Sunday, December 28, 2014

मोटिवेशन : सीखने का संकल्प

                                                     - मिलन सिन्हा 
clipसीखने की न तो  कोई उम्र होती है और न ही इसका कोई समय। सीखना एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। और इसके फायदे भी अनेक हैं।  'लर्न मोर टू अर्न मोर' वाली प्रबंधनीय उक्ति आपने भी सुनी होगी। अपने भविष्य को सजाने, संवारने और सुखमय बनाने को उद्दत अनेक विद्यार्थी इस सिद्धांत पर चलते हुए एक साथ एकाधिक कोर्स पूरा करने में लगे रहते हैं। जैसे घड़ी की सुई और  समुद्र की लहरें किसी का इंतजार नहीं करती हैं  और अपने काम में लगी रहती हैं, वैसे ही सीखने को आतुर लोग हर पल का  सदुपयोग करने में लगे रहते हैं । कहते हैं चीन के महान नेता माओ-से-तुंग  ने सत्तर साल की उम्र में अंग्रेजी भाषा सीखना प्रारम्भ किया। विश्व की सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय चित्र के रूप में 'मोनालिसा' का नाम लिया जाता है जिसे प्रख्यात चित्रकार लियोनार्दो दि विंची ने बनाया था। इटली के फ्लोरेंस शहर में जन्मे इस विलक्षण व्यक्ति ने अपनी सीखने की  ललक के कारण चित्रकला के अलावे मूर्तिकला, गणित, सैन्य विज्ञान, संगीत आदि में भी महारत हासिल की। इतिहासकार  कहते हैं कि चित्रकला और मूर्तिकला में निपुणता अर्जित करने  लिए वे इस कदर मशरूफ थे कि उन्होंने  शरीर विज्ञान तक का गहन  अध्ययन किया। कहां संगीत, कहां गणित और कहां चित्रकला-मूर्तिकला, लेकिन लियोनार्दो ने हर क्षेत्र में गहरी पैठ बनाई और यह साबित कर दिया कि सीखने का संकल्प हो तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर  में भी सीखने की अद्भुत उत्कंठा थी जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने साहित्य के लगभग सभी विधाओं- कविता, कहानी, नाटक, गीत आदि  में  बहुत लिखा और बहुत उत्कृष्ट लिखा। उनके गीत संग्रह 'गीतांजलि'  के लिए उन्हें 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार  से सम्मानित किया गया था। गुरुदेव पहले भारतीय थे जिन्हें इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया। तो आइये, हम सब नववर्ष 2015 का स्वागत कुछ नया और अच्छा सीखने के संकल्प के साथ करें।

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

Sunday, December 21, 2014

मोटिवेशन : हम सभी अपनी जीवनशैली सुधारें

                                                                                           - मिलन सिन्हा 
clipदेश की आबादी निरन्तर बढ़ रही है और साथ ही लोगों की स्वास्थ्य सम्बन्धी जरूरतें और समस्याएं। सरकारें व संबंधित एजेंसियां अपना -अपना काम अपने ढंग व रफ़्तार से करने में जुटीं हैं, तथापि रोगों की संख्या और उससे पीड़ित लोगों की तादाद में इजाफा हो रहा है, जो सबके लिये गंभीर चिंता का विषय है। क्या देश की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था इस समस्या से प्रभावी रूप से निबट सकती है ? 

देश के जिन करोड़ों लोगों को अभी तक रोटी, कपड़ा, मकान जैसे मूलभूत आवश्यकताओं से जूझना पड़ रहा है, उनकी चर्चा यहाँ  न भी करें  तो भी यह जानना दिलचस्प होगा कि  जिन लोगों के पास खाने, पहनने और रहने की कोई समस्या नहीं है, ऐसे लोग भी कैसी -कैसी  बिमारियों के शिकार हैं और इनकी  संख्या बढ़ती जा रही है। 

ऐसे लोग खाने -पीने के मामले में सुबह से रात तक कितने -कितने और कैसे -कैसे अच्छे -बुरे विज्ञापन देखते रहते हैं और बिना ज्यादा सोचे -समझे विज्ञापित चीजों का सेवन करके अपना स्वास्थ्य खराब करते रहते हैं। अगर इन लोगों से  कुछ आसान से सवाल पूछे जायें  तो कितने लोग संतोषप्रद उत्तर दे पायेंगे। सवाल हैं : क्या आप जानते हैं कि 1) कब, कैसे और कितना पानी पीना चाहिए  2) कब, कितना और क्या -क्या खाना चाहिए 3) स्वस्थ जीवन के लिये टहलना व व्यायाम क्यों अनिवार्य है  4) सोना (स्लीप) सोना (गोल्ड) से ज्यादा अहम क्यों है और 5) योग और ध्यान का जीवन में कितना महत्व है ? सच मानिये, यदि उपर्युक्त सवालों का सही जवाब नहीं मालूम है तो अपने स्वास्थ्य को अच्छा  बनाये रखना मुश्किल होगा। कहने का तात्पर्य, आपके लिये अपनी जीवनशैली में उपयुक्त बदलाव अनिवार्य  है जिससे कि आप सदैव स्वस्थ एवं सानन्द रह सकें। 

आशा करनी चाहिए कि हर वक्त काम और व्यस्तता की दुहाई देने वाले हमारे समाज के ऐसे जानकार तथा संपन्न लोग, जिनमें अच्छी संख्या डॉक्टरों की भी है, आगे से यह नहीं भूलेंगे कि ज्ञान और धन का सदुपयोग स्वास्थ्य को साधने में करना सदा ही सुखद और फलदायक होता है। यह हमारी युवा पीढ़ी के लिये उनका एक प्रेरक सन्देश होगा।
                                                                                     (hellomilansinha@gmail.com)
                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

Saturday, December 13, 2014

मोटिवेशन : वादा का दावा

                                                     - मिलन सिन्हा 
clip'जो वादा किया है, निभाना पड़ेगा; प्राण जाये, पर वचन न जाये ' - ऐसे जुमलों से हम दो-चार  होते रहे हैं और किसी -न -किसी रूप में ये हमारे मानवीय संस्कारों के साथ घुलमिल गए हैं। यही कारण है कि वादाखिलाफी हमें पसंद नहीं, यह हमें बुरी लगती है। लगे भी क्यों नहीं। वादा एक प्रकार का अलिखित आपसी अनुबंध है, जिसे पूरा करना कानूनन आवश्यक न भी हो, तथापि नैतिक रूप से अनिवार्य होता है । कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि वादा  करना, उसे निभाने का दावा करना और फिर खुद ही उस वादे के दावे की हवा निकाल देना, भारतीय राजनीति के चरित्र का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है, जो निश्चय ही गांधी, तिलक, सुभाष जैसे लोगों की राजनीति से बिल्कुल अलग है। ऐसे, अब तो वादाखिलाफी समाज के हर क्षेत्र में किसी-न-किसी रूप में दिखने लगा है। बहरहाल, जानकार ख़ुशी होती है कि इस बदलते हुए राजनीतिक -सामजिक परिवेश में  अभी भी देश-विदेश के कई हिस्सों में व्यवसाय के साथ-साथ सामजिक जीवन में वादा निभाने की गौरवशाली परंपरा न केवल बरकरार व अप्रभावित है, बल्कि आधुनिकता एवं तेज रफ़्तार जिन्दगी के बावजूद सुदृढ़ हो रही  है । बिज़नेस मार्केटिंग में अनेकानेक अच्छी और बड़ी कंपनियां अब भी 'वादा कम, पूर्ति ज्यादा' यानि 'प्रॉमिस लेस, डिलीवर मोर' के सिद्धांत को सख्ती से अमल में लाते हैं। इससे ग्राहकों को अतिशय संतुष्टि मिलती है और अनायास ही कंपनी के उत्पादों के प्रति ग्राहकों का विश्वास अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है। और हम सब जानते हैं कि 'संतुष्ट ग्राहक चलता-फिरता विज्ञापन होता है '। मार्केट विशेषज्ञ सच ही कहते हैं कि  कंपनी के ब्रांड इमेज में निरन्तर मजबूती के पीछे ये अहम कारण होते हैं। इन सबका गहरा सकारात्मक असर बिज़नेस पर पड़ना लाजिमी है । तभी तो ऐसी कई कंपनियां साल-दर-साल  मार्केट में अच्छा प्रदर्शन के लिये जानी जाती हैं । जाहिर है, इसका बहुआयामी फायदा ऐसी कंपनियों के कर्मचारियों को भी मिलता है । 

                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं          

Tuesday, December 9, 2014

राजनीति: तू-तू , मैं-मैं से सियासी जंग का फैसला नहीं

                                                                                - मिलन सिन्हा 
loading...राजनीति में नेता बनना और अरसे तक बने रहना साधारण बात तो कतई नहीं है। इसके लिए आपको असाधारण एवं असामान्य प्रतिभाओं से लैस होना पड़ेगा, उसमें नयापन लाते रहना पड़ेगा और साथ ही उसे धारदार बनाये रखना पड़ेगा, बात -बेबात, समय -असमय आरोप -प्रत्यारोप के खेल में आप को पारंगत होना पड़ेगा  अन्यथा कम -से -कम बिहार के  राजनीतिक मंच के दिग्गज खिलाड़ी तो आप नहीं बन सकते और न ही माने जाएंगे। प्रदेश के वर्तमान राजनीतिक  सन्दर्भ में  किसी भी मुद्दे पर मीडिया में सत्ता पक्ष व विपक्ष के नेताओं के बीच ज्यादातर अनावश्यक आरोप -प्रत्यारोप से भरे बयानों को देखने -पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। यह बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश के लिए अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। बहुत पीछे जाने की जरुरत नहीं होगी। पिछले कुछेक हफ़्तों  का यहां का कोई अखबार उठा कर देख लीजिये। इतना ही नहीं,  विरोधियों पर आरोप -प्रत्यारोप के क्रम में जो शब्द इस्तेमाल किये जा रहे हैं, वे संसदीय मर्यादा एवं सामान्य शिष्टाचार के विपरीत हैं। एक तरफ  मुख्यमंत्री मांझी के बहाने पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश पर निशाना साधने की कोशिश होती है, तो दूसरी ओर सुशील मोदी के बहाने नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधा जाता है । 

राजनीति में सत्ता पक्ष व विपक्ष द्वारा एक दूसरे के जन विरोधी नीतियों, फैसलों व कार्यकर्मों की आलोचना करना, उनका विरोध करना, गलत करने का आरोप लगाना बिलकुल मुनासिब है और ऐसा न करना लोकतंत्र को कमजोर करना है।  लेकिन सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना बिलकुल नाजायज है।  और दुर्भाग्य वश बिहार की राजनीति में आजकल यह खूब हो रहा है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?  कहीं 'गर बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा ' वाली मानसिकता का प्रभाव तो नहीं बढ़ चला है, खासकर आसन्न विधानसभा चुनाव के मद्देनजर। 

कहते हैं, जब सत्य का साथ छूटता जाता है तथा जब तर्क चुकने  लगते हैं, तब झूठे वादों और तथ्यहीन दावों को चीख -चीख कर दोहराना मजबूरी हो जाती है। आंकड़ों का खेल भी चल पड़ता है। सच  तो यह है कि जब तक सार्वजनिक मंचों से झूठ को सच बताने का यह सिलसिला बंद नहीं  होगा, तब तक सकारात्मक राजनीति को  पुनर्स्थापित करना मुश्किल होगा

एक तरफ तो हमारे नेतागण  बार -बार कहते हैं कि जनता बहुत समझदार है , यह पब्लिक है सब जानती है, परन्तु वहीँ  इसके उलट सच को झूठ और झूठ को सच बताने और दिखाने की कोशिश करके क्या ये नेता आम लोगों को बेवकूफ समझने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं ? दिलचस्प बात यह भी है कि एक खास रणनीति के तहत ऐसे बयान बाजी के लिए   हाशिये पर पड़े नेताओं का इस्तेमाल किया जाता है जिससे किसी प्रतिकूल स्थिति में दल विशेष के बड़े नेताओं के लिए सुविधापूर्वक उन बयानों से किनारा किया जा सके। लेकिन इन  सबके बीच रणनीति बनाने वाले फिर एक बार आम जनता को बेवकूफ समझने की गलती कर बैठते हैं।  


सोचनेवाली बात है जब आम जनता सब भली-भांति जान व समझ रही है तो उस पर विश्वास कर उसे विवेचना करने दीजिये, मीडिया कर्मियों, राजनीतिक विश्लेषकों को विश्लेषण करने दीजिये। आवश्यक हो तो प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर अपनी बात रखें और  सार्थक सवाल-जवाब  कर लें।  
सवाल तो उठना लाजिमी है कि क्या अपने विरोधी को नीचा दिखाकर, उनकी परछाईं से अपनी परछाईं को बड़ा दिखाकर विकासोन्मुख राजनीति के वर्तमान दौर में कोई भी दल बड़ी सियासी जंग जीत सकता है ? कहते हैं  मुँह से निकली बोली और बंदूक से निकली गोली को वापस लौटाना मुमकिन नहीं होता। फिर बयान बहादुर का खिताब हासिल करने के बजाय आम जनता की भलाई के लिए सही अर्थों में एक भी छोटा कार्य करना नेता कहलाने के लिए क्या ज्यादा  सार्थक नहीं है ? ऐसे भी राजनीतिक नेताओं को राजनीति से थोड़ा ऊपर उठ कर बिहार की  अधिकांश आबादी जिसमें  गरीब, दलित, शोषित -कुपोषित, अशिक्षित, बेरोजगार और बीमार लोग दशकों से शामिल हैं,  की बुनियादी समस्याओं को समय बद्ध सीमा में सुलझाने का क्या कोई भगीरथ प्रयास नहीं करना चाहिए ?    


               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं


लोकप्रिय हिंदी दैनिक, 'दैनिक भास्कर' में  प्रकाशित दिनांक :09.12.2014

Sunday, December 7, 2014

मोटिवेशन : तराजू एक रखें

                                                        - मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर... ...
ऐसा होना मुनासिब है कि एक ही व्यक्ति का एक ही काम के लिये विभिन्न लोगों द्वारा अलग -अलग, आकलन किया जाए - प्रशंसा या आलोचना की जाए । गैर मुनासिब तो तब लगता है जब एक ही व्यक्ति द्वारा किसी व्यक्ति विशेष का उनके एक ही कार्य हेतु अलग-अलग मंचों से बिल्कुल अलग, कभी-कभी तो एकदम विपरीत  विवेचना की जाती है, वह भी तथ्य और तर्क से परे । राजनीति में तो यह सब रोज का खेल हो गया है जिसका खामियाजा अंततः देश को भुगतना पड़ता है ।


 पर कभी हमने सोचा है कि ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है क्यों कि अलग-अलग आदमी के लिये समय और परिस्थिति के अनुसार विविध प्रकार के तराजू का रिवाज है । डंडी मारने वाली बात से तो हम सब वाकिफ हैं । सो, एक तराजू को हम अपने फायदे के लिये विभिन्न तरीके से काम में लाते हैं या यूँ कहें कि तराजू तो वही दिखता है, लेकिन वाकई होता वह अलग है, अलग -अलग लोगों को तौलने के लिये । कभी सही वजन से ज्यादा वजन दिखाने के लिए तो कभी कम दिखाने के लिये- डंडी मारते हुए । ऐसा हममें से अनेक लोग अपने रोजमर्रा की जिंदगी में बेहिचक करते रहे हैं । 

ऐसा होते हुए देखना भी अब सामान्य बात है । नौकरी हो या स्कूल -कॉलेज में प्रवेश के लिये आयोजित साक्षात्कार का सवाल हो, अलग -अलग तराजू में तौले जाने वाले अनैतिक आचरण का स्वाद चखे बिना रहना मुश्किल है । लोगों के साथ आम व्यवहार में भी कई लोग इस 'तराजू वाली मानसिकता' से ग्रसित नजर आते हैं । ऐसे लोगों को पहचानना एवं उन्हें बेनकाब करना समाज को बेहतर बनाने के लिये जरुरी है, क्योंकि दिखे या न दिखे, यह साफ़ तौर पर अनैतिक व गैरकानूनी है । कहना न होगा, एक तराजू  रखना मतलब नैतिकता, ईमानदारी एवं न्याय का पक्षधर होना है । ऐसे लोग खुद तो विवेकी व विश्वसनीय होते ही हैं, साथ ही उस संस्था की विश्वसनीयता को भी ऊंचाई प्रदान करते हैं, जहां वे पदस्थापित होते हैंयूँ भी बड़े -बूढ़े कहते हैं कि डंडी मारने वाले को बरकत नहीं मिलती ।

              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# प्रभात खबर के मेरे कॉलम "गुड लाइफ" में 07.12.2014 को प्रकाशित