Tuesday, January 28, 2014

मोटिवेशन : 'आज' में जीना सीखें

                                                         - मिलन सिन्हा 
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या तो हम अतीत में जीते हैं या भविष्य में, और वह भी सामान्यतः नकारात्मकता के आगोश में। कल में जीने की इस आदत के कारण हम जीवन की समस्याओं का हल ठीक से नहीं खोज पाते हैं। मजे की बात है, जब हम अवसादग्रस्त होते हैं, दरअसल उस वक्त हम अतीत में जी रहे होते हैं; उस बीते हुए समय में क्या नहीं कर पाये, उसको लेकर ग्लानि होती है और फिर खुद को जिम्मेदार मानकर कोसते हैं।  दूसरी अवस्था होती है जब हम चिन्तित होते हैं , तब वाकई हम भविष्य की शंका,आशंका एवं कुशंका में उलझे होते हैं। सच तो यह है कि न तो हम अपने अतीत को लौटा कर ला सकते हैं और न ही अपने भविष्य को पूर्णतः निर्धारित कर सकते हैं क्यों कि आनेवाले दिनों में घटित होनेवाली घटनाएं कई ऐसी स्थितियों पर निर्भर होती  हैं  जिनपर हमारा नियंत्रण नहीं होता है। तो अब बचा क्या, वह समय जो अभी हमारे साथ है अर्थात वर्तमान। कहते हैं, जो भी सच्चे दिल से और खुले दिमाग से अपने अतीत के अनुभवों से सीख लेकर  'वर्तमानका सम्मान करता है, उस पल को पूर्णता में जीता है, वह अव्वल तो अपने कार्य में भरपूर मजा उठाता है और वही अपने  'भविष्य' को सुनहरा बनाने में सक्षम भी होता है। आइए देखें, गुजरे हुए कल और आनेवाले कल के बीच फंसे मनुष्य के बारे में कवि अटल बिहारी वाजपेयी ने क्या लिखा है :

कल, कल करते, आज / हाथ से निकले सारे,
भूत, भविष्यत् की चिंता में / वर्तमान की बाजी हारे।                                                                      
पूरे विषय पर जरा आराम से सोचकर देखिएगा, मजा आएगा, खुद पर हंसने का मन भी करेगा और तब  परफेक्ट लाइफ की ओर आपका अगला कदम स्वतः बढ़ जाएगा।  
            
                       और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं

Tuesday, January 21, 2014

मोटिवेशन : कोशिशें कामयाब होंगी

                                                        - मिलन  सिन्हा 
Displaying 6986278-0.jpgहम सभी कुछ-न-कुछ  करना चाहते हैं, खुश रहना चाहते हैं। चाहते हैं कि हर सुबह का आगाज एक नयी आशा के साथ हो और दिन भर के प्रयास और परिश्रम के बाद उस दिन के अनुभव एवं  उपलब्धियों को समेटे  रात में अच्छी नींद का आनंद ले सकें। परन्तु ऐसा रोज न जाने क्यों नहीं हो पाता है? 

एक विज्ञापन तो आपने भी देखा होगा टीवी पर। वही जिसमें ऑफिस में काम के बोझ से परेशान एक बाबू पूछता है 'संडे कब आएगा'। इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में जिसे देखिये परेशान है, दुखी है, संडे की प्रतीक्षा में कम- से -कम सप्ताह के बाकी दिन मानसिक तनाव में जी रहा है। न ठीक से खा पा रहा है, न ठीक से सो पा रहा है और न ही किसी के कंधे पर सिर रख कर रो पा रहा है। कहे तो किससे कहे, करे तो क्या करे ?

तनाव बढ़ता जाता है। गुस्सा बीवी- बच्चों पर निकलता है या ऑफिस में अधीनस्थ सहकर्मियों पर, बेवजह। शॉर्टकट समाधान के तौर पर रात में दो-तीन पैग लेना पड़ता है या नींद की गोली। फिर भी सुबह वही हालत। क्यों ?

ऐसा इसलिए कि हम तनाव को दिमाग में बैठा कर सोचते और उलझते रहते हैं। समाधान आसान होता है, पर उसे ढूढ़ने का हमारा तरीका जटिल । मानसिक तनाव के ऐसे किसी अवस्था में आप उन कारणों को स्वयं एक कागज़ पर लिखें और उसी के सामने सम्भावित व व्यवहारिक समाधान भी लिखें।  अधिकतर मामले में आप पाएंगे कि तनाव के उन कारणों का निराकरण आपने खुद कर लिया है। कहने का मतलब,दिमाग से जब कोई चीज कागज़ पर उतर आती है, अमूमन  उसका समाधान दिख जाता है।  हाँ, एकाध मामले ऐसे हो सकते हैं जिसको सुलझाने के लिए आपको कुछ कदम उठाने पड़ें, कुछ प्रयास करने पड़ें जो आपके सोच एवं सामर्थ्य से परे भी न हो। तभी तो दिनकर जी लिखते हैं :

ख़म ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड़। 
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है 

तो संडे का इंतजार छोड़, रोज जीयें एक परफेक्ट लाइफ !

                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं
'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित        

Tuesday, January 14, 2014

आज की कविता: धरती से कटने का 'सुख'

                                                   - मिलन सिन्हा
स्टेशन  थाना बिहपुर
जिला भागलपुर
रूकती  है गाड़ी असम मेल
मच जाती है धकम पेल
खुलती है गाड़ी
तेज होती रफ़्तार थोड़ी 
जाड़े का है मौसम 
पर उन टिकटधारी यात्रियों को 
जिनके शरीर पर कपड़े हैं कम 
नहीं कोई इसका गम 
चल रही है ठंडी हवा 
पर उन्हें नहीं इसकी परवाह 
इधर-उधर देखे बिना ही 
सीटें खाली रहते हुए भी 
सट-सट कर बैठ जाते हैं वे 
जमीन पर ही 
पूछता हूँ 
अपनी सीट के पास नीचे बैठे 
एक किशोर से उसका नाम 
वह शर्माता है, फिर बताता है,
'दिनेश कहार'
उम्र यही कोई ग्यारह साल 
गंगा की भटकती धारा से 
तबाह होने वाले इलाके 
नारायणपुर का निवासी 
जहां की जमीन 
सिंचाई सुविधा के अभाव में 
पड़ी है अब भी प्यासी 
वह बताता है 
उसके पास भी थी 
एक बीघा जमीन 
पर उसे भी 
नाप जोख में 
हड़प गया बूढ़ा अमीन 
देह पर उसके एक  फटा कुर्ता 
और एक नेकर डोरीवाला 
बटुए में है उसका टिकट 
गमछे में बंधा है चूड़ा और नमक 
गाँव में अपनी माँ और 
चार भाई बहनों को छोड़े 
जा रहा है वह पंजाब 
खोजने रोजगार 
पंजाब का नाम लेते ही 
चेहरे पर हंसी है, नहीं है उदासी 
लगता है अपनी जमीन से 
कटने में भी शायद 
कभी - कभी मिलती है  ख़ुशी !

                       और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं
# 'योजना' के 16 -31 मार्च '83 के अंक में प्रकाशित 

Tuesday, January 7, 2014

आज की कविता : धरती की आवाज

                                                                                 -मिलन  सिन्हा 
गुजरात में 
धरती में कंपन हुआ 
मात्र पैंतालीस सेकेंड 
और 
गणतंत्र दिवस के अवसर पर 
हजारों लोगों ने 
तिरंगे को अंतिम सलाम किया 
कुछ ही पल में 
कई एक शहर 
अनेकानेक कस्बे व गाँव 
श्मशान में तब्दील हो गए 
जो बचे - अनाथ, आहत, विपन्न, बेघर . .. 
ईंट, कंक्रीट के मलबे में 
अपना -अपना अतीत 
तलाशते फिर रहे थे 
सहायता कार्य के बीच 
जांच -पड़ताल की बात भी चल पड़ी 
भूखे को रोटी 
नंगे को कपड़ा 
बेघर को घर जैसे नारों से 
माहौल फिर गूंजने लगा 
बड़े पैमाने पर 
पुनर्निर्माण की योजना बनने लगी 
धरती पर 
और ज्यादा बोझ की संभावना प्रबल हुई 
इन सब घटना -दुर्घटनाओं के बीच 
मलबे से एक धीमी आवाज 
फिर सुनाई पड़ी 
'माँ, मुझे बचा लो, माँ 
मैं इतना बोझ नहीं सह सकती ..... '
कंपकंपी -सी  दौड़ गयी 
मेरे पूरे शरीर में 
सोच कर यह कि 
कहीं यह 'धरती' की आवाज तो नहीं !

           और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं