तनाव के  सीधे  रिश्ते से हम अपरिचित  भी तो नहीं हैं , क्यों ? 

उदारीकरण के वर्तमान दौर में जब चारों ओर बाजार का प्रभुत्व और जलवा दिखाई पड़ता है, जब विचारों से ज्यादा जानकारी को महत्व दिया जाता है, जब मशीनी श्रम  को मानव श्रम से ज्यादा तबज्जो देने का चलन  है, तब हमारे जैसे देश में समावेशी विकास के लिए इस कथन का विशेष अर्थ है. महात्मा गाँधी कहते हैं, ‘मनुष्य अपने विचारों से निर्मित प्राणी है. वह जो सोचता है, वही बन जाता है.' 

सोचने वाली बात तो है कि आखिर क्यों देश के आम लोग महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे या बाबा आम्टे जैसे लोगों को अपने सबसे लोकप्रिय नेताओं में गिनते हैं, जब कि वे न कभी मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, उपराष्ट्रपति या  राष्ट्रपति रहे ? 

ऐसा इसलिए कि इन्होंने न केवल हमेशा विचार के स्तर पर विशिष्टता  प्रदर्शित की जो सर्वथा लोकहितकारी थी, बल्कि अपने  रोजमर्रा की जिंदगी में आचरण के स्तर पर सादगी, सरलता और सदाचार को अंगीकार किया. शानो –शौकत, तामझाम, आडम्बर आदि से इनका कोई रिश्ता नहीं रहा . लिहाजा, ऐसे आचरण वाले नेताओं का चरण स्पर्श करना भी सौभाग्य की बात मानी गयी. इन लोगों ने जहां भी काम किया, जिस वक्त भी काम किया, वहीं एक सकारात्मक परिवर्तन सुनिश्चित किया. इनका व्यवहार आम और खास के लिए अलग –अलग न होकर  एक रूप रहा. इसी  कारण ये निरंतर सबके प्रेरणास्रोत बने रहे . 

कहना न होगा, ऐसे लोग ही देश के लिए काम करने में खुशी महसूस करते हैं, जिसे सरदार पटेल इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, ‘देश की  सेवा करने में जो मिठास है, वह और किसी चीज में नहीं.'  
    
                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# लोकप्रिय अखबार 'प्रभात खबर' में प्रकाशित 

Wednesday, August 12, 2015

आज की बात: 'अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस' - 'हमें रोजगार चाहिए'

                                     - मिलन  सिन्हा 
'अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस' के मौके पर  देश -विदेश के सभी युवाओं को हार्दिक शुभकामनाएं ! पढ़ें आगे ....  

....कहना न होगा, किसी देश का भविष्य तभी बेहतर हो सकता है, जब उस देश के युवाओं को बेहतर शिक्षा, ज्ञान , कौशल आदि  के आधार पर सहज व उपयुक्त  रोजगार उपलब्ध हों । लेकिन क्या हम अपने युवाओं के लिए ऐसा करना चाहते हैं और वाकई कर भी रहे हैं? आइये, देखें वस्तुस्थिति क्या है ?

हमारा देश विश्व का सबसे युवा देश  है । भारत दुनिया का ऐसा देश है, जहां युवाओं की संख्या सबसे अधिक है ।  2011 की जनगणना के अनुसार 15 से 29 वर्ष के आयु वर्ग के युवाओं के संख्या 33 करोड़ है, जो देश के कुल आबादी का 27.5 % है ।

गौरतलब  है कि जहां भारत में दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी रहती है , वहीँ यह भी एक कड़वा सच  है कि दुनिया में सबसे अधिक बेरोजगार युवा भी हमारे देश में हैं । इससे भी अधिक चिंताजनक विषय यह है कि युवाओं में जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है,  वैसे- वैसे ही बेरोजगारी की दर भी बढ़ रही है ।

 बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े एवं  राजनीतिक रूप से ज्यादा संवेदनशील, लेकिन औद्योगिक रूप से पिछड़ते जा रहे  राज्यों में यह स्थिति और भी गंभीर है ।  फिर भी क्या इन प्रदेशों के राजनेताओं को वाकई इसकी चिंता है ?

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण  संगठन द्वारा वर्ष 2009-10 के आंकड़ों के आधार पर जारी रपट के मुताबिक   ग्रामीण क्षेत्र के स्नातक डिग्रीधारी लड़कों  में बेरोजगारी दर 16.6 % और लड़कियों में 30.4 % रही । शहरी क्षेत्रों के ऐसे युवकों में यह  दर 13.8 % और युवतियों में 24.7 % दर्ज की गई । सेकेंडरी लेवल के सर्टिफिकेट धारक  ग्रामीण इलाके के युवकों में बेरोजगारी दर 5 % और लड़कियों  में करीब 7 %   रही, जबकि शहरी क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 5.9 % और महिलाओं में 20.5 % पाई गई ।

बहरहाल आशा करते हैं, 'जी डी पी' ग्रोथ के साथ रोजगार के अवसर में आने वाले महीनों में उत्साहवर्धक सुधार होंगे .

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, August 4, 2015

आज की कविता : मोक्ष का मजाक

                                                                                   - मिलन  सिन्हा 
Image result for free photo of persons with shackles, chainsहत्या के आरोप में 
गिरफ्तार 
एक कैदी को 
अपने पिता की मृत्यु पर 
मिलती है इजाजत अदालत से 
पिता के अन्तिम संस्कार हेतु 
आता है कैदी 
घेरे में पुलिस के 
बंधा हुआ मोटी रस्सी से 
देता है चिता को आग 
और 
पूरी करता है अन्य रस्में 
पिता के मोक्ष के लिए 
खुद घोर बंधन में जकड़े हुए !

                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, July 26, 2015

मोटिवेशन : प्रतियोगिता और पढ़ाई

                                                                                    - मिलन सिन्हा
clipप्रतियोगिता परीक्षाओं, खासकर नौकरी से संबंधित परीक्षाओं का रिजल्ट जब आता है, एक अजीब तरह का माहौल आसपास नजर आता है – कहीं ख़ुशी तो ज्यादा जगहों पर गम. कई बार सफल प्रतिभागी और विफल प्रतिभागी के बीच में प्राप्त अंकों का अंतर दशमलव में होता है, लेकिन सफल तो सफल है. चारों ओर उसी का गुणगान होता है. यह अकारण नहीं है. देश में बेरोजगारी की गंभीर समस्या के सन्दर्भ में युवाओं  के एक बड़े वर्ग के लिए  नौकरी पाना जीवन की  बड़ी उपलब्धि जो मानी जाती है. तभी तो बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में जुटे दिखाई पड़ते  हैं. बहरहाल, कई बार हम देखते हैं कि कमोबेश एक ही तरह के मेधा से लैस और सामान मेहनत करने वाले दो छात्रों में एक सफल हो जाता है, जब कि दूसरा काफी पीछे रह जाता है . देखने वाले सोचते हैं कि दोनों छात्रों ने जब बराबर ही मेहनत की है , दोनों ही पढ़ने में अच्छे रहे हैं, तो आखिर रिजल्ट में ऐसा फर्क कैसे रह गया ? वाकई फर्क पढ़ने के घंटे में नहीं, बल्कि तन्मयता से पढ़ने, पढ़ी हुई बातों को दिमाग में संजो कर रखने एवं परीक्षा में प्रश्नानुसार सही –सही उत्तर देने के बीच के बेहतर समन्वय –सामंजस्य में है . कहने का तात्पर्य यह कि अगर हमने किसी विषय विशेष के लिए 10 पेज पढ़ा , उतना ही समझ कर हम दिमाग में बिठा सके एवं परीक्षा के दौरान उससे संबंधित प्रश्नों का सही–सही उत्तर दे सके, तो उत्तम या अपेक्षित परिणाम न आने का सवाल ही नहीं है. लेकिन क्या ऐसा हो पाता है या होना संभव भी है ? आम तौर पर यह पाया जाता है कि पढ़ने, दिमाग में रख पाने तथा इम्तहान में उसका उपयोग करने का अनुपात 10 : 6 : 3 होता है. अर्थात पढ़ा तो दस पेज, दिमाग में रहा छः पेज, परन्तु उपयोग हो पाया मात्र तीन पेज. अच्छे विद्यार्थी इस अनुपात को बेहतर बनाकर  10 : 8 : 6 या उससे भी ऊपर तक ले जाने की निरंतर कोशिश करते हैं . इसके लिए वे लोग पूरे मनोयोग से पढ़ते हैं, समझते हैं, दोहराते हैं, अच्छी तरह ग्रहण करते हैं और फिर परीक्षा में उसका  यथोचित उपयोग करने में सक्षम हो पाते हैं. वे दूसरे विद्यार्थी के तरह रोजाना पढ़ते तो 8 -10 घंटा ही हैं, लेकिन वे पढ़ते हैं योजनाबद्ध तरीके से जिसमें खाने, सोने आदि को भी पर्याप्त तबज्जो दी जाती है.  ऐसे विद्यार्थी न केवल समय प्रबंधन में कुशल होते हैं, बल्कि आत्मविश्वास से भी भरे होते हैं. 

                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, July 19, 2015

मोटिवेशन : जानकार एवं जागरूक बनें

                                                                                            - मिलन सिन्हा
clip2011 के जनगणना के मुताबिक देश में साक्षर लोगों की संख्या में 9.2 % की वृद्धि दर्ज की गई. वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार यह आंकड़ा कुल जनसंख्या का  64.84 % था तो 2011  में बढ़कर 74.04 % हो गया . निश्चय ही यह देश में शिक्षा के क्षेत्र में हो रही प्रगति का सूचक है. लोग निरंतर साक्षर  व  शिक्षित बनें, यह लोकतान्त्रिक ढांचे को मजबूत बनाए रखने के लिए अनिवार्य  माना जाता है. लेकिन क्या साक्षर, शिक्षित या प्रशिक्षित  होने मात्र से हम स्वतः ही जानकार एवं जागरूक भी माने जायेंगे  या सही मायने में जानकार  तथा जागरूक होना इसके आगे की बड़ी और ज्यादा महत्वपूर्ण सीढ़ी है जिसके माध्यम से हम अच्छे–बुरे की समझदारी से लैस होकर अपने और अपने परिवार –समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं . मसलन,  सिगरेट, गुटखा, खैनी , शराब आदि हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं , तथापि हममें से अनेक, पढ़े –लिखे होने के बावजूद  इनका सेवन करते रहते हैं क्योंकि हम  इनसे होने वाले दुष्परिणामों के प्रति पूर्णतः जागरूक नहीं हैं . देश में जानलेवा बीमारियों जैसे कैंसर, ह्रदय रोग, गुर्दे की बीमारी आदि से बहुत हद तक बचे रहने के एकाधिक उपाय हैं जो जीवनशैली में अपेक्षित सुधार या बदलाव से संभव हो सकता है और अगर किसी कारण हम ऐसी बीमारी के शिकार हो भी जाते हैं , तब भी ऐसे रोगों के इलाज की व्यवस्था पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सुलभ है, बेशक सरकारी एवं प्राइवेट अस्पतालों में खर्च में भारी अंतर है, लेकिन पर्याप्त जागरूकता के अभाव में हम इन सुविधाओं का भरपूर फायदा उठाने से वंचित रह जाते हैं . एम्स, दिल्ली के कैंसर रोग विशेषज्ञ  डॉ. रथ ने हाल ही में एक टीवी प्रोग्राम में इस बात को बखूबी रेखांकित किया . उन्होंने कहा कि कैंसर के ‘स्टेज –वन’ यानी प्रारंभिक अवस्था वाले मरीज के समुचित इलाज के उपरान्त पूर्णतः ठीक होने की संभावना 80 %  होती है. जब कि ‘स्टेज –टू’  यानी इलाज में देरी से  रोग के पुराने व गंभीर अवस्था में पहुंचने के कारण सुमिचित इलाज के बाद भी रोगी के अच्छे होने की संभावना केवल 20 % रह जाती है. कमोबेश ऐसे ही परिणाम अन्य गंभीर रोगों के मामले में भी सामने आते हैं. अतः आवश्यकता इस बात की है कि जीवन की इस खट्टी–मीठी लम्बी यात्रा में हम हर मामले में जानकार एवं जागरूक बनें और अपने आसपास के लोगों को भी इसके लिए प्रोत्साहित एवं प्रेरित करते रहें.

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Saturday, July 11, 2015

मोटिवेशन : जिम्मेवारी की बात

                                                                         - मिलन सिन्हा 
clipहर घर में उस दिन हर्ष और उल्लास का माहौल होता है जिस दिन बच्चा अपने पैरों पर पहली बार चलता है, बेशक लड़खड़ाते हुए बस दो कदम ही क्यों न हो . उससे पहले कई दिनों तक उसे हाथ या अंगुली पकड़ कर चलने को प्रेरित करने की प्रक्रिया सुबह –शाम चलती है. इस क्रम में उत्साहवश  कई बार बच्चा स्वयं खड़ा होने व चलने का प्रयत्न करता है . वह गिरता है, उठता है , फिर चलने की कोशिश करता है और अंततः चल भी पड़ता है . लेकिन कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि कमोवेश एक जैसी परिस्थिति में एक ही उम्र के  बच्चे अलग –अलग समय पर चलना शुरू करते हैं, कोई पहले, कोई बाद में और कई तो काफी देर से , जब कि सबके माता –पिता अपने बच्चे को यथासमय चलते हुए देखना चाहते हैं . इसके एक नहीं, कई कारण होते हैं , किन्तु एक सामान्य पर बड़ा कारण यह होता है कि आप अपने बच्चे को इस जिम्मेदारी के लिए कैसे प्रेरित एवं तैयार कर रहे हैं . यही बात घर–दफ्तर प्रत्येक जगह लागू होती है . 

सच पूछें तो जिम्मेदारी देने से सिर्फ बात नहीं बनती, अपितु हमें उस व्यक्ति को जिम्मेदारी के लायक भी बनाना पड़ता है .कई बार यह भी होता है कि व्यक्ति जिम्मेदारी के लायक तो होता है, परन्तु उसे जिम्मेदारी दी नहीं जाती, जिससे उसके अंदर कुंठा और हीन भावना घर करने लगती है. इससे उस व्यक्ति के  आत्म विश्वास, प्रतिबद्धता, कार्य क्षमता आदि पर नकारात्मक असर पड़ता है . 

सर्वमान्य तथ्य यह  है  कि मनुष्य मात्र में जिम्मेदारी लेने की स्वभाविक प्रवृति होती है. वह  दुनिया के सामने यह साबित करना चाहता है कि वह भी उस कार्य के लायक है. और फिर मौका दिए जाने पर व्यक्ति पूरे लगन, उत्साह और उर्जा के साथ अपेक्षा से कहीं बेहतर परिणाम देने की भरपूर कोशिश करता है .  इस क्रम में उस व्यक्ति की सृजनशीलता रंग दिखाती है, उसका काम के प्रति लगाव बढ़ता है और साथ ही अपने सहकर्मियों तथा उस संस्था से जुड़ाव भी. कहते हैं न कि जिस  आदमी को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया, वह जीवन में कुछ आगे बढ़ गया, घर-समाज के लिए कुछ बेहतर करने लायक बन गया. 

यही कारण है कि अच्छी  संस्थाएं अपने कर्मचारियों का नियमित आकलन करती है एवं उन्हें सतत प्रेरित करते हुए जिम्मेदारी लेने लायक बनाती है. इतना ही नहीं, जिम्मेदारी देने के बाद एक मार्गदर्शक की भूमिका का बखूबी निर्वहन भी करती हैं .
                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, June 28, 2015

मोटिवेशन : विज्ञापन और हमारा खान-पान

                                                   - मिलन सिन्हा 
clipमानव शरीर रूपी इस अदभुत मशीन के बारे में जितना जानें, कहें और लिखें, कम ही होगा. बचपन से बुढ़ापे तक अनवरत धड़कने वाला जहाँ हमारा यह दिल है, वहीं अकल्पनीय सोच, खोज व अनुसंधान-आविष्कार का जनक हमारा मस्तिष्क. सोचने से करने तक के सफ़र में निरंतरता को साधे रखने का इस मशीन का कोई जोड़ नहीं है . लेकिन क्या यह सब बस यूँ ही होता रहता है या इस शरीर को चलाए रखने के लिए आहार रूपी संसाधन की भी रोजाना जरुरत होती है ?  सही है, लेकिन जैसे मिलावट वाले तेल से गाड़ी की सेहत खराब हो जाती है, वैसे ही अशुद्ध व मिलावटी खान–पान से हमारा शरीर कमजोर, अस्वस्थ और अंततः बीमार हो जाता है. दिलचस्प बात है कि ज्यों ही हम अपने खान–पान की चर्चा करते हैं , त्यों ही हम एक विराट बाजार पर प्रकारांतर से अपनी बढ़ती निर्भरता की बात स्वीकारते हैं, जहाँ आजकल लाखों नहीं बल्कि करोड़ों ऐसे खाद्द्य एवं पेय पदार्थ – ब्रांडेड-अनब्रांडेड, प्रोसेस्ड-सेमी प्रोसेस्ड, पैक्ड–अन पैक्ड, नेचुरल–आर्टिफीसियल, न जाने क्या-क्या और क्यों उपलब्ध है. और हम लोग खरीद कर जाने-अनजाने कितना और कैसे उनका सेवन भी कर रहे हैं. दिनभर के 1440 मिनट में जैसे 2 मिनट का हिस्सा है, शायद वैसे ही ‘टू मिनट मैगी’ प्रकरण का हमारे अनियंत्रित और  विज्ञापन पोषित एक बहुत बड़े मार्केट में है, जहाँ फ़ूड सेफ्टी रेगुलेशन के दायरे में  बाजार में बिकने वाली चीजों को जांचने-परखने का कोई प्रचलन कम-से-कम जमीन पर तो दिखाई नहीं पड़ता है . फिर जब देश के करोड़ों नादान तथा अपेक्षाकृत कम जागरूक लोग खाद्द्य व पेय सामाग्रियों के विज्ञापन में नामचीन व लोकप्रिय हस्तियों को इन पदार्थों का बढ़–चढ़ कर प्रचार करते हुए देखते हैं, तो वे भी इनके उपयोग के लिए प्रेरित हो जाते हैं. इस क्रम में  न केवल आम लोगों की जेब ढीली होती है, अपितु उनकी सेहत भी खराब होती है. लिहाजा यह आवश्यक हो गया है कि विज्ञापनों में चीजों की गुणवत्ता से जुड़े दावों की पूरी जांच-पड़ताल की जाए एवं तथ्यों को सार्वजनिक किया जाय. साथ ही, आम लोगों को इस  संबंध में सतत जागरूक होते तथा करते रहने की नितांत आवश्यकता है, जिससे वे एक जागरूक व जानकार उपभोक्ता के तौर पर चीजों का उपयोग कर सकें.

                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Saturday, June 13, 2015

मोटिवेशन : मौसम के साथ एडजस्टमेंट

                                                                                     - मिलन सिन्हा 

clipदेशभर में अप्रत्याशित गर्मी पड़ रही है, मानसून की पहली फुहार का इन्तजार लम्बा हो रहा है और ऊपर से मौसम वैज्ञानिकों ने इस बार सामान्य से कम वर्षा का अनुमान भी व्यक्त किया है. गर्मी से सब बेहाल हैं, विशेष कर बच्चे, बूढ़े और ऐसे करोड़ों देशवासी जो रोटी, कपड़ा, मकान जैसे बुनियादी आवश्यकताओं से आज भी जूझ रहे हैं. देश की राजधानी दिल्ली सहित देश भर में पानी की घोर किल्लत है. आम लोगों को पीने का पानी भी बमुश्किल मिल पा रहा है. गाँवों में तो फिर भी कुछ पेड़-पौधे बचे हैं जिनके छाँव में लोग सकून के कुछ पल गुजार सकते हैं, लेकिन हमारे अधिकांश महानगरों, नगरों एवं कस्बों में बढ़ती जनसंख्या  तथा निरंतर कटते–उजड़ते पेड़ों-बागों के बीच ईंट-कंक्रीट-सीमेंट  के जंगल जिस बेतरतीब ढंग से फैलते गए हैं और जहां दो पहिया–चार पहिया वाहनों द्वारा उत्सर्जित गैस आदि के कारण प्रदूषण व तापमान में इजाफा हो रहा है, वहां इस मौसम में बाहर जाकर काम करना सेहत के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला साबित हो रहा है. अनेक लोग तो लू, डिहाइड्रेशन आदि से मर भी रहे हैं. बहरहाल, मौसम के बदलते मिजाज को अपने अनुकूल बनाना नामुमकिन नहीं तो बेहद मुश्किल जरुर है और यह एक दीर्घकालिक पर्यावरण संरक्षण अभियान के बिना  संभव भी नहीं  हो सकता है. ऐसी परिस्थिति में मौसम के अनुकूल अपने रहन-सहन, आहार और पहनावे के साथ –साथ घर-ऑफिस के परिवेश को एडजस्ट करना बुद्धिमानी होगी . मसलन, गर्मी के इस मौसम में प्राकृतिक तौर पर उपलब्ध या तैयार तरल पदार्थ का अधिक सेवन करना चाहिए. नारियल पानी, बेल का शर्बत, सत्तू का घोल आदि पीना लाभदायक साबित होगा. घर से निकलने से पहले जरुर कुछ खा-पी लें और साथ में पानी का बोतल रख लें . पहनावे में  काले व गाढ़े रंग के बजाय सफ़ेद या बिलकुल हलके रंग के थोड़े ढीले सूती कपड़े पहनना मुनासिब होगा. संभव हो तो सुबह –शाम स्नान करें.  घर-ऑफिस के दरवाजों एवं खिड़कियों में खसखस की चटाई या मोटे सूती कपड़े के परदे लगाने चाहिए. कहने की जरुरत नहीं कि भीषण गर्मी के ऐसे मौसम में स्टाइलिश दिखने से ज्यादा आवश्यक है  सेहतमंद रहना एवं दिखना . 
                     
                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, June 7, 2015

मोटिवेशन : सोच-समझ कर लें एडमिशन

                                                     - मिलन सिन्हा 
clipहाल ही में देश भर में दसवीं एवं बारहवीं कक्षाओं के रिजल्ट आये हैं. अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों की संख्या अच्छी-खासी है. स्वभावतः ऐसे घरों में ख़ुशी का माहौल है. बच्चों के साथ घर-परिवार के लोग आगे की पढ़ाई की योजना में लगे हैं. छात्र-छात्राओं सहित अभिभावकों को एडमिशन के लिए विभिन्न शिक्षण संस्थानों का चक्कर लगाते एवं फॉर्म आदि के लिए लम्बी कतारों में खड़े अपनी बारी का इन्तजार करते देखा जा रहा है. ऐसे समय निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा ऐसे विद्यार्थियों को अपने यहां नामांकन-पंजीकरण के उद्देश्य से बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जाते हैं, अनेक सच्चे-झूठे वादे किये जाते हैं, कैरियर व रोजगार से जुड़े अनेकानेक सुनहरे सपने दिखाए जाते हैं. बाजारवाद के इस आर्थिक दौर में यह सब सामान्य हो चला है. बिहार, झाड़खंड जैसे प्रदेशों जहाँ उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों की आज भी बेहद कमी बनी हुई है और जहाँ से बड़ी संख्या में छात्र दिल्ली सहित अन्य बड़े स्थानों में मौजूद कॉलेजों में एडमिशन के लिए जाते रहे हैं, वहां इस बार भी दाखिला पाने की पुरजोर कोशिश हो रही है. 

शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा के निरंतर मंहगे होते जाने के इस दौर में किसी भी सीमित आय वाले मध्यम व निम्न वर्गीय परिवारों के लिए अपने बच्चों को योग्य होते हुए भी नामचीन संस्थानों में मनचाहे कोर्स में एडमिशन दिलवाना और फिर दो-तीन-चार वर्षों तक पढ़ाई जारी रखवाना अत्यन्त मुश्किल काम होता है. लिहाजा बिना छात्रवृति और बैंक लोन के अनेक बच्चों के लिए आगे की शिक्षा एक सपना बनकर रह जाती है. ऐसी परिस्थिति में विज्ञापनों के मायाजाल में उलझे बगैर हर विद्यार्थी व उनके परिवारजनों को सारी संभावनाओं व उसके व्यवहारिक पक्षों-परिणामों पर गहन विचार-विमर्श करके किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए. ऐसे नाजुक मौकों पर भावना में बहकर या किसी दोस्त की देखा-देखी या किसी के सलाह को बिना जांचे-परखे किसी  भी कोर्स या संस्थान में एडमिशन  लेना मुनासिब नहीं होगा. कहने का अभिप्राय यह कि अपनी रूचि के अनुरूप और “भीड़ के साथ चलने की मानसिकता” से प्रेरित हुए बिना  हरेक विद्यार्थी को खूब सोच-समझ कर फैसला करने की आवश्यकता है जिससे कि उनका व उनके परिवार का भविष्य हर मायने में आज से बेहतर बन सके.

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

Sunday, May 31, 2015

मोटिवेशन : आवश्यकता बनाम विलासिता

                                                                -मिलन सिन्हा
clipगांधी जी कहा करते थे कि आवश्यकताओं को पूरा करना नामुमकिन नहीं है, लेकिन लालच को पूरा करना वाकई है. 

मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा को व्यक्तिगत, सामाजिक व सरकारी स्तर पर पूरा करना बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन सबके लिए विलासिता के सामान उपलब्ध करना-करवाना क्या प्राथमिकता में शुमार होना चाहिए? 

यह एक महत्वपूर्ण विचारणीय सवाल है जिसका उत्तर हम सबको मिलकर तलाशना होगा और उस पर अमल भी सुनिश्चित करना होगा. 

हम सब यह तो मानेंगे कि हमारे देश में संसाधनों की कमी नहीं है. कमी है तो संसाधनों की मौजूदा वितरण व्यवस्था में. सभी जानते हैं कि संसाधनों के वितरण में दशकों से चले आ रहे गोलमाल एवं सुनियोजित गड़बड़ी के कारण देश में गरीबों और अमीरों के बीच सुविधाओं का विराट अंतर रहा है जो साफ़ दिखता भी है. समाज विज्ञानियों का कहना है कि इस असमानता की वजह से भी देश के अनेक भागों में समय-समय पर आपसी सामाजिक समरसता में असंतुलन व उसके फलस्वरूप हिंसा की  घटनाएं होती रहती है. इससे हमारा लोकतंत्र मजबूत होने के बजाय कमजोर होता है, विकास की रफ़्तार बाधित होती है. 

खुले दिमाग से सोचने पर यह स्पष्ट होता जाता है कि विलासिता के भाव का प्रवेश एवं उसके प्रति निरंतर बढ़ती आसक्ति हमारे जीवन के सामान्य व प्राकृतिक लय को बिगाड़ कर उसे जटिल एवं प्रदूषण युक्त बनाने का काम करता है. 

गांधीजी के जीवन प्रसंग के उल्लेख से ही इस चर्चा को ख़त्म करें तो हम पाते हैं कि गांधीजी ने अपने जीवन को इतना सरल और सामन्य बना लिया था कि कभी कोई काम करने में उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं हुई. साथ ही वे हमेशा पूर्णतः स्वस्थ एवं उर्जावान बने रहे. क्या हम सब भी ऐसी कोशिश नहीं कर सकते? 

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

Friday, May 22, 2015

आज की कविता : यौगिक

                                       - मिलन सिन्हा 
यौगिक
यहाँ
प्रत्येक व्यक्ति
एक यौगिक है
जिसके
तत्वों को
अलग -अलग करके
पहचानना
काफी मुश्किल है !
            और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, May 12, 2015

मोटिवेशन : इज्जत करें और इज्जत पाएं

                                                               - मिलन सिन्हा 
हमें बचपन से यह बताया और सिखाया जाता है कि न केवल अपने से बड़ों से  बल्कि संसार में हर इंसान के साथ पूरी मानवीय संवेदना से पेश आना चाहिए. अपनी वाणी एवं व्यवहार से किसी को भी आहत करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए. इसी दर्शन को अपनाते हुए देश-विदेश के सफलतम लोग और कम्पनियां मानवीय व्यवहार में इज्जत दे कर इज्जत पाने के  सरलतम, किन्तु अत्यन्त प्रभावी मार्ग पर चलते हैं. लेकिन क्या हमारे आसपास ऐसा देखने को मिलता है? कड़वा सच तो यह है कि आजकल घर-बाहर हर जगह छोटी-छोटी बात तक पर तकरार व गाली-गलौज को हथियार बनाकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश आम होती जा रही है. सत्ता या पद के नशे में चूर कुछ ओहदेदार लोगों का अपने ही घर-आफिस में उनके सहायकों के साथ अभद्र व अमानवीय तरीके से पेश आने की ख़बरें हम पढ़ते रहते हैं. अपने ऑफिस या कार्यस्थल में तो अधीनस्थ कर्मी अपनी नौकरी बचाए रखने जैसे कारणों से बॉस का खौफ खाते हैं और उनकी बेवजह की डांट-फटकार को भी कई बार चुपचाप सह लेते हैं. हालांकि बॉस प्रवृति वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता या पद तो आज है, कल रहे या ना रहे, लेकिन उनके द्वारा अपने लोगों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार का दुर्गन्ध उनके आसपास हमेशा बना रहेगा और उन्हें कमजोर करने के साथ –साथ परेशान भी करता रहेगा. 
सोचने वाली बात है कि किसी को नीचा दिखाना बड़े होने की पहचान थोड़े ही है, बल्कि यह तो उनके व्यक्तित्व में बड़ी कमी को दर्शाता है. खुद को सामने वाले की जगह पर रखकर देखने पर ऐसी समस्या नहीं होती. सच कहें तो हर आदमी को अपना स्वाभिमान बहुत प्यारा होता है और वह खुद अपनी गरिमा और मर्यादा को अक्षुण्य बनाए रखना चाहता है. इसीलिये तो ज्ञानीजन कहते हैं कि विश्वसनीय सम्बन्ध बनाने का एकमात्र तरीका दूसरों की गरिमा का सम्मान करना है. कहने का अभिप्राय यह कि हम जैसा व्यवहार दूसरों से चाहते हैं, हमें वैसा ही व्यवहार उनसे करनी चाहिए. ऐसे भी इज्जत मांगने से कदाचित ही मिलता है, इसे तो अपने कर्मों तथा अच्छे व्यवहार से अर्जित करना पड़ता है.
                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Monday, May 4, 2015

मोटिवेशन : आपदा, अफवाह एवं अच्छाई

                                                                          -मिलन सिन्हा
clip
हाल ही में पड़ोसी देश नेपाल के साथ बिहार प्रदेश में भी जो भूकम्प के बड़े झटके महसूस किये गए, उसके बाद भी कई छोटे-छोटे कम्पन महसूस किये जाते रहे, जिसे भूकम्प का आफ्टर शॉक्स कहा जाता है. ये आफ्टर शॉक्स यानी अपेक्षाकृत छोटी तीव्रतावाले झटके दो-चार दिनों तक आते रहें तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है. विशेषज्ञ कहते हैं कि इन दिनों में अतिरिक्त जागरूकता, संयम और सतर्कता की जरुरत होती है. कहना न होगा भूकम्प के पहले बड़े झटके से अगर किसी मकान/ अपार्टमेंट  में दरार आ गई है या मकान / अपार्टमेंट क्षतिग्रस्त हो गए हैं, तो उसे तत्काल इंजीनियर/विशेषज्ञ से दिखाकर उनकी सलाह से आगे की कारवाई करनी चाहिए क्यों कि आफ्टर शॉक्स के दौरान ऐसे मकानों/ इमारतों को ज्यादा नुकसान होने की संभावना होती है.


हम सब जानते हैं कि भूकम्प जैसे आपदा का पूर्वानुमान लगाना मुमकिन नहीं होता है. शायद इसी का फायदा उठाकर कुछ शरारती लोग ऐसी प्राकृतिक विपदा के वक्त भी अफवाह और भ्रम फैलाने की कोशिश करते हैं. इससे अनावश्यक ही दहशत व खौफ का एक नकारात्मक परिवेश निर्मित हो जाता है जिसका नुकसान निर्दोष व कम समझदार लोगों को उठाना पड़ता है. इसका तात्कालिक  असर बच्चों, महिलाओं और बूढ़े –बीमार लोगों पर ज्यादा देखा गया है. फलतः कई बार भूकम्प आदि से जितनी क्षति होती है, उससे कहीं ज्यादा क्षति अफवाह के कारण मची अफरा-तफरी से हो जाती है.


कहते हैं न किसी भी आपदा या संकट की घड़ी में अच्छे लोगों की सही पहचान होती है और उनके कंधे पर इससे पार पाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी. तो ऐसे समय में राहत व पुनर्वास के सभी उपायों के साथ–साथ समाज के सच्चे व अच्छे, जानकार-जानदार लोगों यानी ओपिनियन मेकर्स द्वारा व्यक्तिगत व सामूहिक स्तर पर आम लोगों के प्रति एक अपील करने की आवश्कता होती है जिसमें तथ्यों की जानकारी दी जाय और अपवाह, भ्रम आदि से लोगों को बचने का आग्रह भी किया जाय.

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं