- मिलन सिन्हा
हम सब हाँ-ना वाले लोग हैं। सुबह से शाम तक कभी हाँ, कभी ना कहते हुए हम अपने जीवन का एक और दिन गुजार लेते हैं। चुनावी मौसम में हाँ- हाँ, अर्थात कसमें-वादे, घोषणा-आश्वासन का एक अलग ही माहौल बन जाता है। बेशक बाद में हम क्यों न यह पूछते पाये जाएं - क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम, वो इरादा ! दरअसल, सामनेवाले के मुँह से हाँ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता ! 'यस सर' तो कारपोरेट जगत की तथाकथित संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हो चला है। पर थोड़ा ठहर कर सोचने पर अटपटा लगता है कि हर मुद्दे पर सहमति में हाँ कहना कैसे संभव है , कहाँ तक उचित है ? फिर, सिर्फ हाँ कह देने मात्र से बात बन जाती है या उस हाँ के अनुरूप अपेक्षित कार्य को अंजाम देना मुख्य उद्देश्य होता है ? अधिकतर मामलों में हम पाते हैं कि लोग 'ऑल प्लीज एटीट्यूड' अथवा 'फियर साइकोसिस' के तहत 'यस सर' का सहारा लेते हैं। ऐसी स्थिति में कमिटमेंट पूरा नहीं होने पर अनावश्यक मानसिक द्वन्द/ तनाव, विश्वसनीयता का संकट, वादाखिलाफी के आरोप आदि से जूझना पड़ता है।
सामान्य तौर पर देखें तो किसी को एकदम से ना कहना आसान नहीं होता, पर ना कहना कोई गुनाह भी तो नहीं। हाँ, ना कहना भी एक कला है और देखा गया है कि जो लोग इस कला में पारंगत हो जाते हैं वे ना कहकर भी लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहते हैं क्यों कि ऐसे लोग अमूमन हाँ और ना की मर्यादा को बखूबी निभाना जानते हैं। गांधी जी ने भी कहा है, 'शुद्ध अंतःकरण व प्रतिबद्धता से बोला गया एक स्पष्ट 'ना' उस 'हाँ' के वनिस्पत कहीं ज्यादा अच्छा है जो महज दूसरे को खुश करने या किसी समस्या से तात्कालिक निजात पाने के लिए किया जाता है।'
सामान्य तौर पर देखें तो किसी को एकदम से ना कहना आसान नहीं होता, पर ना कहना कोई गुनाह भी तो नहीं। हाँ, ना कहना भी एक कला है और देखा गया है कि जो लोग इस कला में पारंगत हो जाते हैं वे ना कहकर भी लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहते हैं क्यों कि ऐसे लोग अमूमन हाँ और ना की मर्यादा को बखूबी निभाना जानते हैं। गांधी जी ने भी कहा है, 'शुद्ध अंतःकरण व प्रतिबद्धता से बोला गया एक स्पष्ट 'ना' उस 'हाँ' के वनिस्पत कहीं ज्यादा अच्छा है जो महज दूसरे को खुश करने या किसी समस्या से तात्कालिक निजात पाने के लिए किया जाता है।'
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# 'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित
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