Tuesday, February 12, 2013

आज की कविता : अंतर

                                      - मिलन सिन्हा 
अंतर 
एक वह था 
जो 
हमेशा  ऊंचे पहाड़ों 
एवं 
ऊंची अट्टालिकाओं से 
प्रेरणा लेता रहा 
और निरंतर 
भागता रहा ऊपर 
कभी 
भूल कर भी 
नीचे नहीं देखा । 
और एक मैं था 
जो 
बराबर गड्ढों और नालों को 
ढूंढ़ता रहा 
कीड़े बीनता रहा 
एवं 
उन कीड़ों को 
धोकर, साफकर 
एक नया रूप देने की 
कोशिश करता रहा । 
और आज 
जब कि वह 
अंतरिक्ष में काल कोठरियां खोज रहा है 
मैं 
यहाँ की काल कोठरियों को 
धो-पोंछ कर 
एक नया रूप देने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।

('समग्रता' में अगस्त '79 में प्रकाशित )

                                                     और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं

आज की कविता : विश्वास

                                - मिलन सिन्हा 
गरीब की बेटी 
बांस की फसल 
जैसी है आज 
उससे बेहतर 
कैसे रहे कल 
गाँव या क़स्बा हो 
या हो नगर महानगर 
कठिन है 
जिंदगी का सफ़र 
घर में न आसानी 
बाहर तो  
है ही परेशानी 
कभी डर  अपहरण का 
कभी चीर हरण का 
इधर दुर्योधन 
तो 
उधर दु:शासन 
भाई के नाम पर भी 
न कोई अर्जुन 
न कोई किशन 
दुनिया सिमट रही है 
ग्लोबल विलेज 
बन रही  है 
घोषणाओं की है भरमार 
अमल के नाम पर 
व्यवस्था है लाचार 
लेकिन 
नहीं  है वह निराश 
अपनी आन्तरिक  शक्ति का 
उसे है एहसास 
मन में है विश्वास 
बन पायेगी वह भी 
एक न एक दिन 
कोई मेधा  या किरण 
कोई इला  या तीजन ।

('हिन्दुस्तान' में 19 अक्टूबर,2008 को प्रकाशित)

                                         और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं

Wednesday, February 6, 2013

लघु कथा : वास्तविकता

                                                                               - मिलन  सिन्हा 
                                                       
          कुमार साहब एक नामी वकील थे।जब वे अदालत में जिरह करते तो अपनी दलीलों से सबको निरुत्तर  कर देते।

        आज वकील साहब ने दहेज़ के खिलाफ  जोरदार दलीलें प्रस्तुत कीं। जज साहब सहित न्यायालय में उपस्थित सारे लोग वकील साहब के तर्कों से अभिभूत थे। बाहर निकलते ही उनके मुवव्किल प्रसाद जी उन्हें  उनका फीस एक हजार रूपया ख़ुशी-ख़ुशी  दिया।वकील साहब ने पैसे रख लिए और फिर प्रसाद जी को अलग ले जाते हुए कहा, "भैया, आप मुझे परसों तक पचास हजार रुपये उधार  दे सकते  हैं? बड़ा ही जरुरी काम है। 

       'हाँ, हाँ, वकील साहब।पचास हजार क्यों, और भी रुपये की जरुरत हो तो ले लीजिये .........।' प्रसाद जी ने निःसंकोच जवाब दिया।

        पूरी रकम के साथ प्रसाद जी  दूसरे ही दिन शाम को वकील साहब के घर पहुँच गए।कुमार साहब बाहर बरामदे में चिंतामग्न बैठे थे। प्रसाद जी को देख कर उन्होंने दूसरी कुर्सी मंगवाई। चाय के लिए भी कहा। प्रसाद जी ने रुपये वकील साहब को दे दिए। फिर कुछ सहमते  हुए पूछ  ही लिया, 'जनाब, आपको पहले कभी इतना  चिंताग्रस्त नहीं देखा है। सब खैरियत तो है?

       वकील साहब के चेहरे पर एक अजीब-सा भाव साफ़ दिखने लगा। कहा, 'प्रसाद जी, जानते हैं, ये रूपये मैं आपसे उधार क्यों ले रहा हूँ? नहीं न ! दहेज़ के लिए ! कल देना है मुझे दहेज़ की पूरी रकम,  तब जाकर कहीं मेरी बेटी की शादी की तारीख तय हो पायेगी।'

       चाय आ चुकी थी, पर प्रसाद जी सुन्न से  बैठे रहे कुछ देर। फिर चुपचाप उठकर चले गए।

प्रवासी दुनिया .कॉम पर प्रकाशित
                                       और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं                                      

Monday, February 4, 2013

बाल कविता : आम का पेड़

                                          - मिलन सिन्हा 
mango tree








आम का पेड़ 
यह  है आम का पेड़ 
इसमें आम लगे हैं ढेर। 

बच्चे  खेलते हैं इसके नीचे 
भागते हैं एक  दूसरे के पीछे।

थक कर फिर बैठ  जाते  हैं 
मिलजुल कर आम खाते हैं। 

झूले  भी  लगे हैं  यहाँ - वहाँ 
ऐसा मजा फिर मिलेगा कहाँ। 

आम के पेड़ होते हैं अच्छे 
जैसे होते हैं  हमारे  बच्चे । 

प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित

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Sunday, February 3, 2013

हास्य व्यंग्य कविता : मनहूस चेहरा

                                                                          - मिलन सिन्हा 
netaji
मनहूस चेहरा 
पूरे  पांच वर्ष बाद चुनाव के समय 
जब नेताजी 
लौटकर अपने गाँव आए 
तो देखकर उन्हें 
गांववाले बहुत गुस्साए 
कहा, उनलोगों ने उनसे 
आप फ़ौरन यहाँ से चले जाइए 
और फिर कभी अपना यह मनहूस चेहरा 
हमें न दिखलाइए 
सुनकर यह 
नेताजी हो गए उदास 
कहा, लोगों को 
बुलाकर अपने पास 
भाई, अगर ऐसा करोगे 
तो बाद में 
तुम्ही लोग पछताओगे 
क्यों कि उस हालत में 
मुझे  यहीं रहना पड़ेगा 
और मेरा  यह मनहूस चेहरा 
तुमलोगों को  देखना पड़ेगा 
जिससे  
तुमलोगों की परेशानी  और बढ़  जाएगी 
और न ही 
मेरी समस्या सुलझ पाएगी 
इसीलिए तुमलोग फिर एकबार 
मुझे जीता कर  दिल्ली भेज दो 
और पूरे पांच साल के लिए 
मेरा यहाँ आना ही बंद कर दो !

 #  प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित 
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बाल कविता : खेलो खेल

                                                                 - मिलन सिन्हा 
खेलो  खेल 

देखो बच्चों, नभ  को देखो 
देखो चाँद - सितारे देखो।

एक शाम कुछ बादल आए,
नभ में आकर जाल बिछाए।

हवा  चली तो  शोर  हुआ,
बारिश हुई, फिर भोर हुआ।

कोयल  कूकी, कौआ  बोला,
निकलो  बच्चों, आया  भोला।

खूब प्यार से खेलो खेल,
होगा फिर तुम सबमें मेल।

('नंदन' में जुलाई,2009 में प्रकाशित )
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