- मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ...
जीवन विविध अनुभवों से गुजरते हुए आगे बढ़ते रहने का नाम है. जीवन में आगे क्या-क्या होनेवाला है, इसका बस थोड़ा अनुमान ही लगाया जा सकता है. सच तो यह है कि जीवन न तो 20-20 मैच है और न ही एक टेस्ट मैच. इसमें तो असीमित ओवर के अनेक मैच खेले जाते हैं. इसका गणित सरल होते हुए भी जटिल प्रतीत होता है. हां, यह तो सब जानते हैं कि संसार में कोई भी अमर नहीं है. जिसका भी जन्म हुआ है, उसकी कभी-न-कभी मृत्यु अवश्य होगी. फिर भी सत्य तो यही है कि संसार में सभी का जन्म जीने के लिए होता है. मृत्यु तो एक प्राकृतिक परिणिति है. उसे जब आना होगा वह आएगी. कब आएगी, बता कर तो आएगी नहीं. तो फिर हम सबका फर्ज क्या है? बस यही न कि जीवन को इसकी समग्रता में जीने का हरसंभव प्रयास करते रहें और इसे गतिशील बनाए रखें. नोबेल प्राइज विजेता महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन कहते हैं, "ज़िन्दगी साइकिल चलाने के जैसा है. बैलेंस कायम रखने के लिए आप को बस चलते रहना है.'
देश भर में अनेक विद्यार्थी अपने गांव, शहर या प्रदेश से दूर अन्य स्थान पर अध्ययन के लिए जाते हैं और उन्हें इसके लिए कई महीनों या सालों तक वहां रहना पड़ता है. घर से दूर रहकर अध्ययन करने के कई कारण होते हैं. मसलन जिस विषय या कोर्स की वे पढ़ाई करना चाहते हैं, उसकी सुविधा उनके यहां उपलब्ध नहीं है या सुविधा तो है पर आर्थिक या अन्य किसी कारण से उन्हें बाहर जा कर किसी संस्थान में पढ़ना पड़ता है. सोचनेवाली बात है कि अगर अपने गृह स्थान में या उसके आसपास ही छात्र-छात्राओं को उनकी शैक्षणिक योग्यता के अनुरूप उपयुक्त किसी शैक्षणिक संस्थान में पढ़ने की सुविधा मिल जाए तो अधिकांश विद्यार्थी वहीँ पढ़ना चाहेंगे. नाहक बाहर क्यों जायेंगे? विचारणीय प्रश्न है कि जो भी विद्यार्थी बाहर रह कर अध्ययन करते हैं उन्हें कितने प्रकार की छोटी-बड़ी परेशानियों के बीच सब कुछ मैनेज करना पड़ता है. घर पर रह कर पढ़नेवालों को इन परेशानियों से होकर नहीं गुजरना पड़ता है. साथ ही उन्हें अपने अभिभावक के सानिद्ध का सुख भी हासिल होता है.
कहने की जरुरत नहीं कि व्यावहारिक तौर पर किसी भी आपदा या विपत्ति के वक्त घर से दूर किसी अन्य स्थान में रहकर अध्ययन करनेवाले विद्यार्थियों के अभिभावक के रूप में उनके देखभाल की पहली जिम्मेदारी उनके कॉलेज-यूनिवर्सिटी-इंस्टिट्यूट के प्रमुख और उनसे ऊपर वहां के जिलाधिकारी की होती है. फिर अगर लॉक डाउन जैसी अप्रत्याशित और सर्वथा अकल्पनीय स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो यह जिम्मेदारी थोड़ी ज्यादा हो जाती है. इस जिम्मेदारी का निर्वहन बेहतर तरीके से हो सके इसके लिए समाज और सरकार को इन विषयों पर गंभीर चिंतन करना चाहिए और आगे के लिए एक पुख्ता रोडमैप बनाना चाहिए. इससे भविष्य में एक साथ कई आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक समस्याओं से आसानी से निपटना संभव हो जाएगा.
बहरहाल, सोचिए जरा कि जब छात्र-छात्राओं के सामने अचानक अपने सीमित संसाधन के साथ घर से दूर अपना गुजारा करने, महामारी से बचे रहने एवं तमाम डराने वाले पुष्ट-अपुष्ट ख़बरों की गंभीर चुनौती पेश हो जाय और आगे उन्हें अपने हॉस्टल या लॉज में रहने की सामान्य सुविधा भी न मिले, तो उनकी स्थिति कैसी होगी? हां, इसी स्थिति से देशभर में लाखों विद्यार्थियों का सामना हुआ. लेकिन इस कठिनतम परिस्थिति में भी लगभग सभी विद्यार्थियों ने अपने-अपने तरीके से तमाम समस्याओं से निबटने का अदभुत उदाहरण पेश किया. उन्होंने समस्याओं के आगे घुटने टेकने के बजाय परेशानियों को झेला, आपस में सहयोग किया, संयम रखा और समाधान के रास्ते तलाशते रहे. कहते हैं न कि ईश्वर उसी की मदद करते हैं जो स्वयं अपनी मदद करता है. मुझे तो लगता है कि उस समय किसी-न-किसी रूप में स्वामी विवेकानंद की ये बातें कि "सारी शक्तियां आपमें मौजूद हैं, आप सब कुछ कर सकते हो. बस खुद पर विश्वास बनाए रखो" और राष्ट्र कवि दिनकर की ये पंक्तियां कि "विपत्ति जब आती है कायर को ही दहलाती है, सूरमा नहीं विचलित होते..." उनको प्रेरित और अंदर से मजबूत बना रही होगी. एक बात और. घर लौटने की उनकी उत्कंठा इस बात को साबित करता है कि उनका अपने परिवार एवं समाज के साथ भावनात्मक जुड़ाव कितना प्रगाढ़ है. काबिलेगौर बात है कि इस मुश्किल वक्त में भी उनमें से शायद ही किसी ने हताश-निराश होकर कोई आत्मघाती कदम उठाया. इसका मतलब साफ़ है. इन लोगों ने मन से माना कि जीवन अनमोल है और इसे किसी भी सूरत में जाया नहीं करना है. सुख-दुःख तो जीवन का अभिन्न हिस्सा, जैसे आती-जाती ऋतुएं. सचमुच, ऐसे सभी छात्र-छात्राएं प्रशंसा के हकदार हैं.
(hellomilansinha@gmail.com)
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# साप्ताहिक पत्रिका "युगवार्ता" में 17.05.20 को प्रकाशित
# साप्ताहिक पत्रिका "युगवार्ता" में 17.05.20 को प्रकाशित
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