- मिलन सिन्हा
प्रतिस्पर्धा दौड़ में हम सब शामिल हैं, किसी -न -किसी रूप में। ऐसे देखें तो प्रतिस्पर्धा के जीन मानव संरचना में ही मौजूद हैं , तथापि इसको तीव्र बनाने का प्रयास बचपन से ही प्रारम्भ हो जाता है जो बढ़ती उम्र के साथ गलाकट स्तर तक पहुँच जाती है। प्रतिस्पर्धा के ऐसे चरम अवस्था में सही गलत की परिभाषा तक गड्मड हो जाती है ; नैतिक -अनैतिक सब जायज लगने लगता है। साध्य की प्राप्ति सर्वोपरि हो जाती है, साधन की स्वच्छता व गुणवत्ता कोई मायने नहीं रखती। मजे की बात यह है कि जाने -अनजाने ही हम दूसरे से प्रतिस्पर्धा के इस चक्रव्यूह में फंसते चले जाते हैं और खुद को एक अंतहीन, अर्थहीन दौड़ का हिस्सा बना लेते हैं।
विचारणीय प्रश्न यह है कि जब बचपन से ही हमें घर, स्कूल , कॉलेज से लेकर वर्कप्लेस आदि तक बड़े - बुजुर्ग आगे ही आगे बढ़ने के नसीहत देते रहते हैं, तब हमें कोई यह क्यों नहीं बताते हैं कि किससे आगे बढ़ना है, कितना आगे बढ़ना है...... और फिर इस बढ़ने की परिभाषा क्या है ? क्या अपने स्वास्थ्य को सदैव अच्छा बनाये रखना, अपने व्यवहार व विचार को मानवोचित बनाये रखना, अनैतिकता के तमाम झंझावातों के बीच से अर्थ उपार्जन के सही मार्ग पर चलते रहना जीवन में आगे बढ़ना नहीं है ? क्या स्वामी विवेकानन्द, महात्मा बुद्ध, थॉमस आल्वा एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे लोग प्रतिस्पर्धा नहीं करते थे ? अगर हाँ, तो किससे ? उत्तर है, खुद से। फिर क्यों न हम अभी से अपनी क्षमता व रूचि के अनुरूप पूरी मुस्तैदी से कार्य प्रारम्भ कर दें जिससे इकबाल द्वारा व्यक्त निम्नलिखित विचार को शब्दशः चरितार्थ किया जा सके :
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से ये पूछे बता तेरी रजा क्या है.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते। असीम शुभकामनाएं।
# 'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित
आदरणीय मिलन सर,
ReplyDeleteआपके सभी एपिसोड हमे बेहद पसंद आते हैं।
मैं नित्य आपसे एवं आपके लेखन से सीखता रहता हूँ और साथ ही खुद कुछ करने के लिए अपने आप को प्रेतित करता रहता हूँ।
आपका
अभय कुमार सिन्हा
अपने विचार साझा करने के लिए धन्यवाद। असीम शुभकामनाएं।
ReplyDelete- मिलन सिन्हा