Saturday, April 26, 2014

मोटिवेशन : ना कहना भी सीखें

                                                      - मिलन सिन्हा 
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हम सब हाँ-ना वाले लोग हैं। सुबह से शाम तक कभी हाँ, कभी  ना कहते हुए हम अपने जीवन का एक और दिन गुजार लेते हैं। चुनावी मौसम में हाँ- हाँ, अर्थात कसमें-वादेघोषणा-आश्वासन का एक अलग ही माहौल बन जाता है। बेशक बाद में हम क्यों न यह पूछते पाये जाएं - क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम, वो इरादा ! दरअसल, सामनेवाले  के मुँह से हाँ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता ! 'यस सर' तो  कारपोरेट जगत की  तथाकथित संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हो चला है। पर थोड़ा ठहर कर सोचने पर अटपटा लगता है  कि हर मुद्दे पर सहमति में हाँ कहना कैसे संभव है , कहाँ तक उचित है ? फिर, सिर्फ हाँ कह देने मात्र से बात बन जाती है या उस हाँ के अनुरूप अपेक्षित कार्य को  अंजाम देना मुख्य उद्देश्य होता है ? अधिकतर मामलों में हम पाते हैं कि लोग 'ऑल प्लीज एटीट्यूड' अथवा 'फियर साइकोसिस' के तहत 'यस सर' का सहारा लेते हैं।  ऐसी स्थिति में कमिटमेंट पूरा नहीं होने पर अनावश्यक मानसिक द्वन्द/ तनाव, विश्वसनीयता का संकट, वादाखिलाफी के आरोप आदि से जूझना पड़ता है।
    
सामान्य तौर पर देखें तो किसी को एकदम से  ना कहना आसान नहीं होता, पर ना कहना कोई गुनाह भी तो नहीं। हाँ, ना कहना भी एक कला है और देखा गया है कि जो लोग इस  कला में पारंगत हो जाते हैं वे ना कहकर भी लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहते हैं क्यों कि ऐसे लोग अमूमन हाँ और ना की मर्यादा को बखूबी निभाना जानते हैं। गांधी जी ने भी कहा है, 'शुद्ध अंतःकरण व प्रतिबद्धता से बोला गया एक स्पष्ट 'ना'  उस 'हाँ' के वनिस्पत कहीं ज्यादा अच्छा है जो महज दूसरे को खुश करने या किसी समस्या से तात्कालिक निजात पाने के लिए किया जाता  है।' 
                     और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Saturday, April 19, 2014

मोटिवेशन : समय में करें निवेश

                                                                              - मिलन सिन्हा 
Displaying 8838125.jpgकुदरत ने बिना किसी भेदभाव के हम सबको हर दिन चौबीस घंटे का समय दिया है; न किसी को एक मिनट कम, न किसी को एक मिनट ज्यादा। समय बलवान है, समय अनमोल है, टाइम इज मनी - हर कोई यह कहते पाया जाता है, तथापि जिससे पूछिए वही आज कहता है कि उसके पास समय नहीं है। सम्भवतः यही कारण है कि बड़े -छोटे सभी प्रबंधन संस्थाओं में 'टाइम मैनेजमेंट' नामक विषय उनके पाठ्यक्रम का अभिन्न हिस्सा होता है, क्योंकि विशेषज्ञ यह  जानते-समझते-बताते   हैं  कि समय के समुचित प्रबंधन के बिना जीवन में शायद ही किसी चीज का प्रबंधन हम सही रूप में कर सकते हैं। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि विज्ञान ने हमारे जीवन में अनेकानेक बदलाव किए - रोज नित नये वैज्ञानिक उपकरणों व तकनीकी उत्पादों को उपलब्ध करवाकर हमें न केवल समय बचाने के उपाय बताये, बल्कि हमें विकास की गति के साथ कदमताल मिलाकर चलने की सुविधा प्रदान की। फिर क्यों हमारे पास समय की कमी है ? 

विचारणीय सवाल यह है कि  24 घंटे या 1440 मिनट के एक दिन में हम कितना कुछ कर सकते हैं। तो फिर क्यों न  इसका एक  डायरी नोट बनाएं;  पैरेटो के 20/80 के सिद्धांत को फॉलो करें ? सोचिये जरा  गंभीरता से कि हम राजनीति या धर्म पर बहस करते हुए अपना कितना समय बिना किसी ठोस व सार्थक नतीजे पर पहुंचे यूँ ही गंवाते रहते हैं; मोबाइल, फेस बुक, इंटरनेट  आदि पर हम रोज कितना वक्त गैरजरूरतन व्यतीत कर देते हैं! देखिए, आप भी तो जानते हैं कि खोया हुआ ज्ञान, धन या  स्वास्थ्य क्रमशः तीव्र अध्ययन, कठोर श्रम या समुचित चिकित्सा से  दोबारा  प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु खोया हुआ समय किसी भी तरह दोबारा हासिल करना संभव नहीं है। सो, आज का संदेश : समय में करें निवेश !


                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Wednesday, April 16, 2014

आज की कविता : बदलता ज़माना

                                                      -मिलन सिन्हा 
बैसाखियों पर चलनेवाले 
दे रहे हैं लेक्चर 
कैसे खुद अपने पैरों पर 
खड़ा हुआ जाता है !
दूसरों का टांग खींच कर 
आगे बढ़नेवाले 
बता रहे हैं 
आपका आचरण कैसा हो !
दूसरों के कंधों को 
सीढ़ी बनाकर ऊपर उठने वाले 
उपदेश दे रहे हैं !
कैसे आकाश की बुलंदियों को छुआ जाय !
बात - बात पर 
थूककर चाटनेवाले
वचन निभाने का 
वादा कर रहे हैं !
दूसरों का पद पूजन करके 
पद प्राप्त करनेवाले 
अब पद की मर्यादा का 
महत्व समझा रहे हैं !
ज़माना बदलता है 
ज़माना बदलेगा 
ये  तो जानते थे हम 
लेकिन इतना और ऐसा बदलेगा 
ऐसा कहां सोचा था 
ऐसा कब किसी ने कहा था !

                      और भी बातें करेंगे, चलते-चलते.  असीम शुभकामनाएं .
 प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित

Tuesday, April 15, 2014

आज की बात: गौरवशाली बिहार में आज की हकीकत

                                                              - मिलन सिन्हा 

Silhouette Of Buddha Statue Stock Photoलोकसभा चुनाव,2014 के मद्देनजर किसी भी प्रदेश में हिंसक घटनाओं में वृद्धि को बिल्कुल अस्वभाविक नहीं कहा जा सकता है, लेकिन बिहार में ऐसी घटनाओं में इजाफे को मात्र इस तरह व्याख्यायित करना शायद सही नहीं होगा । इसलिए, तमाम राजनीतिक उठा -पटक, नैतिक - अनैतिक जोड़ -तोड़, आरोप -प्रत्यारोप के बीच इन घटनाओं को एक व्यापक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में पूरी समग्रता में देखना जरुरी होगा । 

बिहार का अतीत अत्यन्त गौरवशाली रहा है, जिसका उल्लेख वेदों, पुराणों एवं महाकाव्यों तक में प्रचुरता में मिलता है । आबादी के लिहाज से यह देश का तीसरा तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से बिहार देश का 12वां बड़ा राज्य है । इसका 45 % हिस्सा कृषि क्षेत्र के अन्तर्गत आता है; 76 % आबादी खेती से अपना जीविका चलाती है ।   यहाँ की मिट्टी बहुत उपजाऊ है । यहाँ के आम जनता का जीवन सीधा -सादा है और यहाँ के लोग काफी मेहनती  तथा बचत पसंद हैं । बिहारी छात्र हमेशा से मेधावी रहे हैं ।  अखिल भारतीय  स्तर की हर परीक्षा में भी यहाँ के छात्रों की संख्या प्रत्याशा से हमेशा अधिक रहती है । गत दो दशकों से प्रदेश में कोई राजनीतिक अस्थिरता भी नहीं रही ।  और तो और पिछले आठ वर्षों से प्रान्तीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) भी औसतन 10 % से ज्यादा रहा है । 

तो फिर, बिहार में मानव विकास सूचकांक कमजोर क्यों है; बेहतर जीडीपी दर का अपेक्षित फायदा गरीबी उन्मूलन,शिक्षा, स्वास्थ्य,आवास,  रोजगार आदि क्षेत्रों और राज्य के सभी इलाकों और समुदायों को समावेशी रूप में क्यों नहीं मिला है; बिहार की प्रति व्यक्ति आय पिछले एक दशक में बेहतर तो हुई है, परन्तु यह अब भी देश के अग्रणी राज्यों के मुकाबले आधे से भी कम क्यों है ? क्या इन सबका धरना, प्रदर्शन, आन्दोलन और हिंसक घटनाओं से  कोई रिश्ता नहीं है ?

दरअसल, राज्य में अधिकांश किसान कृषक मजदूर हैं, लेकिन उनका यह दुर्भाग्य रहा है कि भूमि सुधार के लिए योजनाएं बनने के बावजूद उनपर सख्ती से अमल नहीं हो पाया । यहाँ भी एक हद तक भू -हदबंदी एवं भूदान के द्वारा खेत मजदूरों को जमीन देने का ढोल वर्षों से पीटा जाता रहा । ऊपर से गांव के सम्पन्न व उच्च जाति के भूस्वामियों द्वारा गरीब - दलितों पर किये जा रहे अत्याचार -अन्याय में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया जिसके फलस्वरूप भूस्वामी एवं भूमिहीन के बीच सामजिक तनाव व हिंसक संघर्ष की स्थिति किसी न किसी रूप में बनी रही । मनरेगा  आदि  के तहत रोजगार के कुछ अवसर बढ़ने के बाद भी  गांवों से पलायन का यह भी एक कारण है ।  

बिहार में पानी की बहुलता तो है, पर जल प्रबंधन की समुचित योजना के अभाव में कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति बनी रहती है । दूसरी ओर, बीज, खाद आदि मंहगे होते रहने के कारण कृषि उत्पादन लागत बहुत बढ़ गया है, बावजूद इसके फसल को बाजार तक ले जाकर बेचने में बिचौलियों की सेंधमारी भी कायम है । फलतः  किसानों को खेती से पर्याप्त आय तो होती नहीं है, पानी के बंटवारे आदि को लेकर भी मारपीट व हिंसक झड़प  होती रहती है । ऐसी विषम परिस्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब गांव के पढ़े -लिखे नौजवान साल -दर -साल बेरोजगार रहते हैं । 

बिजली की किल्लत व प्रशासनिक व्यवधानों के कारण बड़े पैमाने पर नए उद्योग स्थापित  होने में मुश्किलें तो हैं ही , सेवा क्षेत्र में भी सम्भावनाओं के बावजूद कतिपय कारणों से बात बन नहीं रही है जिसका सीधा असर पढ़े -लिखे युवकों के रोजगार सृजन  पर पड़  रहा है ।

 दरअसल, जहाँ तक कानून के सामने सबकी समानता के सिद्धांत का प्रश्न है, प्रशासन इसकी दुहाई तो देती है पर जमीनी हकीकत अभी भी भिन्न है । आजादी के 66 साल बाद भी जिसमें वर्त्तमान  सरकार  के 100 महीने का शासन भी शामिल है, आम जनता को लगता है कि यहाँ गरीबों, दलितों, शोषितों के लिए अलग क़ानून है तो अमीर, शक्तिशाली, ओहदेदार, रंगदार के लिए अलग क़ानून । हिंसा के बढ़ते जाने का यह एक प्रमुख कारण है । ऐसे में,  निष्पक्षता से कानून का पालन करवाना कानून के रखवालों के लिए एक बड़ी चुनौती तो है, लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती है खुद भी कानून का पालन करने की  नैतिक व प्रशासनिक  जिम्मेदारी का निर्वहन ।  ऐसा किये बगैर क़ानून पर लोगों का विश्वास बहाल करना प्रशासन के लिए बहुत मुश्किल तो है, पर असंभव कतई नहीं । इसके लिए प्रशासन में पूरी पारदर्शिता रखते हुए आम लोगों के सक्रिय सहयोग व भागीदारी से राज्य सरकार को आम जन से जुड़ी सभी समस्याओं का समयबद्ध तरीके से दीर्घकालिक समाधान  ढूंढ़ने का पूर्ण ईमानदारी से प्रयास करना  होगा ।  

हाँ, अंत में एक और बात । अगर हम गत आठ साल के शासन काल की तुलना उससे पूर्व के शासन काल से करें तो स्पष्ट रूप से नीतीश सरकार का पलड़ा काफी भारी है, तथापि यह तो  मानना पड़ेगा कि पिछले चुनाव में जितना बड़ा जनादेश मिला था, जितनी अपेक्षाएं इस सरकार ने जगायी थी  और जितने मौके उनके पास थे, उस दृष्टि से बिहार की  मौजूदा सरकार हर क्षेत्र में  और भी बहुत कुछ कर सकती थी । कारण अनेक हैं- हर समय -काल में होते हैं, कुछ अच्छा करने या ना करने के लिए । आप भी मानेंगे, कोई भी सरकार कितने अच्छे विचार रखती है लोकहित में काम करने की, वह तो काबिलेगौर है, लेकिन तमाम जाने - पहचाने  अवरोधों के बावजूद वह वाकई उन्हें कितना जमीन पर उतार पाती है, अंततः उसी आधार पर उसका मूल्यांकन होता है ।  

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
'प्रवासी दुनिया' में  प्रकाशित 

Saturday, April 12, 2014

मोटिवेशन : खुद को ही करें बुलंद

                                                                                      - मिलन सिन्हा 
Displaying 8679202.jpgप्रतिस्पर्धा दौड़ में हम सब शामिल हैं, किसी -न -किसी रूप में। ऐसे देखें तो प्रतिस्पर्धा  के जीन  मानव संरचना में ही मौजूद हैं , तथापि इसको तीव्र बनाने का प्रयास बचपन से ही प्रारम्भ हो जाता है जो बढ़ती उम्र के साथ गलाकट स्तर तक पहुँच जाती है। प्रतिस्पर्धा के ऐसे चरम अवस्था में सही गलत की परिभाषा तक गड्मड हो जाती है ; नैतिक -अनैतिक सब जायज लगने लगता है। साध्य की प्राप्ति सर्वोपरि हो जाती है, साधन की स्वच्छता व गुणवत्ता कोई मायने नहीं रखती।  मजे की बात यह है कि जाने -अनजाने ही हम दूसरे से प्रतिस्पर्धा  के  इस चक्रव्यूह  में फंसते  चले जाते हैं और खुद को एक अंतहीन, अर्थहीन दौड़ का हिस्सा बना लेते हैं। 

विचारणीय प्रश्न यह है कि जब बचपन से ही हमें घर, स्कूल , कॉलेज से लेकर वर्कप्लेस आदि तक बड़े - बुजुर्ग आगे ही आगे बढ़ने के नसीहत  देते रहते हैं, तब हमें कोई यह क्यों नहीं बताते हैं कि किससे आगे बढ़ना है, कितना आगे बढ़ना है...... और फिर इस बढ़ने की  परिभाषा क्या है ? क्या अपने स्वास्थ्य को सदैव अच्छा बनाये रखना, अपने व्यवहार व विचार को मानवोचित बनाये रखना, अनैतिकता के तमाम झंझावातों के बीच से अर्थ उपार्जन के सही मार्ग पर चलते रहना जीवन में आगे बढ़ना नहीं है ? क्या स्वामी विवेकानन्द, महात्मा बुद्ध, थॉमस आल्वा एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे लोग प्रतिस्पर्धा नहीं  करते थे ? अगर हाँ, तो किससे ? उत्तर है, खुद से। फिर क्यों न  हम अभी से अपनी क्षमता व रूचि के अनुरूप पूरी मुस्तैदी से कार्य प्रारम्भ कर दें जिससे इकबाल द्वारा व्यक्त निम्नलिखित  विचार  को शब्दशः चरितार्थ किया जा सके : 
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से ये पूछे  बता  तेरी रजा क्या है.

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं

Wednesday, April 9, 2014

व्यंग्य कविता : मिक्सिंग और फिक्सिंग

                                                       - मिलन सिन्हा
cricket

उसने पहले  ढंग से
जाना गेम का सब ट्रिक्स
फिर मैच को
अच्छे से किया फिक्स
जब शोर हुआ  तब
राजनीति से किया उसे मिक्स
पकड़ा गया
फिर भी शर्म नहीं
किसी बात का
कोई गम नहीं
क्यों कि उसे मालूम है
यहाँ मैच को
करके मिक्स और फिक्स
कैसे
मारा जाता है सिक्स !

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं
 प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित

Monday, April 7, 2014

व्यंग्य कविता :आ गया फिर चुनाव

                                                     - मिलन सिन्हा 

Communal Politics1लो, आ गया फिर चुनाव ! 
न जाने इस बार 
किस -किस की डूबेगी नाव 
इसी सोच में पड़े नेतागण 
घूमेंगे अब गाँव -गाँव
पहले जहाँ यदा -कदा ही 
पड़ते थे उनके पाँव 
लो, आ गया फिर चुनाव !

आज जब कि बाजार में 
कई चीजों का बना है अभाव 
और जो मिल भी रही है 
उनका चढ़ा हुआ है भाव 
तब हमारे गाँवों - गलियों में 
नेताओं का नहीं रहेगा अभाव 
लो, आ गया फिर चुनाव !

खेलेंगे हर खेल, चलेंगे हर दांव 
बदलते रहेंगे अपना हावभाव 
पर चुनाव समाप्त होते ही 
बदल जायेगा उनका स्वभाव 
और फिर ख़त्म हो जाएगा 
जनता से उनका कथित लगाव 
लो, आ गया फिर चुनाव !

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं
 प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित

Thursday, April 3, 2014

मोटिवेशन : सक्रियता है जरूरी

                                                    - मिलन सिन्हा 
हर युग, हर काल में अच्छे और बुरे लोग हमारे समाज में मौजूद  रहे हैं । अतीत, वर्तमान सब गवाह हैं कि बुरे लोग यह प्रयास करते हैं कि किस तरह अच्छे लोगों की बुराई की जाय, उन्हें परेशान किया जाय, जुर्म करने के बावजूद क़ानून की खामियों का लाभ उठाकर क़ानून से बचा जाय और सबसे महत्वपूर्ण  यह कि आपस के मेलजोल को न केवल दिन पर दिन बढ़ाया जाय बल्कि उसे उत्तरोत्तर कैसे सुदृढ़ किया जाय । किस तरह अपने नेटवर्किंग का विस्तार भी करते रहें और उसे प्रभावी भी बनाये रखें ।  इसके विपरीत, अच्छे लोग सच्चे, नेक और ईमानदार होते हैं; वे अपने काम से मतलब रखते हैं - न ऊधो का लेना, न माधो का देना । अच्छे लोग सामान्यतः यह मान कर चलते हैं कि अच्छे काम का नतीजा हमेशा अच्छा होता है और इसी कारण अपने कर्म पर विश्वास करते हुए मेल -जोल या नेटवर्किंग में ख़ास रूचि नहीं लेते हैं । उनका पड़ोसी अच्छा हो या बुरा, उन्हें इससे कोई विशेष सरोकार नहीं होता । पाया गया  है कि उन्हें अपनी अच्छाई का गुमान भी होता है; जब कि वे जानते और मानते हैं कि अच्छा होना हर मनुष्य का नैतिक व सामाजिक  दायित्व है । सोचिये जरा, अगर कोई  कहे कि बुद्धि पर सिर्फ उनका  एकाधिकार है तो फिर कुछ नया जानने - सीखने के  दरवाजे -खिड़की ही बंद हो गये न । ऐसे में बुराई को बढ़ने से कैसे रोक पायेंगे । 


एक बात और। जब अच्छे लोग, जिनकी संख्या आज भी ज्यादा है, आपस में बराबर मिलेंगे नहीं तो उनके बीच अच्छाई का आदान -प्रदान कैसे होगा ।  अच्छाई तब आखिर समाज में फैलेगी कैसे ? सोलह आने सच बात तो यह है कि अच्छे लोगों की व्यक्तिगत व सामाजिक सक्रियता का निरंतर बढ़ना समाज को दिनोंदिन बेहतर बनाने के लिए आवश्यक है ।  


                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं