Thursday, October 29, 2020

रिश्तों की अहमियत

                               - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

स्वतंत्रता दिवस पर प्रसिद्ध क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी ने जैसे ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से खुद को स्वतंत्र करने यानी सन्यास लेने की घोषणा की, वैसे ही उनके करोड़ों प्रशंसकों की प्रतिक्रिया आने लगी. इतना ही नहीं, उसी शाम एक अन्य जानेमाने क्रिकेटर और धोनी के साथी खिलाड़ी सुरेश रैना ने भी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया. सबको ज्ञात है कि रैना और धोनी के रिश्ते कितने प्रगाढ़ रहे हैं.
खैर, धोनी के इस अप्रत्याशित घोषणा के बाद उनके बचपन के साथी और उनके स्कूल के कोच से लेकर सौरव गांगुली, कपिल देव, शेन वार्न, विराट कोहली सहित देश-विदेश के अनेकों खिलाड़ियों ने धोनी के साथ उनके मधुर रिश्ते की बात  कही है. यह सचमुच बहुत ही अच्छी बात है और धोनी की सबसे बड़ी पूंजी - रिश्तों की पूंजी. 

 
रिश्तों की शुरुआत हमारे जन्म से ही हो जाती है और समय के साथ इसका दायरा निरंतर बढ़ता जाता है. घर-परिवार, आस-पड़ोस, अपना समाज, स्कूल, कॉलेज से होते हुए देश-विदेश तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से यह व्यापक  होता जाता है. भारतीय संस्कृति में तो  'वसुधैव कुटुम्बकम्' यानी "पूरा संसार है मेरा परिवार" की बात कही जाती है.
अच्छी बात है कि रिश्ते बनाने और निभाने में माहिर बहुत सारे लोग आपको हर क्षेत्र में मिल जायेंगे जो बिना किसी अपेक्षा के लोगों से जुड़ने का काम करते रहते हैं, क्यों कि वे मानते हैं कि रिश्तों का जीवन में सबसे अधिक महत्व है. क्या सभी विद्यार्थी इस बात को समझते हैं और रिश्तों को यथोचित महत्व देते हैं?  छात्र-छात्राओं के लिए यह गंभीर विचारणीय विषय है, क्यों कि संयुक्त परिवार के टूटने, एकल परिवार के बढ़ते जाने, पैसे के प्रति अतिशय आसक्ति जैसे कारणों से हमारे आपसी संबंधों में जो गिरावट और कड़वाहट आई है, उसके कई  दुष्परिणामों  से उन्हें भी रूबरू होना पड़ता है. अतः उनके लिए इसकी अहमियत को ठीक से जानना-समझना और उसे जीवन में उतारना हर मायने में अत्यंत लाभकारी सिद्ध होता है. दूसरे शब्दों में सभी विद्यार्थियों के लिए सकारात्मक तौर पर रिश्ते बनाने और उसे अच्छी तरह निभाने की कला में पारंगत होना शिक्षा को सार्थक करना है.


विद्यार्थीगण अपने घर में रिश्तों के बारे में जानना शुरू करते हैं. बचपन से उन्हें यह शिक्षा स्वतः मिलती रहती है कि कैसे माता-पिता का सम्मान किया जाता है, कैसे सभी बड़े-बुजुर्गों का आदर-सत्कार किया जाता है, कैसे हमउम्र लोगों के साथ दोस्ती निभाई जाती है, कैसे अपने से छोटे उम्र के लोगों के प्रति अनुराग प्रदर्शित किया जाता है और तो और अनजाने लोगों व जीव-जंतुओं के साथ भी कैसे पेश आया जाता है. जैसा वे देखते हैं, उनका मानस वैसा  ही तैयार होता जाता है. यही बड़ा कारण है कि हर विद्यार्थी का व्यवहार एक ही सिचुएशन में भिन्न होता है. कोई तो साधारण सी बात पर बहुत गुस्सा हो जाता है, अपशब्द कहता है और मारपीट तक करने लगता है, वहीँ  एक अन्य विद्यार्थी शांति से रियेक्ट करता है, बुद्धिमानी से और हंसकर मामले को रफादफा करता है और अनजाने स्थान पर अनजाने लोगों से प्रेम का रिश्ता कायम कर लेता है. सोच कर देखें तो इन दो विद्यार्थियों के व्यवहार के पीछे सामान्यतः संबंधों से संबंधित उनकी सीख ही रिफ्लेक्ट होती है. हां, अनेक मामलों में समझदारी में उन्नति के साथ रिश्तों की अहमियत समझ में आने लगती है.
रोचक बात है कि स्थायी और मजबूत रिश्ते  पैसे, प्रलोभन, डर-आतंक, झूठ-फरेब, शॉर्टकट आदि के जरिए कायम नहीं रह सकते हैं. इसकी बुनियाद तो सच्चाई-अच्छाई, म्यूच्यूअल अंडरस्टैंडिंग, ट्रस्ट, रेस्पेक्ट और भाईचारे की भावना होती है. 


रिश्ते बनाना और निभाना एक बड़ा लीडरशिप क्वालिटी माना जाता है. अलग-अलग बैकग्राउंड से आए विभिन्न लोगों की छोटी या बड़ी टीम को कप्तान के रूप में एकजुट रखकर एक कॉमन गोल को हासिल करने का काम वाकई चुनौतीपूर्ण और रोमांचक होता है. तभी तो  देश-विदेश के मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में रिलेशनशिप मैनेजमेंट की पढ़ाई होती है; प्रोफेशन, हेल्थ एंड हैप्पीनेस में इस लाइफ स्किल की भूमिका के विषय में विस्तार से चर्चा होती है. कॉरपोरेट सेक्टर के साथ-साथ सरकारी विभागों में भी कर्मियों को इसके बहुआयामी पॉजिटिव रिजल्ट के बारे में बताया जाता है.
कहने की जरुरत नहीं कि राजनीति से लेकर कूटनीति तक अच्छे संबंध कायम करने, निभाने और उसके माध्यम से बड़ी-से-बड़ी समस्या का समाधान निकालने और देश को विकास पथ पर तेजी से आगे ले जाने में दक्ष हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. 

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            और भी बातें करेंगे, चलते-चलते. असीम शुभकामनाएं.               
# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" में 06.09.2020 को प्रकाशित
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Monday, October 26, 2020

आजादी का सही मतलब

                                - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

सभी देशवासी आजादी की 73वीं वर्षगांठ मना रहे हैं.  युवाबहुल हमारे देश में यह एक ख़ास अवसर होता है, जब आजादी के सही मतलब और उसकी सार्थकता पर विचार-विमर्श का दौर भी चल पड़ता है. ऐसे देश के कुछ कॉलेज - यूनिवर्सिटी में यह सालोंभर बहस का बड़ा विषय होता है. वहां के अनेक विद्यार्थी इस बहस में अपना बड़ा समय व्यतीत करते हैं, फिर भी आजादी के सही अर्थ को समझने में सफल नहीं हो पाते हैं. उनमें से कई विद्यार्थी तो स्वार्थी तत्वों द्वारा निर्मित अंतहीन वाद-विवाद के चक्रव्यूह में भी फंस जाते हैं. जीवन के प्राइम टाइम को वे जाने-अनजाने यूँ ही गंवा देते हैं, जिसका नुकसान उनके साथ-साथ उनके परिवार-समाज को भी उठाना पड़ता है.
ब्रिटिश इतिहासकार, समाज सुधारक और उपन्यासकार चार्ल्स किंग्सले कहते हैं कि "संसार में बस दो तरीके की आजादी है – एक झूठी जिसमें व्यक्ति वह करने के लिए स्वतंत्र है, जो वह चाहता है और दूसरी सच्ची जिसमें व्यक्ति वह करने के लिए स्वतंत्र है, जो उसे करना चाहिए." चाहने और  चाहिए के बीच के महत्वपूर्ण अंतर को समझना सभी विद्यार्थियों के लिए निहायत जरुरी है.  


दरअसल, छात्र जीवन हर विद्यार्थी को यह जानने-समझने का स्वर्णिम अवसर देता है कि आजादी का सही मतलब क्या है.
ज्ञानीजन कहते हैं कि अज्ञानता, रूढ़िवादिता, गुलामी, अन्याय, आडम्बर आदि से निकलने के फायदों को जानना और उससे आजाद होने के उपाय तलाशने में दक्ष होना सभी छात्र-छात्राओं के लिए शिक्षित होने के साथ-साथ आजाद होने का वास्तविक प्रमाणपत्र है. स्वामी विवेकानंद सहित कई महान लोगों ने स्पष्ट रूप से यह बात कही है कि सिर्फ कुछ  डिग्रियां  प्राप्त  करने, अच्छा कपड़ा पहनने  या अच्छा भाषण देने से ही किसी को शिक्षित नहीं कहा जा सकता. वास्तव में शिक्षा विद्यार्थियों को जीवन संग्राम में समर्थ बनाती है, उनमें चारित्रिक शक्ति और परहित की भावना विकसित करती है. मतलब, जो कुछ बुरा है उससे आजादी. 


व्यक्ति की आजादी का सबसे सरल अर्थ लोग यह लगाते हैं कि वह जो करना चाहते हैं, उसे कर सकें. विद्यार्थियों को फोकस में रखकर बात करें तो इसमें मुख्यतः  पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने, घूमने-फिरने, खाने-पीने, बोलने-सुनने की आजादी जैसी बातें शामिल है. ख़ुशी की बात है कि भारत के संविधान के अनुसार चलनेवाले हमारे लोकतंत्र में छात्र-छात्राओं को यह आजादी  उपलब्ध है. लेकिन क्या आजादी के नाम पर  कई विद्यार्थियों का कई प्रकार के अवांछित और गैर-कानूनी कार्यों में लिप्त रहने को सही माना जा सकता है?  बहरहाल, आजादी के पक्षधर सभी विद्यार्थियों के लिए इस समय सबसे जरुरी है ज्ञान अर्जन करना, अपनी समझदारी विकसित करना और अपनी शारीरिक-मानसिक कमजोरी से आजाद होना. हां, इसके लिए उन्हें
नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक और दार्शनिक अल्बर्ट कामू के इस बात को हमेशा याद रखना पड़ेगा कि "आजादी और कुछ नहीं, बस बेहतर होने का एक अवसर है." कहने का तात्पर्य यह कि हर विद्यार्थी आजादी को एक ऐसे औजार के रूप में उपयोग करे जिससे कि वे अज्ञानता, बुराई और कमजोरी के अंधकार से निकलकर प्रकाशवान व्यक्तित्व का मालिक बन सके. इसके लिए उन्हें संकल्प से सिद्धि के मार्ग पर चलते रहना पड़ेगा; हर मौके का भरपूर उपयोग करना पड़ेगा; एक-एक पल का सदुपयोग सुनिश्चित करना पड़ेगा और  बातों का बादशाह बनने के बजाय कर्मयोगी बनना पड़ेगा. इसके अनेकानेक लाभ हैं. 


देश की स्वतंत्रता के सात दशक गुजर जाने और विकास पथ पर आगे बढ़ते रहने के बावजूद हमारा  देश अब भी रोटी, कपड़ा और मकान के सबसे बुनियादी आवश्यकताओं से आजाद नहीं हो पाया है. शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोजगारी जैसे अन्य बुनियादी मसले भी सामने हैं. समाज की इन समस्याओं का हल निकालने में शिक्षित युवाओं के आगे आकर सार्थक प्रयास करने की अपेक्षा उनके घरवालों के साथ-साथ समाज और सरकार को भी है.
देश की सीमाओं पर भी तनाव है. बाढ़ जैसी आपदा के साथ-साथ कोरोना महामारी से निबटना भी कम बड़ी चुनौती नहीं है. ऐसे अनेक तात्कालिक और दीर्घकालिक समस्याओं से खुद को, समाज को और देश को आजाद करने का सतत प्रयास करना ही आजादी को सार्थक करना है. दक्षिण अफ्रीका के महान स्वतंत्रता सेनानी और नोबेल पुरस्कार विजेता भारत रत्न नेल्सन मंडेला इसे इन शब्दों में व्यक्त करते है : "आजाद  होना सिर्फ अपनी जंजीरों को उतार देना नहीं होता, बल्कि इस तरह से जीवन जीना होता है कि दूसरों के  सम्मान और स्वतंत्रता में वृद्धि हो."

 (hellomilansinha@gmail.com)      

      
                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 
# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 30.08.2020 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, October 20, 2020

सोचने और करने में रहे संतुलन

                          - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

बचपन से लेकर बुढ़ापे तक सोचने का सिलसिला चलता रहता है. दिनभर में हजारों बातें हर विद्यार्थी के दिमाग में आती हैं और अधिकांश बाहर निकल भी जाती है. हां, छात्र जीवन में  अध्ययन, कोर्स, रिजल्ट, खेलकूद, खानपान, साथी, घर-परिवार, मनोरंजन जैसी कुछ बातों पर सभी प्रायः रोज सोचते है. यह सामान्य बात है. सोचना मानव स्वभाव है. दिलचस्प बात है कि सोचने और करने के बीच गहरा रिश्ता होता है जो हमारे कार्यकलाप और उसके परिणाम में साफ़ परिलक्षित होता है. इसके असंख्य उदाहरण हमारे आसपास अनायास ही मिल जायेंगे.
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि "हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो  कि तुम  क्या सोचते हो. जो तुम सोचते हो वो हो जाओगे. यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे." 


दरअसल, सोचना और करना दोनों बहुत अहम है. इस  मामले में विद्यार्थियों को मोटे तौर पर तीन केटेगरी में रखकर इस चर्चा को आगे बढ़ाना बेहतर होगा. पहले केटेगरी  में वे विद्यार्थी आते हैं जो सोचने में बहुत समय गुजारते हैं. उनके रूटीन में सोचना और सोचते रहना एक बड़ा काम होता है. मसलन अगर केमिस्ट्री की एक किताब खरीदनी है जो उनके लिए बिलकुल जरुरी है, तो अब किस राइटर की या किस पब्लिकेशन की किताब कहां से खरीदें,  ऑनलाइन या ऑफलाइन खरीदें, ऑफलाइन खरीदना हो तो उसके लिए कब और कहां जाएं, ऑनलाइन हो तो कैसे मंगवाएं आदि न जाने कितनी बातों पर सोचते हैं और कन्फ्यूज्ड होकर उस विषय को  वहीँ  छोड़कर फिर किसी दूसरे विषय पर सोचने लगते हैं. सोचने का यह क्रम कई बार कई दिनों तक चलता है, फिर भी वह फैसला नहीं कर पाते हैं. इस श्रेणी के विद्यार्थी ईगो या हीन भावना के कारण दूसरे से सलाह नहीं लेते हैं या अगर किसी कारणवश सलाह लेने के लिए जाते हैं तो इस क्रम में साथी-सहपाठी को भी अपनी सलाह और सोच से परेशान और कंफ्यूज कर देते हैं.
दरअसल, ऐसे विद्यार्थी सोचने में अपना ज्यादातर समय व्यय कर देते हैं. लिहाजा, जो काम करना है उसे नहीं कर पाते हैं. ज्ञानीजन सही कहते हैं कि जब सोच को कार्यान्वित नहीं करेंगे तो परिणाम शून्य ही होगा. 


दूसरे केटेगरी में वैसे विद्यार्थी हैं जो किसी भी विषय में खुद बहुत कम सोचते हैं. वे या तो बिना ज्यादा सोचे कोई भी फैसला कर लेते हैं या किसी दूसरे की सलाह को आंख बंद कर अपना लेते हैं. माना जाता है कि ऐसे विद्यार्थी हड़बड़ी में रहते हैं और किसी भी तरह अपना काम निबटाने की कोशिश करते हैं. काम के क्वालिटी से उंनका खास लेना-देना नहीं रहता. वे केमिस्ट्री की वही किताब जो पहले श्रेणी के विद्यार्थी सोच-सोच कर भी नहीं खरीद पाए, उसे  एक दिन में कहीं से भी किसी भी मूल्य में खरीद कर ले आते हैं. वह किताब उनके लिए वाकई उपयुक्त और उपयोगी है या नहीं, इसके विषय में भी वे  नहीं सोचते. नतीजतन, उसे एक-दो घंटे उलट-पुलट कर रख देते हैं और फिर हड़बड़ी में किसी दूसरे विषय पर जम्प कर जाते हैं.
सोचने और करने में  कुछ सही नहीं होता है. हां, धीरे-धीरे  सब कुछ  इसी तरह जैसे-तैसे निबटाने की उनकी एक आदत जरुर बन जाती है. परिणामस्वरूप, बराबर औसत या बुरे परिणाम के भागी बनते हैं.  


तीसरे केटेगरी के विद्यार्थी वे होते हैं जो हर विषय पर यथाबुद्धि सोच-विचार करते हैं. जरुरी होने पर अपने अभिभावक, शिक्षक या किसी जानकार व्यक्ति से सलाह लेते हैं या परामर्श करते हैं. इस प्रक्रिया में वे अनावश्यक समय नहीं लगाते. निर्णय  वे खुद ही लेते हैं और उसकी जिम्मेदारी  भी. निर्णय हो जाने पर उसे फिर  बढ़िया से कार्यान्वित करते हैं.
वे स्वामी विवेकानंद के ऊपर बताए गए विचार को मानते हुए उनकी इस बात को भी गंभीरता से अमल में लाने की कोशिश करते हैं कि "एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ." कहने का अर्थ यह कि वे अच्छा सोचने और अच्छा करने पर पूरा फोकस करते हैं. किताब खरीदने को ही यदि  उदाहरण के रूप में लें तो इस श्रेणी के विद्यार्थी अच्छी तरह सोचकर सबसे उपयुक्त किताब, सबसे वाजिब मूल्य पर जहां से भी सबसे जल्दी प्राप्त हो सके, इसका पता लगाकर उसे हासिल करते हैं. फिर उस विषय की अपनी पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने का काम करते हैं. निसंदेह, ऐसे सभी विद्यार्थी सोचने और करने में बेहतर संतुलन बनाकर चलते हैं और जीवन में बराबर अच्छे परिणाम हासिल करते हैं. शिक्षा का मूल उद्देश्य भी तो यही है. 

  (hellomilansinha@gmail.com) 


            और भी बातें करेंगे, चलते-चलते. असीम शुभकामनाएं.               
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Thursday, October 15, 2020

गहरे हैं नींद और इम्युनिटी के रिश्ते

                                       - मिलन  सिन्हा, स्ट्रेस मैनेजमेंट एंड वेलनेस कंसलटेंट ... ...

कोविड महामारी के मौजूदा दौर में अपने इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाए रखना कितना आवश्यक है, यह सब हम लोग जानते हैं. अपर्याप्त नींद या अनिद्रा के कारण हम शारीरिक थकान और मानसिक तनाव से ग्रस्त होते हैं. इसका बुरा असर हमारे मेटाबोलिज्म पर पड़ता है और धीरे-धीरे हमारा इम्यून सिस्टम कमजोर होने लगता है. इसका दुष्प्रभाव बहुआयामी है. 


नींद और इम्युनिटी के रिश्ते काफी गहरे हैं, जिन्हें जानना-समझना दिलचस्प है और ज्ञानवर्धक भी. तो आइए जानते हैं. हां, नींद का मतलब अच्छी नींद.


1) नींद के कारण हमारे शरीर में
व्हाइट ब्लड सेल्स (डब्लू बी सी)  नामक शरीर की प्रतिरक्षा सेना मजबूत होती है. यह डब्लू बी सी का रीजेनरेशन टाइम होता है. कहने का अर्थ यह कि इससे हमारा इम्यून सिस्टम स्ट्रांग होता है और परिणाम स्वरुप हमें किसी भी तरह के संक्रमण से बचाने में यह सेल्स अहम भूमिका निभाते हैं. 


2) नींद के दौरान
साइटोकिन्स नामक एक विशेष प्रोटीन का स्राव होता है, जिसमें खास प्रकार  के टी- सेल्स पाए जाते हैं, जो हमारे इम्यून सिस्टम के लिए बहुत अहम है. ये टी -सेल्स  शरीर में मौजूद किसी भी संक्रमित कोशिका पर आक्रमण कर उन्हें ख़त्म कर देती है. मतलब साफ़ है कि यदि हम अच्छी नींद लेते हैं तो इम्युनिटी सैनिक अच्छी संख्या में पैदा होंगे, जिससे शरीर को वायरस आदि के संक्रमण से बचाना आसान होगा.


 3) नींद के कारण हमारे शरीर में
मेलाटोनिन नामक हॉर्मोन का स्राव बढ़ता है. मेलाटोनिन बायोलॉजिकल क्लॉक को दुरुस्त रखता है. यह हार्मोन अपने एंटीऑक्सिडेंट क्वालिटी के लिए  भी प्रसिद्ध है. एंटीऑक्सीडेंट हमारे शरीर की कोशिकाओं को मजबूत और स्फूर्तिवान बनाए रखता है. इससे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है. इससे शरीर सक्रिय और स्वस्थ रहता है. विशेषज्ञों के अनुसार  मेलाटोनिन  का अधिकांश स्राव नींद के दौरान ही होता है. रोचक बात है कि अनियमित नींद या कम नींद से इस हॉर्मोन का स्राव दुष्प्रभावित होता है.


4) नींद हमारे स्ट्रेस को कम करता है और हमारे लिए
मूड-बूस्टर का काम भी करता है. इससे हमारा मानसिक और भावनात्मक संतुलन बेहतर बना रहता है. हम बेहतर फील करते है. फील गुड और फील हैप्पी हॉर्मोन स्रावित होते हैं. सबका समेकित असर इम्यून सिस्टम को स्ट्रांग बनाता है.


5) नींद
कोशिकाओं के पुनर्निर्माण में मदद करती है. अच्छी नींद के कारण हमारे सारे ऑर्गन अच्छे ढंग से काम करते हैं. उनकी रेसेटिंग और रिपेयरिंग अच्छे से हो जाती है. ब्रेन को जरुरी ब्रेक और रेस्ट मिल जाता है. इसका पॉजिटिव असर मेटाबोलिज्म पर पड़ता है और अंततः हमारे इम्यून सिस्टम पर. 

 (hellomilansinha@gmail.com) 


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# प्रभात खबर हेल्दी लाइफ में 26.08.2020 को प्रकाशित
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Tuesday, October 13, 2020

कोशिश में कमी न हो कभी

                    - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

जीवन जीने का बेहतरीन अंदाज गिरने या असफल होने में नहीं, बल्कि हर बार ज्यादा जोश से फिर कोशिश करने में होती है, ऐसा हर क्षेत्र के लगभग सभी उत्कृष्ट व्यक्तियों ने अपने-अपने तरीके से कहा है. यह बिलकुल सत्य बात है.
कोशिश करते रहने का कोई और विकल्प नहीं है. अगर कोशिश करना ही छोड़ देंगे या कोशिश में कमी कर देंगे तो अपनी असफलता की कहानी तो हम खुद ही लिखेंगे. इम्तिहान से पहले ही उसका अंजाम जान लेंगे. है न? चींटी और मधुमक्खी जैसे छोटे जीवों की कोशिश के प्रति जुनून को अगर गौर से नहीं देखा है तो एक बार जरुर देखें. अपने काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और तमाम असफलताओं  के बाद भी अपने लक्ष्य की ओर चलते रहने की चेष्टा बहुत ही प्रेरणादायक है. चीटियों के कार्यकलाप से तो एकाधिक राजाओं के प्रेरणा लेने, फिर से उठ खड़े होने और बेहतर कोशिश करके रणक्षेत्र में विजयी होने की कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज है. मधुमक्खियों के जीवन से प्रेरणा लेने की भी अनेक कथाएं हैं. 

छात्र-छात्राएं अपने आसपास नजर दौड़ाएंगे तो पायेंगे कि उनके कई सहपाठी-साथी ऐसे हैं जिन्हें पिछले वर्षों में बराबर अच्छी सफलता मिली थी, पर अपनी कोशिशों में कमी के कारण अब उन्हें वैसी सफलता नहीं मिल रही है. इसके विपरीत कुछ दूसरे विद्यार्थी हैं, जो पहले औसत माने जाते थे, पर अब रैंकिंग में लगातार आगे चल रहे हैं, क्यों कि वे किसी से तुलना किए बगैर बस अपने प्रयास को लगातार बेहतर करते रहे. कहते हैं न कि एक्सीलेंस इज ए जर्नी, नॉट दि डेस्टिनेशन अर्थात खुद को बेहतर करते रहना एक यात्रा है, न कि कोई मंजिल. कहने का अभिप्राय यह कि छात्र-छात्राएं पढ़ने-लिखने-सीखने के मामले में अपने प्रयासों को बढ़ाते जाएं. छोटे-बड़े किसी भी असफलता से हताश-निराश हो कर हथियार न डाल दें, बल्कि दोगुने उत्साह से फिर से अपने काम में लग जाएं. महान आविष्कारक थॉमस अल्वा एडिसन कहते हैं कि "हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हार मान लेने में है. सफल होने का सबसे सटीक तरीका है हमेशा एक बार और कोशिश करना." 

आगे बढ़ने से पहले उस महान व्यक्ति के विषय में जानते चलें जिन्होंने अमेरिका में दास प्रथा का अंत किया और गृह युद्ध को समाप्त किया. हां, उनका नाम अब्राहम लिंकन है.

लिंकन 1861 में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हुए. वे अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्र प्रमुख बने. अपनी कोशिशों के बलबूते हार को हरा कर देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने और अमेरिका के सबसे लोकप्रिय और प्रभावी राष्ट्रपति के रूप में मशहूर होने से पहले उनकी कोशिशों और असफलताओं की जो जुगलबंदी थी, वह सभी विद्यार्थियों के लिए आज भी प्रेरणा का विषय है. लिंकन जब नौ साल के थे, उसी समय उनकी मां का देहांत हो गया. उनका  बचपन काफी गरीबी में गुजरा. उस दौरान उन्होंने  अनेक छोटे-मोटे काम किए, लेकिन पढ़ने के प्रति उनकी रूचि कभी कम नहीं हुई. उन्होंने वकालत को अपना पेशा बनाया. 23 साल की उम्र  में उनका राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ और एक के बाद दूसरी हार का सिलसिला भी. लेकिन उन्होंने कभी अपनी कोशिश में कमी नहीं आने दी और हर हार के बाद ज्यादा बड़े निश्चय के साथ फिर प्रयास किया. इस बीच वे सीनेट एवं उप-राष्ट्रपति का चुनाव भी हारे. असफलता का यह  सिलसिला उनके 54 वें साल में राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने के साथ ख़त्म हुआ. अब्राहम लिंकन बराबर कहते थे कि इस बात का हमेशा ख्याल रखें कि सिर्फ आपका सतत प्रयास और दृढ़ निश्चय ही आपकी सफलता के लिए मायने रखता है, बाकी कोई और चीज नहीं. 

कोरोना लॉकडाउन के समय करीब 1200 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए ज्योति  नाम की जो  किशोरी अपने अनथक प्रयास से अपने बीमार पिता को एक साइकिल पर बिठाकर हरियाणा के गुरुग्राम से बिहार के दरभंगा ले आई, उसके विषय में जानकर आपको भी जरुर अच्छा लगा होगा. बिहार के गया जिले के दशरथ मांझी के नाम से भी विद्यार्थीगण अपरिचित नहीं हैं. उन्हें  देश-विदेश में लोग अब "माउंटेन मैन" के नाम से जानते हैं. मात्र एक छेनी-हथोड़ी के सहारे  करीब 22 साल के कठिन प्रयास से उन्होंने एक बड़े पहाड़ को काट कर करीब 30 फीट चौड़ी सड़क बना दी, जिससे उस इलाके के आम लोगों को अनेक लाभ मिला. निसंदेह,  बिलकुल असंभव-सा  प्रतीत होनेवाले कार्य को संभव करके दशरथ मांझी जैसे लोग यह साबित करते रहे हैं कि कोशिश करनेवालों की  कभी हार नहीं होती. जीवन में बड़ी जीत के भी वही हकदार होते हैं.

 (hellomilansinha@gmail.com)  

      
                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 
# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 09.08.2020 अंक में प्रकाशित
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Tuesday, October 6, 2020

कभी हंसना न छोड़ें

                     - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

मेरा मानना है कि हंसना-मुस्कुराना बड़े-छोटे भाई के समान होता है. दोनों ख़ुशी नामक परिवार के अहम सदस्य हैं. अतः आगे की चर्चा में हंसना-मुस्कुराना दोनों के लिए एक शब्द हंसना का प्रयोग करेंगे. खैर, जीवन में हंसना कौन नहीं चाहता, फिर भी सर्वे बताते हैं कि हम दिन भर में बहुत कम हंसते हैं. छात्र-छात्राएं खुद अपने जीवन में झांक कर देख लें कि दिनभर में वे औसतन कितनी बार हंसते हैं. विद्यार्थी जीवन जानने, सीखने, समझने और अपना रास्ता बनाने का महत्वपूर्ण समय होता है. इसमें हंसी एक बहुत कारगर औजार साबित होता है, जिससे कठिन से कठिन रास्ता भी आसान लगने लगता है. अपने परिजनों-मित्रों के साथ मिलकर हंसी के क्षणों  को जीना सबसे सुखद अनुभव होता है. साथ ही दूसरों पर हंसने के बजाय अपनी गलतियों और कमियों पर हंसना किसी भी विद्यार्थी के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है.
महान दार्शनिक और राजनेता बेंजामिन फ्रैंकलिन कहते हैं, "अगर आप चाहते हैं कि लोग आप पर हंसे नहीं तो खुद पर हंसने वाला पहला व्यक्ति बनिए." विचारणीय बात है कि कितने विद्यार्थी खुद की गलतियों पर पहले हंसते हैं और वैसी गलती फिर नहीं करते कि फिर हंसना और इस बार दुखी होने या लज्जित होने की जरुरत पड़े? 


ज्ञानीजन कहते हैं कि जब तक जीवन है, तभी तक चुनौती व संघर्ष है. जीवन समाप्त, चुनौती व संघर्ष भी समाप्त. सच्चाई तो यह भी है कि जो कर्मयोगी होता है, उसी पर यह बात शब्दशः लागू होती है कि रोते हुए तो सभी आते हैं इस दुनिया में, लेकिन जो हंसते हुए  जीवन जी पायेगा, वही तो सचमुच विजेता माना जाएगा. अपने क्लास या स्कूल-कॉलेज में सबकी इच्छा होती है कि वह सबसे आगे रहे, उसे लोग विजेता के रूप में जाने. लेकिन विजेता के इस संस्कार को कि हर चुनौती को हंसकर स्वीकार करो और पूरी शिद्दत से अपने काम को अंजाम दो, कितने विद्यार्थी अपना संस्कार बना पाते हैं?
गौर करनेवाली बात है कि ख़ुशी और हंसी के बीच एक गहरा रिश्ता है. खुश होते हैं तो हंसते हैं अर्थात हंसते हैं तो ख़ुशी झलकती है. हां, कई बार यह ख़ुशी और हंसी व्यक्ति के भीतर चलती रहती है और साधारणतः दूसरे लोगों को पता नहीं चलता. दिनभर में अगर कोई इस अवस्था में अधिक समय तक रहता है, इसका मतलब वह निर्मल आनंद की अनुभूति कर रहा है. मुझे विश्वास है कि सभी विद्यार्थियों ने कभी-न-कभी इसकी अनुभूति की है.  

 
सब जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश से पूरा संसार प्रकाशित होता है. दुनिया को अंधकार से मुक्त करने लिए सूर्य को निरंतर जलना पड़ता है, फिर भी वे बिना छुट्टी लिए हंसी-ख़ुशी साल-दर-साल पूरे ब्रह्माण्ड को उजाले और ऊर्जा से लाभान्वित करते रहते हैं. इस विचारणीय तथ्य पर विद्यार्थीगण  ध्यान दें तो उन्हें और समाज को बहुत लाभ होगा.
अंग्रेजी उपन्यासकार विलियम मेकपीस  थैकरे ने बहुत अच्छी बात कही है कि एक अच्छी हंसी घर में सूरज की रौशनी के समान है. सोचनेवाली बात है कि घर कितना भी बड़ा और कीमती हो, उसमें  प्रकाश न रहे तो वह भूतबंगला लगता है, डरावना लगता है और वह रहने योग्य नहीं रहता. लेकिन वही घर अगर प्रकाश से भरा हो तो फिर बात ही कुछ और होती है. प्रत्येक विद्यार्थी के व्यक्तित्व के साथ यह बात लागू होती है. 


हेल्थ की दृष्टि से हंसी को देखें-परखें तो बहुत सारी रोचक और जानने योग्य बातें सामने आती हैं.
जाने-माने ब्रिटिश कवि लार्ड बायरन कहते हैं कि 'जब भी हंस सको हंसो. यह एक सस्ती दवा है.' सचमुच हंसी अनेक मर्जों की दवा है, जो मुख्यतः आपकी मर्जी से आपके शरीर रूपी फैक्ट्री में उत्पादित होता है. लिहाजा, विद्यार्थियों को हंसने का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए, खासकर साथ मिलकर हंसने का. इससे वे चिंता, तनाव आदि से भी मुक्त रह पायेंगे. दरअसल, हंसी के कारण हमारे शरीर में एंडोर्फिन एवं सेरोटोनिन नामक होरमोंस का स्राव होता है, जिससे हम अच्छा फील करते हैं. इस फीलिंग के कारण हमारे अंदर रोग प्रतिरक्षक क्षमता मजबूत होती है. इतना ही नहीं, हमारे अंदर उर्जा और उत्साह का अतिरिक्त संचार होता है, जिससे हम बेहतर तरीके से कार्य संपादित कर पाते हैं. चुनौतियों से भरे छात्र जीवन में जब खुद को मानसिक और शारीरिक रूप से बहुत फिट एंड फाइन रखना पड़ता है, हंसी की महत्ता और बढ़ जाती है. विश्व विख्यात हास्य अभिनेता चार्ली चैप्लिन का तो यहां तक कहना है कि “हंसी के बिना बिताया  हुआ दिन बर्बाद किया हुआ दिन है.”  रबीन्द्रनाथ ठाकुर और अब्राहम लिंकन सहित संसार के अनेक महान लोगों ने हंसी की महत्ता पर अपने विचार खुलकर व्यक्त किए हैं. 

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                       और भी बातें करेंगे, चलते-चलते. असीम शुभकामनाएं. 
#  लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" में 02.08.20 को प्रकाशित

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