-मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर...
उदारीकरण के मौजूदा दौर में सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर कम होते जा रहे हैं. दूसरी ओर निजी एवं कारपोरेट क्षेत्र में नौकरी के मौके में बढ़ोतरी देखी जा रही है. नौकरी के स्वरुप आदि में भी अनेक बदलाव दिखाई पड़ते रहे हैं. सरकारी नौकरी में प्रचलित ‘वेतन’ के स्थान पर अब निजी एवं कारपोरेट क्षेत्र में पैकेज या ‘सी टी सी’ जैसी शब्दावली का चलन बढ़ गया है. जैसा कि हम जानते रहे हैं, वेतन का सरल व सीधा अर्थ होता है महीने के अंत में हाथ में मिलने वाली राशि. लिहाजा उस राशि से महीने भर की सारी जरूरतें पूरी करनी की अपेक्षा होती है और साथ में भविष्य के लिए कुछ बचत की भी.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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सामान्यतः बचत के लिए आम नौकरीपेशा आदमी गुल्लक से लेकर डाकघर या बैंक में बचत या मियादी जमा खाते का सहारा लेता रहा है. कुछ लोग बेशक सोने -चांदी खरीद कर बचत को अंजाम देते रहे हैं. जीवन बीमा को भी जोखिम प्रबंधन के साथ –साथ बचत का एक बेहतर जरिया माना जाता रहा है. बहरहाल, ‘पैकेज’ और ‘सी टी सी’ के इस जमाने में कहने को तो बहुत कमाने का एहसास होता है, परन्तु महीने के अंत में खाते में बैलेंस देखकर निराशा होती है. दिलचस्प बात तो यह भी है कि इसके बावजूद आज हमें चिंता नहीं सताती, क्यों कि हमें आजकल चार्वाक के सिद्धांत, ‘ऋण लो और घी पीओ’ को घुट्टी में पिलाने की हर संभव संस्थागत कोशिशें होती हैं, जिसमें क्रेडिट कार्ड, ओवर ड्राफ्ट जैसी लुभावने व आसान, पर वास्तव में काफी मंहगी सुविधाएं शामिल हैं. ऐसे में कमाने की एक सीमा होने के बावजूद खर्च करने की सीमा उससे आगे चली जाती है.
गौरतलब बात है कि जब हम अपने कमाए हुए पैसे को कैश (नकद) के रूप में खर्च करने जाते हैं तो मनोवैज्ञानिक दवाब के तहत हम सोचने लगते हैं कि खरीदे जाने वाली चीज की हमें आवश्यकता है भी कि नहीं, या हम यूँ ही बिना वजह उसे खरीद रहे हैं. लेकिन अगर कैश के बजाय क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड या इंटरनेट बैंकिंग के जरिए सामान खरीदने की बात हो, तो फिर कहने ही क्या ?
ज्ञातव्य है कि निम्न या मध्यम वर्ग के लोगों के लिए बचत अनायास शायद ही हो पाता है. इसके लिए तो सोच –विचार कर निर्णय लेना पड़ता है और लेना चाहिए भी. कहते है न, लक्ष्मी चंचल होती है. ऐसे भी, हमारे पॉकेट में रखा सौ रुपया अपने आप एक सौ दस रूपये होने से रहे, लेकिन इसके उलट शाम तक जरुरत – बेजरूरत खर्च हो कर सौ से कम होने की संभावना प्रबल रहती है.
दरअसल, बचत के मुख्यतः तीन सिद्धांत प्रचलन में है . एक जिसे अधिकांश लोग अपनाते हैं और वह है, कुल मासिक कमाई से 30 दिनों में होने वाले खर्चे के बाद जो राशि बची रहे, उसे बचत के लिए रखा जाय. दूसरा यह कि महीने में सभी आवश्यक चीजों पर होने वाले अनुमानित औसत खर्च के लिए राशि अलग रख कर बची हुई राशि को वेतन मिलते ही बचत के मद में रख दें या फिर तीसरा तरीका जैसा प्रसिद्ध इन्वेस्टमेंट गुरु ‘वारेन बफेट’ कहते हैं वह यह कि बचत की राशि निर्धारित कर अलग रख लें, फिर बची राशि से महीने भर खर्च करें. कुछ भी करें-कहें, पैसे की फिजूलखर्च से बचने और उसकी बचत के एकाधिक फायदे तो हैं ही, व्यक्ति, समाज और देश - सबके लिए.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।