- मिलन सिन्हा
हाल ही में देश भर में दसवीं एवं बारहवीं कक्षाओं के रिजल्ट आये हैं. अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों की संख्या अच्छी-खासी है. स्वभावतः ऐसे घरों में ख़ुशी का माहौल है. बच्चों के साथ घर-परिवार के लोग आगे की पढ़ाई की योजना में लगे हैं. छात्र-छात्राओं सहित अभिभावकों को एडमिशन के लिए विभिन्न शिक्षण संस्थानों का चक्कर लगाते एवं फॉर्म आदि के लिए लम्बी कतारों में खड़े अपनी बारी का इन्तजार करते देखा जा रहा है. ऐसे समय निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा ऐसे विद्यार्थियों को अपने यहां नामांकन-पंजीकरण के उद्देश्य से बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जाते हैं, अनेक सच्चे-झूठे वादे किये जाते हैं, कैरियर व रोजगार से जुड़े अनेकानेक सुनहरे सपने दिखाए जाते हैं. बाजारवाद के इस आर्थिक दौर में यह सब सामान्य हो चला है. बिहार, झाड़खंड जैसे प्रदेशों जहाँ उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों की आज भी बेहद कमी बनी हुई है और जहाँ से बड़ी संख्या में छात्र दिल्ली सहित अन्य बड़े स्थानों में मौजूद कॉलेजों में एडमिशन के लिए जाते रहे हैं, वहां इस बार भी दाखिला पाने की पुरजोर कोशिश हो रही है.
शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा के निरंतर मंहगे होते जाने के इस दौर में किसी भी सीमित आय वाले मध्यम व निम्न वर्गीय परिवारों के लिए अपने बच्चों को योग्य होते हुए भी नामचीन संस्थानों में मनचाहे कोर्स में एडमिशन दिलवाना और फिर दो-तीन-चार वर्षों तक पढ़ाई जारी रखवाना अत्यन्त मुश्किल काम होता है. लिहाजा बिना छात्रवृति और बैंक लोन के अनेक बच्चों के लिए आगे की शिक्षा एक सपना बनकर रह जाती है. ऐसी परिस्थिति में विज्ञापनों के मायाजाल में उलझे बगैर हर विद्यार्थी व उनके परिवारजनों को सारी संभावनाओं व उसके व्यवहारिक पक्षों-परिणामों पर गहन विचार-विमर्श करके किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए. ऐसे नाजुक मौकों पर भावना में बहकर या किसी दोस्त की देखा-देखी या किसी के सलाह को बिना जांचे-परखे किसी भी कोर्स या संस्थान में एडमिशन लेना मुनासिब नहीं होगा. कहने का अभिप्राय यह कि अपनी रूचि के अनुरूप और “भीड़ के साथ चलने की मानसिकता” से प्रेरित हुए बिना हरेक विद्यार्थी को खूब सोच-समझ कर फैसला करने की आवश्यकता है जिससे कि उनका व उनके परिवार का भविष्य हर मायने में आज से बेहतर बन सके.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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