Tuesday, December 31, 2019

हेल्थ मोटिवेशन : बेहतर स्वास्थ्य के लिए पानी पीने की कला में पारंगत होना जरुरी

                                    - मिलन  सिन्हा,   हेल्थ मोटिवेटर  एवं  स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट 
हमारी पृथ्वी पर करीब 70% जल है, फिर भी विश्वभर में जल समस्या पर चर्चा आम है, चाहे वह प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता की बात हो, जल जनित बीमारियों से हर साल देश में मरनेवालों की बात या जल को लेकर राज्यों के बीच विवाद. हमारे स्वास्थ्य को सन्दर्भ में रख कर बात करें तब  भी हम सबने सुना है, सोचा है और कभी-न-कभी कहा भी है  कि जल ही जीवन है, जल नहीं तो कल नहीं और बिन पानी सब सून. यह बिलकुल सही है.

रोचक तथ्य है कि एक व्यस्क व्यक्ति के शरीर में करीब 60% जल है, बच्चों में यह प्रतिशत कुछ ज्यादा तो बुजुर्गों में थोड़ा कम होता है. यूँ कहें तो हम सभी चलते फिरते पानी के बोतल है. शरीर में पानी की कमी हो जाए तो हमारा शारीरिक संतुलन बिगड़ने लगता है, कई तरह की स्वास्थ्य समस्या पैदा होने लगती है और कई बार तो पानी चढ़ाने तक की नौबत आ जाती है . तो चलिए, मानव स्वास्थ्य से जल के अदभुत रिश्ते की थोड़ी विवेचना करते हैं. 

विभिन्न अवसरों पर अपने हेल्थ मोटिवेशन सेशन में अलग–अलग तबके एवं उम्र के लोगों से मुलाक़ात तथा चर्चा के क्रम में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि अधिकांश लोग पानी पीने की कला  में पारंगत नहीं हैं.  कहने का अभिप्राय यह कि ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम कि  पानी कैसे पीना चाहिए, कितना पीना चाहिए, कब पीना या कब नहीं पीना चाहिए. 

दरअसल अधिकांश लोग पानी पीते नहीं, गटकते हैं जैसे कि उन्हें पानी पीने तक की फुर्सत नहीं है. यह भी बताते चलें कि खड़े-खड़े बोतल से मुंह में पानी उड़ेलना और उसे फटाफट गटकना स्वास्थ्य की दृष्टि से सही नहीं है.  पीने का अर्थ है धीरे -धीरे जल ग्रहण करना और वह भी बैठ कर आराम से. सच पूछें तो स्वास्थ्य की दृष्टि से गिलास में मुंह लगाकर आराम से चाय या कॉफ़ी के तरह सिप करते हुए पानी पीना और यह महसूस करना कि इससे हमारा शरीर जलयुक्त हो रहा है या हमारा शरीर रूपी अदभुत पेड़ अच्छी तरह सींचित हो रहा है,  सबसे अच्छा माना गया है. कहते हैं इस तरह पानी पीनेवाले अम्लता और मोटापे से भी बचे रह सकते हैं. 

रोज सुबह नींद से उठने के तुरत बाद कम से कम आधा लीटर गुनगुना पानी पीना हमारे सेहत के लिए बहुत लाभकारी होता है. अगर इसे और प्रभावी बनाना है तो गुनगुने पानी में आधा नींबू निचोड़ लें. अगर आप ह्रदय रोग के मरीज नहीं हैं तो आप उस नींबूयुक्त पानी में थोड़ा सेंधा नमक मिला लें, लाभ ज्यादा मिलेगा. कुछ लोग जो मधुमेह से पीड़ित नहीं हैं, वे नींबू के साथ एक चम्मच शहद मिलाकर पीते हैं. इस तरह से अगर हम सुबह पानी का सेवन करते हैं तो इसका इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने एवं शरीर से विषैले तत्वों को बाहर निकालने  के अलावे  एकाधिक फायदे हैं. बताते चलें कि सामान्य तापमान से बहुत ज्यादा ठंडा या गर्म पानी हमारे शरीर के लिए अच्छा नहीं होता है. 

विशेषज्ञ यह भी कहते हैं  कि खाने के तुरत पहले, खाना खाने के बीच में और खाने के तुरत बाद पानी नहीं पीना चाहिए, क्यों कि इससे पाचन क्रिया दुष्प्रभावित होती  है. ऐसे, कभी किसी विषम परिस्थिति में दो-चार घूंट पानी पीना असामान्य बात नहीं है. हां, स्वास्थ्य विशेषज्ञ खाना खाने के कम-से-कम 40  मिनट पहले और खाना खाने के 40 मिनट बाद पानी पीने की सलाह देते हैं.  

सभी विशेषज्ञ बताते हैं कि शरीर जितना हाइड्रेटेड रहेगा, हम उतना ही स्वस्थ रहेंगे.  ज्ञातव्य है कि दिनभर में हमारे शरीर से कई तरीके से पानी निकलता रहता है. लिहाजा शरीर में पानी का अपेक्षित स्तर बनाए रखना अनिवार्य है. खासकर रात में सोने से पूर्व पानी अवश्य पीना चाहिए, इससे हार्ट व ब्रेन स्ट्रोक की संभावना कम हो जाती है. तनाव प्रबंधन में पानी की अच्छी भूमिका होती है. कभी मानसिक तनाव हो तो एक गिलास पानी घूंट-दर-घूंट पीकर इसका सुखद अनुभव कर सकते हैं. 

कहने का सीधा अर्थ यह कि सही मात्रा, सही समय और सही तरीके से पानी पीने से हम कब्ज, पिम्पल्स, मोटापा, मधुमेह, किडनी स्टोन, चर्म रोग, आर्थराइटिस, कोलाइटिस, हाई ब्लड प्रेशर, गैस की समस्या, नाक और गले की समस्या, माइग्रेन आदि शारीरिक समस्याओं से बचे रह सकते हैं. सार-संक्षेप यह कि दूसरों को 'पानी पिलाने' के मुहावरे को चरितार्थ करने के बजाय  खुद पानी पीने की कला में पारंगत होना हर दृष्टि से बेहतर स्वास्थ्य की बड़ी गारंटी है.

अंत में एक अहम बात. अगर कोई व्यक्ति किसी रोग विशेष से पीड़ित हैं  और डाक्टरी इलाज में हैं तो डॉक्टर की सलाह के मुताबिक़ ही पानी पीएं.     
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Tuesday, December 24, 2019

निर्णय लेना है लीडरशिप क्वालिटी

                                                                        - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... .... 
विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी रचनाकार मार्क ट्वेन कहते हैं कि अच्छा निर्णय अनुभव से आता है और अनुभव आता है खराब निर्णय से. कहने का मतलब बिलकुल साफ़ है कि हर हालत में निर्णय लेना जरुरी है. जैसे-जैसे हम जीवन पथ पर आगे बढ़ते हैं, हर मोड़ पर या चौराहे पर हमें यह निर्णय करना पड़ता है कि किधर जाएं यानी किस ओर मुड़ें जिससे कि हम अपने लक्ष्य या गंतव्य तक आसानी से पहुंच सकें. विद्यार्थियों के लिए इसकी अहमियत कुछ ज्यादा है क्यों कि वे फिलहाल परिवर्तन के बड़े दौर से गुजर रहे होते हैं. छोटे-बड़े निर्णय उन्हें लेने पड़ते हैं और लेना भी चाहिए. ऐसे भी बिना  निर्णय लिए विकास के रास्ते में अग्रसर होना मुश्किल होता है और आपके जीवन का निर्णय कोई और ले तो फिर  अच्छे-बुरे की आपकी समझ कब विकसित होगी और कब आप सही अर्थों में आत्मनिर्भर बनेंगे. इसका कतई यह मतलब नहीं कि कोई भी विद्यार्थी अपने अभिभावक की बात न सुनें, उनके निर्णय को मानें ही नहीं. अभिभावक तो आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं और आपको शिक्षित करने के पीछे उनका एक बड़ा मकसद यह होता है कि आपमें सही और गलत की समझ विकसित हो जिससे आप धीरे-धीरे सही निर्णय लेने में सक्षम होते जाएं. 
   
देखा गया है कि कुछ विद्यार्थी सोच-समझ कर निर्णय लेते हैं जब कि कई विद्यार्थी निर्णय लेकर सोचते हैं. सब जानते है कि इनमें से बेहतर कौन माने जाते हैं. हां, कुछ विद्यार्थी ऐसे भी होते हैं जो निर्णय करने में नहीं, निर्णय टालने में विश्वास करते हैं. इसके कई मनोवैज्ञानिक कारण हो  सकते हैं. एक आम कारण जो ऐसे विद्यार्थी अपने साथियों को बताते हैं वह यह कि उन्हें कोई निर्णय लेने से पहले और सोचना है. कहने का सीधा अभिप्राय यह कि इस श्रेणी के विद्यार्थी सोचते बहुत हैं, पर करते बहुत कम हैं. सभी जानते हैं कि सोचना एक मानवीय गुण है, लेकिन केवल सोच में पड़े रहने को क्या कहेंगे? वास्तव में सोचना कोई बुरी बात नहीं है, अपितु किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले उसके विषय में सोचना तो अच्छी बात है. यूँ कहें कि सोचना किसी कार्य को ठीक से संपन्न करने के लिए एक जरुरी प्रक्रिया है. लेकिन हर काम की एक समय सीमा तो होती ही है. इस विषय पर प्रसिद्ध मार्शल आर्ट कलाकार एवं फ़िल्म अभिनेता ब्रूस ली का कहना है कि ‘अगर आप किसी चीज के बारे में सोचने में बहुत अधिक वक्त लगाते हैं, तो फिर आप उस काम को कभी नहीं कर पायेंगे.’ मेरा स्पष्ट मत है कि सोचने, निर्णय लेने और उसे कार्यान्वित करने में एक परिभाषित संबंध तथा  सामंजस्य का होना वाकई बहुत जरुरी एवं वांछनीय है. विश्व इतिहास के महान विजेताओं में से एक एवं फ्रांस के महान सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट जो ‘असंभव’ शब्द को अपने शब्दकोष का हिस्सा  नहीं मानते थे, ने इसी सिद्धांत को व्यवहार में उतारा और कई उल्लेखनीय कार्य किये. इतिहास के पन्ने महान व्यक्तियों के ऐसे नजीरों से भरे पड़े हैं. 

हाल ही में प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में जुटे  प्रतिभागियों से पर्सनल काउंसलिंग के दौरान कई विद्यार्थी ने बताया कि उन्हें निर्णय लेने में, खासकर बड़े निर्णय लेने में डर लगता है कि अगर कहीं निर्णय गलत हो गया तो क्या होगा? इसका दोष मेरे सिर पर आएगा आदि आदि. जिम कैंप कहते हैं, "अनावश्यक डर कि फैसला गलत हो जाएगा, सही फैसला लेने के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है." सही बात है. किसी भी विषय पर कोई भी निर्णय लेने से पहले हर समझदार विद्यार्थी सोच-विचार करते हैं, रिस्क-रिवॉर्ड की विवेचना करते हैं, शंका-आशंका-दुविधा की स्थिति  में  बड़े-बुजुर्गों और जानकारों की राय भी लेते हैं, लेकिन उद्देश्य होता है सही निर्णय लेना, न कि निर्णय को टालना या निर्णय न लेना. विचारणीय तथ्य यह है कि जिनको भी फैसना न लेने या टालने की आदत लग जाती है, उनके व्यक्तित्व में ज्ञान, आत्मविश्वास, दृढ़ निश्चय आदि की कमी साफ़ झलकती है. ऐसे विद्यार्थियों को हर मामले में इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है. इसके विपरीत आपके आसपास भी बहुत सारे  विद्यार्थी होंगे  जिन्हें आप निर्णय लेने और ज्यादातर मामले में सही निर्णय लेने में सक्षम पायेंगे. ऐसे विद्यार्थी नॉलेज इज पॉवर को अहम मानते हैं और खुद के अनुभवों के साथ-साथ दूसरों के अनुभवों से बराबर सीख लेते रहते हैं. एक बात और. ऐसे विद्यार्थी निर्णय लेने के बाद उसके साथ हमेशा खड़े रहते है. इतना ही नहीं, अगर कोई फैसला गलत हो जाए तो उसका दोष दूसरों पर कभी नहीं थोपते हैं, बल्कि उसकी पूरी जिम्मेदारी खुद लेते हैं. ऐसे विद्यार्थी ही धीरे-धीरे नेतृत्व के बहुमूल्य गुणों से लैस होते जाते हैं और अपना, अपने परिवार,समाज और देश का कल्याण करने योग्य बनते हैं.  
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# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 10.11.2019 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, December 17, 2019

समस्या है तो समाधान भी है

                                                                          - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
सभी छात्र-छात्राओं के जीवन यात्रा में छोटी-बड़ी समस्या आती रहती है और हर कोई अपनी समझ और शक्ति से उन समस्याओं को सुलझाने का यथासाध्य प्रयास करते हैं. धीरे-धीरे अपने ज्ञान, अनुभव  और बड़ों के मार्गदर्शन से समस्याओं का समाधान पाना आसान होता जाता है. दुनिया में कोई ऐसा विद्यार्थी नहीं होगा जिसके जीवन में कभी कोई समस्या नहीं रही हो या आगे नहीं रहेगी. अनेक महान लोगों का मानना है कि समस्या एक उपहार के तरह है. बिना समस्या के हमारा सही विकास नहीं हो सकता है. दरअसल, समस्या कोई बड़ी समस्या नहीं होती है. इसके प्रति हमारा  नजरिया होता है.

आमतौर पर यह देखा जाता है कि कई विद्यार्थी हर समस्या को एक अवसर के रूप में देखते हैं जब कि कई विद्यार्थी अवसर को भी समस्या मानते हैं. कई विद्यार्थी ऐसे भी होते हैं जिनको  हर चीज में समस्या ही नजर आती है. वे छोटी समस्या को भी बड़ा बनाकर देखते हैं, साथी-सहपाठी को दिखाते भी हैं. इनमें से ज्यादातर विद्यार्थी थोड़े डरपोक और आलसी  होते हैं.  वे अपने अभिभावकों के सामने  छोटी कठिनाई को भी बड़ी समस्या बनाकर पेश करते हैं, जिससे कि उनके अभिभावक उन्हें उनकी गलतियों के लिए डांटे नहीं, बल्कि उनके प्रति सहानुभूति दिखाएं. ऐसे विद्यार्थी अपना तो नुकसान करते हैं, साथ में अपने कुछ सहपाठियों को भी गलत तरीके से अपने पाले में करके उनको भी नुकासान का भागीदार बनाते हैं. हां, इन सबको काउंसलिंग की जरुरत होती है.

मेरी तो स्पष्ट मान्यता रही है कि जहां भी कोई समस्या है, उसका कोई-न-कोई समाधान भी है. इतना ही नहीं, आमतौर पर उस समाधान का संकेत भी समस्या में निहित होता है. एक छोटे उदाहरण से इसे समझते हैं. कई बार सड़क पर वाहन चलाते हुए जब चौराहे या सिग्नल से कुछ पहले ही अप्रत्याशित जाम दिखता है तो सबको यह संकेत मिल जाता है कि आगे जल्दी निकलना बहुत मुश्किल होगा और तब समझदार लोग वैकल्पिक रास्ते तलाश कर, छोटी गली से गुजरकर फिर आगे मुख्य सड़क पर आ जाते हैं. कहने का अभिप्राय यह कि विद्यार्थी जीवन में या आगे भी  समस्या से आमना-सामना होना कोई असामान्य बात नहीं है. असामान्य यह है कि छात्र-छात्राएं  उनसे घबड़ा जाएं, विचलित या उत्तेजित या तनावग्रस्त हो जाएं. देखा यह भी जाता है कि समस्याओं से सामना होने पर कुछ विद्यार्थी तो बस अपना घुटना टेक देते हैं. मैदान ही छोड़ देते हैं अर्थात पढ़ाई-लिखाई या जो काम कर रहे थे उसे ही छोड़ देते हैं.  ऐसे विद्यार्थियों को समझने की जरुरत है कि समस्या जीवन की सामान्य चुनौती है जो उनके ज्ञान, साहस, संयम, क्षमता, आत्मविश्वास आदि की परीक्षा ले रहा  है. वस्तुतः जीवन की हर सफलता उन चुनौतियों को पार कर आगे निकलने का नाम है. लिहाजा समस्या से निजात पाने का सर्वोत्तम तरीका समस्या का समाधान हासिल करना है, उसे छोड़कर भागना नहीं. आइए, आगे बढ़ने से पहले प्रख्यात कवि और लेखक डॉ. हरिवंश राय बच्चन की एक प्रेरक  कविता की कुछ पंक्तियां पढ़ लें : "असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो / क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो / जब तक न सफल हो नींद-चैन को त्यागो तुम / संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम / कुछ किए बिना ही जयजयकार नहीं होती / हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती."

अब सवाल है कि समस्या से समाधान तक पहुंचने के लिए जरुरी योग्यता या क्षमता या दृष्टि  कैसे विकसित करें? सर्वप्रथम तो सोच के स्तर पर हमेशा पॉजिटिव बने रहें. आप जैसा सोचते हैं  आपका शरीर वैसे ही रियेक्ट करता है. अतः "मैं कर सकता हूं और मैं करूंगा" के सोच और आत्मविश्वास से समस्या का सामना करें. खुद को संयत बनाए रखें. आंख, कान और दिमाग खुला रखें जिससे कि आप समाधान के संकेतों को पकड़ और समझ सकें. समस्या के चरित्र के हिसाब से समाधान का तरीका अपनाना बेहतर होता है. परिस्थिति विशेष में उपलब्ध विकल्पों में से जो भी विकल्प सही लगे उस पर विचार कर कदम उठाएं. समस्या बड़ी हो तो उससे जुड़े सभी तथ्यों को इकठ्ठा करके उसकी निष्पक्ष एवं तर्कपूर्ण ढंग से विवेचना करें. मौका मिले तो डिटेल्स एक कागज़ पर लिख लें. इससे समस्या से जुड़ी हर जरुरी बात स्पष्ट रूप से आपके सामने होती है. जरुरत महसूस हो तो बिना संकोच अपने अभिभावक, हितेषी या किसी एक्सपर्ट से मार्गदर्शन  प्राप्त करें. पूरे प्रोसेस में "हम होंगे कामयाब, मन में है विश्वास" की भावना से भरे रहना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होगा. समस्याओं  को मौके में तब्दील करते रहने और समाधान की मंजिल तक पहुंचने-पहुंचाने वाले अनेक महान लोगों की जिंदगी से भी हमें यही तो सीख मिलती है.  
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# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 03.11.2019 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, December 10, 2019

मेहनत का कोई विकल्प नहीं

                                                             - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ...
मेहनत का फल मीठा होता है, ऐसा सभी कहते हैं, जानते और मानते भी हैं. कर्म और फल के चिरपरिचित रिश्ते के विषय में सभी को मालूम है. सतत कड़ी मेहनत के सहारे साधारण विद्यार्थियों को असाधारण सफलता हासिल करते हुए देखना कोई असामान्य बात नहीं है. मेधावी छात्र-छात्राओं को औसत रिजल्ट पाते हुए देखना भी उतना ही सच है, क्यों कि वहां मेहनत का अभाव होता है. कछुआ और खरगोश की कहानी सभी विद्यार्थियों ने बचपन में ही पढ़ी है. खरगोश कछुआ की तुलना में बहुत तेज भाग सकता है, लेकिन दोनों के बीच के दौड़ में कछुआ विजयी होता है, खरगोश नहीं. कारण धीमी गति से चलनेवाला कछुआ सतत चलता रहा यानी सतत मेहनत करता रहा, जब कि बहुत तेज गति से दौड़नेवाले खरगोश ने ऐसा नहीं किया. स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी या किसी अन्य संस्थान में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ भी ऐसा ही होता है.

बिना कड़ी मेहनत के जीवन के किसी क्षेत्र में बड़ी सफलता हासिल करना संभव नहीं होता है. क्रिकेट से लेकर कबड्डी तक, संगीत से लेकर नृत्य तक, चिकित्सा विज्ञानं से लेकर अन्तरिक्ष विज्ञानं तक हर क्षेत्र में सफलता का झंड़ा गाड़नेवाले लोगों की जीवन यात्रा कड़ी मेहनत की कहानी कहता है. प्रसिद्ध अमेरिकी फुटबॉल खिलाड़ी तथा कोच विन्सेंट थॉमस लोम्बार्डी सही कहते हैं कि लीडर  पैदा  नहीं  होते, खुद बनते हैं - कड़ी मेहनत की वजह से. और  यही  वो  कीमत  है  जो  इस  या  किसी  और  लक्ष्य   को  प्राप्त  करने  के  लिए  चुकानी  पड़ती  है.

आइए, यहां देश के दो महान सपूतों की थोड़ी चर्चा करते हैं, जिन्होंने कड़ी मेहनत के बलबूते साधारण से असाधारण बनकर इतिहास रचा और देश का नाम रौशन किया. पहले देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के विषय में जानते हैं.  शास्त्री जी जब मात्र डेढ़ वर्ष के थे उस समय ही उनके पिता जी का देहांत हो गया. पैसे के अभाव में उन्हें नंगे पांव ही कई किलोमीटर दूर अपने स्कूल जाना पड़ता था - गर्मी, सर्दी और बरसात हर मौसम में. स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की बात हो या बाद में केंद्र में कई मंत्रालयों के मंत्री और अंत में प्रधानमंत्री की बात हो, हमेशा कड़ी मेहनत करके उन्होंने अपनी क्षमता और दक्षता का उत्कृष्ट उदहारण पेश किया. एक प्रश्न के उत्तर में शास्त्री जी ने एक बार कहा था कि मेहनत तो प्रार्थना करने के समान है. अर्थात पूरी निष्ठा और आस्था के साथ मेहनत करने में वे विश्वास करते थे.  

विख्यात वैज्ञानिक एवं देश के पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का जीवन भी कड़ी मेहनत की प्रेरक  दास्तान है. बचपन में सुबह-सवेरे अखबार वितरित करने के बाद स्कूल में पढ़ने जाने से लेकर घर के अन्य कार्य में सक्रिय रूप से लगे रहना उनका रोज का रूटीन था. पढ़ाई हो या रिसर्च या आम लोगों को अपने भाषण या सुझाव से प्रेरित  करने की बात हो, वे हर जिम्मेदारी को कड़ी मेहनत और लगन से बखूबी निभाते थे. राष्ट्रपति के रूप में भी वे सुबह से लेकर देर रात तक बहुत  मेहनत और लगन से कार्यों का निष्पादन में लगे रहते थे. विद्यार्थियों के साथ अपने वार्तालाप में वे हमेशा उनको भी कड़ी मेहनत के लिए प्रेरित किया करते थे.

विश्वविख्यात एप्पल कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स कहते हैं, "कोई भी सफलता एक रात में नहीं मिलती है. उसके पीछे जाने कितने वर्षों की कड़ी मेहनत होती है." सौ फीसदी सही बात है. सभी विद्यार्थियों को इस बात को ठीक से समझने की जरुरत है. तभी वे हर पल का सदुपयोग करते हुए नियमित रूप से कड़ी मेहनत करेंगे - मामला अध्ययन का हो या खेलकूद का या अन्य कैरियर बिल्डिंग एक्टिविटी का. दरअसल, मेहनत को एन्जॉय करनेवाले विद्यार्थी छोटा-बड़ा  सब सवाल या प्रॉब्लम हल करते हैं, खूब प्रैक्टिस करते हैं और बीच-बीच में अपना टेस्ट खुद ही लेते हैं.  ऐसा इसलिए भी कि उन्हें सब चीज अच्छी तरह सीखने की इच्छा रहती है जिससे कि वे परीक्षा या टेस्ट में अच्छे मार्क्स ला सकें और साथ में उस क्षेत्र में काबिल भी बन सकें. हर क्षेत्र में सभी अच्छे विद्यार्थी इसी सिद्धांत पर अमल करके सफल होते रहे हैं.  सच कहें तो ऐसे सभी विद्यार्थी प्रसिद्ध कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कर्मवीर शीर्षक कविता की इन पंक्तियों को वास्तव में रोज  जीते हैं : "जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं / काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं / आज  कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं / यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं / बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए / वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए."                               (hellomilansinha@gmail.com)       
                 
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# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 27.10.2019 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, December 3, 2019

क्रोध प्रबंधन की अहमियत

                                                                 - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... .... 
हम सबको किसी-न-किसी बात पर कभी-न-कभी गुस्सा आता है, बेशक कम या ज्यादा. विद्यार्थियों में यह कुछ ज्यादा देखा जाता है. उम्र के इस पड़ाव में ऐसा होना असामान्य नहीं कहा जा सकता है. लिहाजा अपने रोजमर्रा की जिंदगी में हम सभी यहां-वहां विद्यार्थियों को  बात-बेबात गुस्सा करते देखते हैं. गुस्सा कुछ ज्यादा हो तो अपशब्द कहते, वस्तुओं को तोड़ते-फोड़ते तथा खुद अपना माथा ठोकते हुए भी देखते हैं. गुस्से में बेकाबू विद्यार्थियों के विषय में ज्यादा कहने की जरुरत नहीं.

क्रोध के बारे में महात्मा बुद्ध का कहना है, "क्रोध को पकड़े या थामे रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकड़े  रहने के बराबर है. इससे आप स्वयं जलते हैं." इसी बात को विश्व प्रसिद्ध लेखक  मार्क ट्वेन इन शब्दों में कहते हैं, "क्रोध एक तेज़ाब की तरह है जो उस वर्तन को ज्यादा नुकसान पहुंचता है जिसमें उसे रखा जाता है, वनिस्पत उसके जिस पर उसे डाला जाना है." फिर भी कई बार छात्र-छात्राएं छोटी-सी बात पर भी क्रोधित हो जाते हैं. इस तरह वे अपनी ऊर्जा का अपव्यय करते हैं और साथ ही अपने रिश्तों को नुकसान भी पहुंचाते हैं. क्रोधित होने का साफ़ मतलब है उत्तेजित और असंतुलित होना. अंदर जैसे कुछ भावनात्मक उबाल आ गया हो. मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उस वक्त हमारा मानसिक संतुलन ठीक नहीं रह पाता है, फलतः चीखने-चिल्लाने के साथ हम अतार्किक एवं हिंसक भी हो जाते हैं. मुंह ज्यादा काम करता है और आंख-कान बहुत कम. कई बार गुस्से में कही गई बात दोस्ती के बीच बड़ी दीवार बन जाती है. यहां विद्यार्थियों के लिए जानने-समझने योग्य बात यह भी है कि गुस्से की स्थिति में शरीर के एड्रेनल ग्रंथि से एड्रेनालाईन तथा कॉर्टिसोल नामक स्ट्रेस हार्मोन्स का स्राव शुरू हो जाता है जिसकी अधिकता स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. अनियंत्रित क्रोध के कारण सिरदर्द, अपच, अनिद्रा,  चिंता,  तनाव, अवसाद, उच्च रक्तचाप, ब्रेन स्ट्रोक, ह्रदय रोग जैसे अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक समस्याएं होती हैं. तभी तो विख्यात दार्शनिक अल्फ्रेड अरमंड  मोंटापर्ट कहते हैं कि हर बार जब आप क्रोधित होते हैं, तब आप अपने ही सिस्टम में ज़हर घोलते हैं.

बहरहाल, मूल सवाल  है कि गुस्सा आता क्यों है और जब चाहे-अनचाहे आ ही जाता है तो फिर गुस्से को काबू में कैसे रखा जाए जिससे कोई बड़ी दुर्घटना या अनहोनी न हो जाय? कहते हैं कि गुस्सा स्वभावतः अन्याय, अत्याचार, शोषण, असफलता, अतृप्त इच्छा, अक्षमता, अहंकार आदि से जुड़ा है और अधिकांश मामले में किसी न किसी रूप में प्रकट होता है. क्रोध जनित उत्तेजना में शारीरिक गतिविधियां तेज हो जाती हैं. देखा गया है कि आवेगवश छात्र-छात्राएं अमर्यादित, अवांछित तथा गैरकानूनी काम कर बैठते हैं. कभी-कभी तो आत्मघाती कदम तक उठा लेते हैं जिससे जीवन तक ख़त्म हो जाता है. निरपेक्ष भाव से पीछे मुड़कर देखने पर उन्हें खुद  दुःख, शर्म एवं ग्लानि का एहसास होता है. लेकिन जो हो गया है उसे रिवाइंड तो नहीं किया जा सकता. उससे सीख लेकर आगे बेहतर करने की कोशिश की जा सकती है और वही होना भी चाहिए. 
   
क्रोध आने पर उसे कैसे नियंत्रित किया जाय, इसके लिए कुछ जाने-पहचाने सिद्धांत और  नुस्खें हैं जिसका लाभ प्रयोग की दृढ़ता और निष्ठा पर निर्भर करता है. मसलन, गुस्से की स्थिति में उस स्थान विशेष से हट जाएं; कहीं खुले स्थान में बैठ जाएं और आँखें बंद कर दीर्घ श्वास लें तथा  छोड़ें; धीरे-धीरे एक ग्लास पानी पीएं; एक से दस तक गिनती करें; हल्का एक्सरसाइज करें; पसंदीदा गाना सुनें; स्नान करें, सोने की कोशिश करें या फिर किसी अच्छे मित्र से बात करें. इससे  शारीरिक रूप से स्थिर रहना और मानसिक रूप से शांत रहना आसान होगा. जब बिलकुल स्थिर और शांत हो जाएं तब इस बात की थोड़ी विवेचना कर लें कि आखिर वे कौन-सी बातें या परिस्थिति हैं जब आप सामान्यतः क्रोधित  होते हैं और उसका आपके अनुसार कारण क्या होता है. कारण जानेंगे तो समाधान तक पहुंचना आसान हो जाएगा. और फिर आप भविष्य में क्रोधित होने पर भी अपने व्यवहार को नियंत्रित और संतुलित रख पायेंगे. आप कतई क्रोध से बेकाबू नहीं होंगे.  

तमाम शोध तथा सर्वेक्षण बताते हैं कि इन छोटे प्रयासों से क्रोध  को कंट्रोल और मैनेज करना एवं इसके एकाधिक दुष्प्रभावों से बचना संभव है. ऐसे, आसन-प्राणायाम-ध्यान के नियमित अभ्यास  से भी गुस्से को काबू में रखना सहज हो जाता है. इससे छात्र-छात्राएं शांति और सकून से अपनी पढ़ाई-लिखाई कर बेहतर रिजल्ट के हकदार बनते हैं. बोनस के रूप में खुद और घर-परिवार के लोग स्वस्थ और सानंद भी रह पाते हैं. 
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# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 20.10.2019 अंक में प्रकाशित
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Friday, November 29, 2019

सुनने की कला में दक्षता जरुरी

                                                                - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... .... 
सुनना एक कला है और एक लोकतांत्रिक सोच भी - यह हमने अनेकों बार सुना है. नोबेल पुरस्कार विजेता विख्यात अमेरिकी लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे कहते हैं, "मैं सुनना पसंद करता हूँ. ध्यान से सुनने के परिणामस्वरूप मैंने बहुत कुछ सीखा है." अन्य अनेक नामचीन लोगों ने भी इस बात को किसी-न-किसी सन्दर्भ में रेखांकित किया है. लेकिन क्या ज्यादातर लोग, खासकर विद्यार्थीगण इस बात से इत्तफाक रखते हैं ? 

मौजूदा दौर में अधिकांश विद्यार्थी बोलना पसंद करते हैं. सुनने में उनकी रूचि  कम होती है, जब कि अच्छा वक्ता होने के लिए अच्छा श्रोता होना जरुरी माना गया है. एक दिलचस्प तथ्य यह भी कि हमारे पास सुनने के लिए दो कान हैं तो बोलने के लिए केवल एक मुंह. शायद इसलिए कि हम ज्यादा  सुनें और कम बोलें. कहते हैं कि जब हम बोलते हैं तो सामान्यतः केवल वही दोहराते हैं जो हम पहले से जानते हैं, लेकिन जब हम सुनते हैं तो कुछ-न-कुछ नया सीखते हैं. 

कई जॉब कम्पटीशन में जीडी यानी ग्रुप डिस्कशन भी होता है जिसमें अलग-अलग ग्रुप में प्रतिभागी अलग-अलग विषयों पर चर्चा करते हैं. इस दौरान एक्सपर्ट पैनल के सदस्य प्रतिभागियों के कई व्यक्तिगत गुणों का मूल्यांकन करते हैं. वहां कई बार विद्यार्थियों को  एक साथ बोलते -चिल्लाते देखा जा सकता है, जैसा कि आजकल प्राइम टाइम टीवी शो में आमतौर पर देखने को मिलता है. ऐसे टीवी शो को देखना छोड़ कर दर्शक जैसे चैनेल बदल लेते हैं, वैसे ही जीडी में  साथी प्रतिभागी को पूरा न सुनकर जबरन अपनी बात रखनेवाले प्रतिभागी से एक्सपर्ट किनारा कर लेते हैं यानी उन्हें पसंद नहीं करते हैं. सर्वसत्य है कि अच्छी तरह सुनना न केवल बोलनेवाले के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता है, बल्कि किसी भी सफल संवाद प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त भी होती है. "दि मोंक हू सोल्ड हिज फेरारी' जैसे कई बेस्ट सेलर पुस्तकों के लेखक और प्रेरक वक्ता रोबिन शर्मा का कहना है, "सुनना पर्सनल और प्रोफेशनल उत्कृष्टता का एक मास्टर स्किल है."  

वास्तव में  जो विद्यार्थी अपने टीचर -प्रोफेसर की बात, क्लास में हो या कोचिंग या ट्यूशन क्लासेज में, अच्छी तरह सुनते हैं, विषय की उनकी समझ अच्छी होती है. इसके विपरीत कई विद्यार्थी शरीर से टीचर-प्रोफेसर या किसी और वक्ता के साथ दिखाई तो देते हैं, लेकिन दिमाग से कहीं और होते हैं, जब कि वे भलीभांति जानते हैं कि आधा-अधूरा सुनेंगे तो ज्ञान भी आधा-अधूरा ही तो रहेगा. दूसरे, बहुधा कुछ विद्यार्थी बोलनेवाले की बातों को समझने, जानने तथा सीखने के लिए नहीं, अपितु केवल सवाल-जवाब करने की मंशा से उन्हें सुनते हैं. यही उनके लिए विषयवस्तु से भटकने और फिर अप्रासंगिक सवाल पूछने का कारण बनता है. एक काबिलेगौर बात और. अधूरा सुनने एवं उस आधार पर मत बनाने का परिणाम सामान्यतः बहुत घातक और नुकसानदेह होता है, जिससे विद्यार्थियों को बचना चाहिए.

सभी विद्यार्थियों के लिए यह ठीक से जानने और समझने योग्य बात है कि सुनने से अधिकतम फायदा उठाने के लिए यह जरुरी है कि वे  एकाग्रचित्त रहें और विषय के साथ सच्ची संलग्नता बनाए रखें. इस प्रक्रिया में डर, घबराहट, चिंता आदि से मुक्त रहना बेहतर परिणाम देता है. जो विद्यार्थी ऐसा करते हैं वे अपेक्षाकृत ज्यादा संतुलित, मर्यादित एवं संयमित होते हैं.  

विश्वविख्यात प्रबंधन गुरु डेल कार्नेगी कहते हैं कि दूसरों की बात सुनने के दो बहुत अच्छे  कारण हैं. एक तो यह कि इससे आप नयी बात सीखते हैं और दूसरा यह कि लोग अपनी बात सुननेवाले लोगों से खुश होते हैं. जाहिर है, सुनना सिर्फ प्रोफेशनल इंटरव्यू लेनेवालों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं होता है. यह संवाद करनेवाले हर व्यक्ति के लिए हर जगह और हर वक्त महत्वपूर्ण है. लिहाजा, सुनना सबसे महत्वपूर्ण संवाद कौशल है. प्रेरक संभाषण की कला से भी ज्यादा महत्वपूर्ण; बुलंद आवाज से भी ज्यादा महत्वपूर्ण; कई भाषा बोलने की योग्यता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण; लिखने की प्रतिभा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण. और-तो-और अच्छे से सुनना ही वह मोड़ है जहां से असरदार संवाद शुरू होता है. हैरानी की बात है कि बहुत कम लोग सचमुच अच्छी तरह सुनते हैं. लेकिन सफल लीडर्स अक्सर वही होते हैं, जो सुनने का महत्व अच्छी तरह समझते हैं. 

एकदम सही. महान व्यक्तियों की जीवनी पढ़ने तथा अपने आसपास के अच्छे व सफल लोगों का व्यवहार आदि को देखने से साफ़ हो जाता है कि वे सुनने की कला में माहिर हैं. वे तन्मयता से छोटे-बड़े सबकी बात या समस्या सुनते हैं और अनेकों बार आसानी से समाधान का सूत्र भी तलाशने में कामयाब होते हैं. 
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                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 13.10.2019 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, November 26, 2019

जरुरी है विषयों की बुनियादी समझ

                                                                       - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
हाल ही में आईआईटी परीक्षा की तैयारी कर रहे सैकड़ों छात्र-छात्राओं से मिलने, उनसे बातचीत  करने और उनको इस परीक्षा में बेहतर परिणाम पाने के कुछ बुनियादी शर्तों के बारे में बताने का मौका मिला. उन विद्यार्थियों से बातचीत के क्रम में यह जान पाया कि वे लोग खूब मेहनत करते हैं और आगे और भी ज्यादा मेहनत करना चाहते हैं. लेकिन उन्हें कई बार ऐसा लगता है कि उनका एनर्जी लेवल कम है, पढ़ते वक्त उनका मन भटकता है, एक लगातार वे तीन-चार घंटे नहीं पढ़ पाते, पढ़ा हुआ सब याद नहीं रख पाते और न चाहते हुए भी बीच-बीच में तनावग्रस्त महसूस करते हैं. 
               
ज्ञातव्य है कि 11वीं कक्षा पास कर 12वीं में जाने के बाद विद्यार्थी आईआईटी परीक्षा में शामिल हो सकते हैं. हां, फाइनल सेलेक्शन की कुछ शर्तें तो है ही. मसलन मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक सामान्य श्रेणी  के वैसे विद्यार्थी जिन्हें 12वीं या समकक्ष बोर्ड एग्जाम में कम-से-कम 75 प्रतिशत अंक (आरक्षित श्रेणी के लिए 65%) हासिल होंगे, वही आईआईटी परीक्षा में क्वालीफाई करने के बाद एडमिशन के पात्र होंगे.  इस दृष्टि से प्लस टू या 12वीं या समकक्ष बोर्ड की परीक्षा की तैयारी भी अहम हो जाती है. ऐसे भी आईआईटी परीक्षा में पूछे जानेवाले प्रश्न सामान्यतः 11वीं एवं 12वीं कक्षा के सिलेबस पर आधारित होता है. लिहाजा विद्यार्थियों के लिए इस सिलेबस पर पूर्ण समर्पण के साथ ध्यान देना अनिवार्य है. इसके लिए सभी शिक्षक और एक्सपर्ट विद्यार्थियों को  तीनों विषयों - भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र और गणित के लिए एनसीइआरटी की किताबें पढ़ने की सलाह देते हैं. विषय की बुनियादी समझ के बिना विद्यार्थियों के लिए न तो स्कूली परीक्षा में बेहतर परिणाम हासिल करना संभव होता है और न ही जीईई मेन और जीईई एडवांस में  क्वालीफाई करना और अंततः सेलेक्ट होना. बहरहाल, फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स के सिलेबस को एनसीइआरटी किताब से शुरू से अंत तक बढ़िया से समझकर पढ़ना और दोहराते रहना लाभप्रद साबित होता है.

हमेशा यह याद रखना अच्छा है कि जीईई मेन और जीईई एडवांस परीक्षा में कोई शॉर्टकट नहीं चलता है और सीधे सवाल बहुत ही कम पूछे जाते हैं. अतः जीईई मेन की तैयारी अलग होती है. यहां विषय की बुनियादी समझ के आधार पर एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड की भूमिका अहम है. तीनों  विषयों की एक-दो और अच्छी किताबें पढ़ें तो बेहतर होगा.  परीक्षा  सेंटर में दिमाग को  कूल-कूल रखकर प्रश्नों को समझना और फिर निर्धारित समयसीमा के  भीतर सबका सही उत्तर लिखने  की बड़ी चुनौती होती है. सामान्यतः नाम के अनुरूप जीईई एडवांस में स्थिति थोड़ी और कठिन और चुनौतीपूर्ण हो जाती है. लगभग हर सवाल नया होता है और उन्हें हल करने के लिए विषय की स्पष्ट समझ के साथ-साथ अपने दिमाग को अप्लाई करके ही उत्तर लिखा जा सकता है. 

विचारणीय सवाल है कि शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक आदि बदलावों का सामना करते  हुए 11वीं और 12वीं या समकक्ष क्लासेज के दो वर्षों में खुद और परिवार की सारी आशा, अपेक्षा और आकांक्षा के अनुरूप परीक्षा में प्रदर्शन दर्ज करना हर विद्यार्थी के लिए बड़ी चुनौती है. लेकिन जैसा कि प्रख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, "... ...ख़म ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड़, मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है... ..." अतः यह जानकर और मानकर कि जितनी बड़ी चुनौती, उतना मजबूत संकल्प, उतनी बड़ी तैयारी और फिर उतनी ही बड़ी सफलता, तो किसी भी विद्यार्थी के लिए आगे का रास्ता थोड़ा आसान लगने लगता है. इसलिए आईआईटी परीक्षा को अपना लक्ष्य बनाकर तदनुरूप 24 घंटे का एक व्यवहारिक रूटीन बना लें, जिसमें 10% तक का हेरफेर का प्रावधान रखें और फिर उसपर निष्ठापूर्वक अमल करें. विषय की बुनियादी समझ को लगातार  टेस्ट करते रहें. इसके लिए जीईई मेन एवं  जीईई एडवांस के पिछले 10 सालों के सवालों को हल करने की कोशिश करें. शरीर को खानपान, योग-व्यायाम, पर्याप्त नींद और पॉजिटिव सोच से पूर्णतः स्वस्थ और उर्जावान बनाए रखें. नेगेटिव सोच और नेगेटिव सहपाठियों-मित्रों से बचें. इससे आपका समय  बचेगा और अनावश्यक तनाव से भी आप बचे रहेंगे. रोजाना कुछ समय आउटडोर गेम्स या एक्सरसाइज में बिताएं. कहने का मतलब यह कि अपनी तरफ से हरसंभव प्रयास करें. ऐसा पाया गया है कि दसवीं के बाद  करीब दो साल की कड़ी और नियमित मेहनत से अनेक विद्यार्थियों ने पहले ही प्रयास में जीईई एडवांस तक में अच्छी सफलता पाई है. मेरा मानना है कि 'मन में है विश्वास, हम होंगे कामयाब' की भावना को आप रोज सार्थक रूप से जी पाएं, तो सफलता आपके भी कदम चूमेंगी. 
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Tuesday, November 19, 2019

खुद को तलाशें और तराशें

                                                                        - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
हर विद्यार्थी के जीवन में हर दिन एक नया दिन होता है. बीते हुए कल से कुछ बेहतर करने का अवसर. प्रत्येक विद्यार्थी में असंभव को संभव बनाने की क्षमता होती है. कहते हैं जब आंख खुले तभी सवेरा, अन्यथा चारों ओर अंधेरा. नेपोलियन बोनापार्ट के शब्दकोष में असंभव जैसा कोई शब्द नहीं था. उनके जैसे और बहुत से महान लोग हमें इतिहास के पन्नों में मिलते हैं  जो खुद को जानने-समझने और उत्तरोत्तर उन्नत करने में विश्वास करते थे. वे दूसरों को देखने या बाहर देखने के बजाय पहले खुद को देखने और खुद को तलाशने में ज्यादा ध्यान देते थे. उन्हें अन्दर से बाहर की तरफ विकसित होने में यकीन था. विचारणीय बात है कि आखिर किसी भी विद्यार्थी को खुद उस विद्यार्थी से बेहतर और कौन जानता है या जान सकता है. हर विद्यार्थी में न जाने कितने गुण, कितनी क्षमताएं दबे व छुपे रहते हैं. इन गुणों और क्षमताओं को तलाशना हर विद्यार्थी की बेहतरी के लिए आवश्यक माना गया है. कई बार ऐसा भी देखा गया है कि किसी विद्यार्थी को अपने अंदर छिपे गुणों और क्षमताओं का इल्म नहीं होता. तब जांबवंत सरीखे लोग उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि उनमें भी हनुमान सरीखे असाधारण गुण और असीमित क्षमता है और उसके अनुरूप कार्य करने की दक्षता वे भी हासिल कर सकते हैं. नेपोलियन हिल की बात भी काबिले गौर है, "अच्छी  तरह  से  जान  लीजिए कि आपको  आपके  सिवा  कोई  और  सफलता  नहीं  दिला  सकता."
   
हर विद्यार्थी जानता और मानता भी है कि कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती. इलेक्ट्रिक बल्ब के आविष्कारक थॉमस आल्वा एडिसन ने इसे अनेकों बार अपने नए-नए आविष्कारों से साबित किया. देश-विदेश में ज्ञान-विज्ञान-कला-संस्कृति-राजनीति आदि हर क्षेत्र में इसके हजारों छोटे-बड़े उदाहरण मौजूद हैं. हाल ही में हम सबने देखा और गर्व किया कि किस तरह इसरो के चेयरमैन के.सिवन सहित चंद्रयान-2 से जुड़े सैंकड़ों वैज्ञानिक एवं इंजीनियर ने अंतिम क्षणों की एक गड़बड़ी के बावजूद अपना हौसला कायम रखा. उस दौरान स्पेस साइंस से जुड़ा हर शख्स खुद के अंदर झांक रहा होगा, खुद को फिर से तलाश रहा होगा कि कहां क्या हो गया और हम कैसे खुद को बेहतर साबित कर सकते हैं. हर विद्यार्थी के जीवन में भी ऐसे पल आते हैं और आते रहेंगे जब उन्हें बाहर देखने के बजाय अंदर देखने और कुछ नायाब करने की प्रेरणा मिलती है. 

दिलचस्प बात है कि जब कोई विद्यार्थी खुद को जानने, समझने और तलाशने पर अपना ध्यान फोकस करता है तो उसे कई नयी बातों का पता चलता है -गुण, अवगुण, शक्ति, क्षमता, संभावना, कमजोरियां आदि. खुद को तलाशने के क्रम में उन्हें अपने लक्ष्यों-सपनों को यथार्थ के तराजू पर अच्छी तरह तौलने का मौका मिलता है. फलतः ऐसे विद्यार्थी विचारों और कार्ययोजना के स्तर पर बिलकुल स्पष्ट और फुलप्रूफ होते हैं. उन्हें लक्ष्य  तक पहुंचने और अपने सपनों को साकार करने के लिए क्या-क्या करना पड़ेगा, उसकी रुपरेखा क्या होगी, कैसे उसे आगाज से अंजाम तक पहुंचाएंगे - यह सब बिलकुल साफ और सहज लगता है. विश्वविख्यात मैनेजमेंट गुरु डेल कार्नेगी ने स्टीव जॉब्स जैसे कई बड़े लोगों का उदाहरण देते हुए लिखा है कि अपने असल व्यक्तित्व को पहचानना बहुत जरुरी होता है. अक्सर इसके लिए यह पता लगाने की जरुरत होती है कि आप दरअसल क्या हैं. इसके बाद उस ज्ञान के मुताबिक विचारपूर्वक मेहनत करने की जरुरत होती है. यह इतनी महत्वपूर्ण बात है कि इस पर शांति से चिंतन किया जाना चाहिए. खुद से ईमानदारी के साथ यह पूछें कि मुझमें ऐसे कौन से गुण हैं जिन्हें लीडरशिप के गुणों में बदला जा सकता है. 
   
सही बात है. प्रत्येक विद्यार्थी के लिए खुद को तलाशने के साथ-साथ खुद को तराशना भी जरुरी होता है. यह एक सतत प्रक्रिया है. अंग्रेजी में कहते है न कि खुद को प्रूव करने के लिए इम्प्रूव करना पड़ेगा अर्थात खुद को साबित करने के लिए खुद को उन्नत करना पड़ेगा. सोचिए जरा,  अगर कोई खिलाड़ी मसलन हिमा दास, अभिनव बिंद्रा, पी.वी. सिंधु, विराट कोहली या कोई और रोज अपने को तराशे नहीं; इम्प्रूव न करे तो क्या वे उस खेल के शिखर तक पहुंचने और साल-दर -साल वहां अपना सिक्का जमाए रखने में कामयाब हो सकता है? नहीं न. यही कारण है कि वे रोजाना अपने खेल को बेहतर बनाने के लिए खूब प्रैक्टिस करते हैं , नए-नए हूनर सीखते हैं, खुद को और दक्ष बनाते हैं और खुद के प्रयासों तथा परिणाम की निरंतर समीक्षा भी करते रहते हैं, जिससे कि कमियों में निरंतर सुधार कर सकें. विद्यार्थियों को भी इसी सिद्धांत पर अमल करना चाहिए. अंत में हेनरी फोर्ड का यह प्रेरक विचार, "ऐसा कोई भी इंसान मौजूद नहीं है जो उससे ज्यादा ना कर सके जितना कि वो सोचता है कि वो कर सकता है."
                                                                               (hellomilansinha@gmail.com)

                 
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# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 29.09.2019 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, November 5, 2019

बीमा क्षेत्र में रोजगार की संभावना

                                                                  - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
हमारे देश में बेरोजगार युवाओं की संख्या बहुत बड़ी है. सबके पास रोजगार हो तो देश की खुशहाली एवं समृद्धि सुनिश्चित है. अधिकांश विद्यार्थियों की यह स्वाभाविक आशा होती है  कि उन्हें उनके ज्ञान व योग्यता के अनुरूप रोजगार मिले, जिससे वे अपना और अपने परिवार का जीवनयापन कर सकें. लिहाजा वे नौकरी और स्वरोजगार की तलाश में रहते हैं. बैंकों में मुद्रा लोन के युवा आवेदकों की बात करें या एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज या कोई जॉब फेयर या कैंपस प्लेसमेंट की बात हो,  हर जगह विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या इस बात को रेखांकित करती है.

ऐसे तो विश्वभर  में बीमा क्षेत्र में रोजगार की अच्छी संभावना है, लेकिन भारत जैसे विशाल देश में इसकी संभावना तुलनात्मक रूप से बेहतर है. देश का इंश्योरेंस सेक्टर आज न केवल व्यक्ति के जीवन, घर, वाहन, घरेलू साज-सामान, मेडिकल खर्च जैसे कई मामले में बीमा की सुविधा मुहैया कर आर्थिक सुरक्षा प्रदान रहा है, बल्कि बीमित व्यक्ति को जोखिमों के प्रति आश्वस्त भी करता है. कहने का मतलब यह कि लाइफ इंश्योरेंस हो या जनरल इंश्योरेंस या फिर हेल्थ इंश्योरेंस, हर जगह यह एक विकसित होता हुआ क्षेत्र है. जैसे-जैसे लोगों की क्रय क्षमता बढ़ रही है, लोगों में जीवन के प्रति जिम्मेदारी और संजीदगी में इजाफा हो रहा है, सामाजिक जागरूकता में वृद्धि हो रही है, वैसे-वैसे बीमा क्षेत्र का विकास तेजी से हो रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ निरंतर विकसित होते हुए इस सेक्टर में अगले दस वर्षों में 30 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार का अवसर प्राप्त होगा. आज की तारीख में जीवन बीमा क्षेत्र में सरकारी कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी  के अलावे 23 प्राइवेट यांनी गैर सरकारी कम्पनियां  काम कर रही हैं. उसी तरह नॉन-लाइफ एंड हेल्थ इंश्योरेंस क्षेत्र में चार सरकारी बीमा कंपनियों के अलावे 30 प्राइवेट बीमा कंपनी कार्यरत र्हैं. 

बताते चलें कि बीमा और कुछ नहीं बल्कि  बीमाकर्ता और  बीमित व्यक्ति के बीच एक एग्रीमेंट है जिसके तहत बीमित व्यक्ति या तो वन टाइम प्रीमियम या मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक, वार्षिक आधार पर एक समयावधि तक नियमित एक तय राशि बीमा प्रीमियम  के तौर पर बीमाकर्ता के पास जमा करता है.  एग्रीमेंट के अनुसार  इसके एवज में  में बीमाकर्ता यानी इंश्योरेंस कंपनी  बीमित व्यक्ति को किसी दुर्घटना या नुकसान या बीमा के अन्य प्रावधानों के तहत एक बड़ी  राशि का भुगतान करती है. संतोष की बात है कि आज देश की बीमा कंपनियों के पास हर हालात से निपटने के लिए कोई-न-कोई इंश्योरेंस पॉलिसी है. 

आंकड़ों के लिहाज से जीवन बीमा क्षेत्र में मासिक कारोबार की बात करें तो इरडा (भारतीय बीमा नियामक प्राधिकरण) के मुताबिक जुलाई 2019 में जुलाई 2018 के मुकाबले 6 प्रतिशत से ज्यादा बीमा प्रीमियम जमा हुआ. उसी तरह नॉन-लाइफ एंड हेल्थ इंश्योरेंस क्षेत्र में जुलाई 2019 में जुलाई 2018 की तुलना में 22 प्रतिशत से ज्यादा वृद्धि दर्ज हुई, जिसमें हेल्थ इंश्योरेंस क्षेत्र में कार्यरत सात कंपनियों द्वारा  इसी अवधि में करीब 44 प्रतिशत का उछाल शामिल है. ये आंकड़े स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि बीमा क्षेत्र में कारोबार निरंतर बढ़ रहे हैं और इसके साथ वहां रोजगार के अवसर भी. 

देश के बीमा क्षेत्र में विद्यार्थियों के लिए इंश्योरेंस एजेंट या एडवाइजर, ऑफिस स्टाफ, डेवलपमेंट या सेल्स ऑफिसर, एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर, मैनेजर, ट्रेनर, सर्वेयर, अंडरराइटर, एक्चुअरीज आदि के रूप में कार्य करने के मौका रहता है.  ज्ञातव्य है कि इस क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए विद्यार्थी के पास ग्रेजुएट लेवल की डिग्री होना बेहतर होता है. सरकारी बीमा कंपनियों - जीवन बीमा और साधारण बीमा दोनों में नियुक्ति के लिए केंद्रीकृत व्यवस्था है. प्राइवेट बीमा कम्पनियां समय-समय पर वेकंसी के अनुरूप अपने-अपने तरीके से सेलेक्सन करते हैं. कॉलेज-यूनिवर्सिटी में कैंपस सेलेक्सन प्रोसेस के माध्यम से फ्रेशेर्स को नियुक्त किया जाता है. इंश्योरेंस सेक्टर में जाने को इच्छुक छात्र-छात्राओं के लिए एमबीए इन इंश्योरेंस, बीएससी इन एक्चुरियल साइंस,  पोस्ट ग्रेजुएट  डिप्लोमा इन रिस्क एंड इंश्योरेंस मैनेजमेंट जैसे कई कोर्सेस भी मौजूद हैं. 

जो भी विद्यार्थी इंश्योरेंस क्षेत्र में रोजगार पाना चाहते हैं उन्हें यह याद रखना चाहिए कि यह एक ऐसा पेशा है जिसमें काम करनेवाले हर व्यक्ति से यह न्यूनतम अपेक्षा होती है कि वे बीमित व्यक्ति और उसके परिवारजनों की छोटी-बड़ी कठिनाइयों को समझें और उसका समाधान करने का भरसक प्रयास करे. वे सेलिंग तथा पीपल स्किल्स में दक्ष हों, बीमा करने से पहले व्यक्ति के  जोखिम, आर्थिक स्थिति व बीमा की जरूरतों का सही आकलन कर उन्हें बीमा के शर्तों की पूरी जानकारी दे और पूरी पारदर्शिता अपनाते हुए व्यक्ति को इंश्योरेंस प्रोडक्ट ऑफर करे. साथ ही  किसी नुकसान या दुर्घटना की स्थिति में बीमित राशि के शीघ्र भुगतान में हर संभव मदद करे. 
(hellomilansinha@gmail.com)

                 
                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 22.09.2019 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, October 22, 2019

अच्छे स्वभाव व व्यवहार के मायने

                                                         - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
जॉब इंटरव्यू पैनल में शामिल रहने के कारण पर्सनल इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन के दौरान छात्र-छात्राओं को परखने और सेलेक्ट करने के क्रम में हो या स्कूल-कॉलेज में अपने मोटिवेशनल स्पीच के क्रम में मुझे विद्यार्थियों से मिलने, उन्हें जानने-समझने का अवसर मिलता रहता है. कई विद्यार्थी मुखर या आक्रामक, कई चुपचाप या दब्बू तो कई बिलकुल संयत, संतुलित व दृढ़ पाए जाते हैं. छात्र-छात्राओं के किसी समूह या भीड़ को गौर से देखने पर भी आपको इसका एहसास हो जाएगा. जेनेटिक तथा परवरिश-परिवेश जन्य कारणों से मूलतः हमारी व्यवहार पद्धति निर्मित होती है. आमतौर पर यह देखा जाता है कि सच्चे और अच्छे लोगों की संतान सामान्यतः अच्छे गुण व संस्कार से लैस होते हैं. 

गलती करना, उसका एहसास होना, फिर पछताना और उस गलती से सीख लेने एवं  आगे उसे पुनः न दोहराने का संकल्प लेकर जीवन में अग्रसर हो जाना, मानव जीवन का उत्तम उसूल माना जाता रहा है. देखने पर  हर महान व्यक्ति का जीवन इस सिद्धांत का पालन करता हुआ प्रतीत होगा. लेकिन अगर आप अपने आसपास देखेंगे तो आप पायेंगे कि कुछ  विद्यार्थियों के लिए गलती करना और पछताना, फिर गलती करना और फिर पछताना, वाकई एक समानांतर  तथा सतत चलनेवाली प्रक्रिया है. देखा गया है कि वे जानते हुए भी ऐसे काम करते हैं जिसके लिए उन्हें पिछली बार भी पछताना पड़ा था और कई बार डांट भी खानी पड़ी थी.  महात्मा गांधी  सहित किसी भी महान व्यक्ति की जीवनी पढ़ लीजिए, सब ने जीवन के किसी-न-किसी काल खंड में एक-दो या ज्यादा गलतियां की हैं, लेकिन एक ही गलती बारबार नहीं की और हर गलती से कुछ-न-कुछ सीख लेकर जीवन पथ पर कठिन से कठिन चुनौतियों का डट कर सामना किया और असाधारण रूप से विजयी भी हुए.

स्वभाव व व्यवहार के सन्दर्भ में बात करें तो विद्यार्थियों को  मुख्यतः तीन श्रेणी में रख सकते हैं. पहला  दब्बू, दूसरा  आक्रामक और तीसरा दृढ़ और निश्चयात्मक व्यवहारवाले. पहले दो प्रकृति  के विद्यार्थियों को यह मालूम नहीं होता  या  मालूम  होने पर भी यह तय नहीं कर पाते कि कब बोलना चाहिए और कब चुप रहना चाहिए. कहां और कब अपना पक्ष दृढ़ता से रखना है और किस मौके पर सिर्फ वेट एंड वाच की  अवस्था में रहना श्रेयस्कर होता है.  दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों विपरीत स्वभाव के विद्यार्थी होते हैं, पर दोनों  एक दूसरे के पूरक होने के नाते जाने-अनजाने कारणों से एक साथ दिखाई पड़ते हैं. जो विद्यार्थी दब्बू  होते हैं, वे 'यस सर' (जी, महाशय ) श्रेणी के होते हैं. सही हो या गलत, बॉस टाइप विद्यार्थी की  हर बात में हां में हां मिलाते हैं. काबिले गौर बात है कि ऐसे विद्यार्थी बाद में सिर पकड़ कर बैठते हैं और करवटें बदलते हुए सोने का प्रयास करते हैं. दूसरी ओर जो आक्रामक होते हैं वे अपने को सही दिखाने के लिए अनावश्यक रूप से हर जगह हावी होना चाहते हैं. ये वही बॉस टाइप या दबंग किस्म के विद्यार्थी होते हैं. ऐसे विद्यार्थी का ईगो बहुत बड़ा होता है. वे चिल्लाकर तथा शारीरिक बल से दब्बू किस्म के विद्यार्थियों में दहशत फैलाते हैं और अपना रौब झाड़ते हैं. इनके पास तथ्य और तर्क का अभाव होता है. ऐसे विद्यार्थियों को विरोध करनेवाले या सोच-विचारकर जवाब देनेवाले सहपाठी या जूनियर  पसंद नहीं आते. इन्हें तो हर स्थिति में 'यस सर' कहनेवाले  दब्बू  लोग बहुत पसंद हैं. इस तरह ये गलती पर गलती करते हैं, पछताते हैं, किन्तु  दूसरों पर दोष डाल कर फिर वैसी ही गलती करते रहते हैं. पाया गया है कि इन दोनों किस्मों के विद्यार्थी आंतरिक रूप से कमजोर होते हैं.  न चाहते हुए भी अधिकांश समय निराशा, भय, अवसाद आदि से पीड़ित रहते हैं. फलतः  परीक्षा में अच्छा कर पाना मुश्किल होता है. ऐसे विद्यार्थी कम उम्र में ही कई व्यसन और व्याधि के शिकार भी हो जाते हैं.
  
दिलचस्प और बहुत ही विचारणीय तथ्य है कि पहले दो प्रकार के विद्यार्थियों के अलावे कुछ विद्यार्थी हर शैक्षणिक संस्थान और गाँव-शहर में मिल जायेंगे जो धीर-गंभीर होते हैं. वे सोच-समझ कर कार्य करते हैं. उनका  विचार-स्वभाव -व्यवहार अच्छा  होता है. वे दृढ़ निश्चय वाले होते हैं. वे न तो किसी को डराते हैं और न ही किसी से डरते हैं. बिनोवा भावे के शब्दों में ऐसे विद्यार्थी ही वीर कहे जा सकते हैं. कहने का तात्पर्य, व्यवहार में दब्बू अथवा आक्रामक होने के बदले, यह हमेशा वांछनीय है कि छात्र-छात्राओं का व्यवहार निश्चयात्मक, संयत और संतुलित हो.  पाया गया है कि ऐसे व्यवहारवाले विद्यार्थी मेहनती, निष्ठावान, सक्षम, विश्वस्त, विनोदप्रिय, शांतचित्त और तार्किक  होते हैं. फलतः वे हमेशा एक बेहतर जिंदगी जीते हैं -सफलता, सुख, समृद्धि, संतोष, स्वास्थ्य और आनंद के पैमाने पर. 
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Saturday, October 5, 2019

टेंशन को जल्द कहें ना

                                                            - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
हाल ही में एक शैक्षणिक संस्थान में सिविल सर्विसेस प्रतियोगिता परीक्षा की  तैयारी कर रहे  छात्र-छात्राओं के एक बड़े समूह से बातचीत करने के क्रम में मैंने एकाधिक बार उनसे कहा कि कुछ भी हो, पर टेंशन नहीं लें. चिंता नहीं, चिंतन करें. हेल्दी रहें. विद्यार्थियों के चेहरे पर आए तात्कालिक भाव को पढ़कर लगा कि उन्हें मेरी बात अच्छी लगी. फिर भी सेशन के अंत में कुछ विद्यार्थियों ने पूछ ही लिया कि आखिर टेंशन को कैसे कहें ना? विशेषज्ञ कहते हैं कि कारण जानेंगे तो निवारण भी पा लेंगे. तो पहले मूल बात पर गौर कर लेते हैं  कि टेंशन आखिर होता क्यों है?

निरंतर बढ़ती प्रतिस्पर्धा के मौजूदा समय में बहुत सारे विद्यार्थी टेंशन में रहते हैं और दिखते भी हैं. हां, कई लोग अपना टेंशन छुपाने में सफल भी रहते हैं, यद्दपि ऐसे लोग ऐसा करके  कई बार अपना टेंशन और बढ़ा लेते हैं. आपने भी देखा होगा कि एक जैसी परिस्थिति में दो विद्यार्थी अलग-अलग मानसिक स्थिति में रहते हैं. पहला फ़िक्र और टेंशन से परेशान है तो दूसरा बेफिक्र और मस्त. पहला जहां यह गाना गाता प्रतीत होता है कि जिंदगी क्या है, गम का दरिया है ...तो वहीँ  दूसरा यह गाता हुआ लगता है कि "मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया...."  

बहरहाल, प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल होनेवाले विद्यार्थियों को केंद्र में रखकर इस चर्चा  को आगे  बढ़ाएं  तो यह कहना मुनासिब होगा कि यहां टेंशन के अनेक कारण हो सकते हैं. प्लस टू , ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन के बेसिक क्वालिफिकेशन के बाद प्रतियोगिता परीक्षा से विद्यार्थियों का वास्तव में सीधा सामना होता है. आईआईटी-एनआईटी, नीट, बैंकिंग, रेलवे, एसएससी, आईआईएम,  सिविल सर्विसेस या अन्य प्रतियोगिता परीक्षा की बात करें, तो  हर जगह  सिलेबस बड़ा हो जाता है.  विषय ऐच्छिक और अनिवार्य दोनों होते हैं. प्रश्नों का पैटर्न भिन्न  होता है. सामान्यतः पास मार्क्स जैसी कोई बात नहीं होती. बस उपलब्ध सीटों  के हिसाब से प्रतियोगिता में शामिल विद्यार्थियों की कुल संख्या में से सबसे अच्छे अंक अर्जित करनेवाले विद्यार्थियों का चयन होता है. ऐसे में दिमागी कनफूजन, सफलता के प्रति संशय, असफलता का डर, घरवालों की अपेक्षा पर खरा न उतरने पर उपेक्षा की आशा, अनहोनी की आशंका आदि टेंशन के आम कारण होते हैं. यूँ तो कई विद्यार्थी कभी-कभी बस बिना कारण भी टेंशन में पाए जाते हैं.

जानकार कहते हैं कि अगर आप केवल एक हफ्ते तक रोज रात को सोने से पहले दिनभर के कार्यों-व्यस्तताओं की निरपेक्ष समीक्षा करें तो आप पायेंगे कि अमूमन कितना समय आपने  रोज टेंशन में गुजारा है. अब खुद ही यह भी विवेचना करें कि जिन बातों को लेकर टेंशन में रहे, उनमें से कितने टेंशन करने लायक थे और कितने बेवजह. सर्वे बताते हैं कि आधा से ज्यादा समय छात्र-छात्राएं अकारण ही टेंशन में रहते हैं. मजे की बात है कि जब भी आप टेंशन में रहते हैं उस समय आप जो भी कार्य करते हैं, मसलन पढ़ना-लिखना, खेलना या और भी कुछ, उसमें आपकी  उत्पादकता या परफॉरमेंस औसत से बहुत कम होता है. मानसिक रूप से आप अशांत और नाखुश रहते हैं. ऐसे में आपका मेटाबोलिज्म दुष्प्रभावित होता है. आपका  पाचनतंत्र से लेकर अन्य ऑर्गन सामान्य ढंग से काम नहीं करते, जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह  साबित होता है.

तो फिर टेंशन को ना कहने के लिए क्या करना चाहिए? सबसे पहले अपने लक्ष्य के प्रति खुद को पूर्णतः समर्पित करते हुए जो कुछ कर सकते हैं उसे करने की पूरी कोशिश करें. झूठ-फ़रेब से दूर रहें. दिनभर का एक रुटीन बना लें और उस पर पूरा अमल करें. सही कहा है किसी ने कि कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती. देर हो सकती है, पर अगर आप शिद्दत से कोशिश करते रहें तो आप लक्ष्य तक पहुंचेंगे जरुर. इस दौरान महात्मा गांधी के इस कथन को याद रखना आपको उर्जा व प्रेरणा देगा कि हम जो करते हैं और हम जो कर सकते हैं, इसके बीच का अंतर दुनिया की ज्यादातर समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त होगा. एक बात और. आपके प्रयासों का आकलन आपसे बेहतर शायद ही कोई कर सकता है. अतः दूसरों की राय से न तो बहुत खुश हो और न ही एकदम दुखी. खुद पर और अपनी कोशिशों पर हमेशा भरोसा करें. गलती हो गई हो तो अव्वल तो उसे दोहराएं  नहीं, उसे यथाशीघ्र सुधारें. छोटी-मोटी परेशानियों को तत्काल सुलझाने  या फिर झेलने या इग्नोर करने की आदत बना लें, जिससे कि आप बड़े और महत्वपूर्ण टास्क पर ध्यान केन्द्रित कर सकें. हर समय इस मानसिक सोच से काम करें कि अच्छे तरीके से कोई भी काम करेंगे तो अंततः उसका परिणाम अच्छा ही होगा. इन सरल उपायों से आप टेंशन को एक बड़ा-सा 'ना' कह सकेंगे. 
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