- मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर... ....
जॉब इंटरव्यू पैनल में शामिल रहने के कारण पर्सनल इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन के दौरान छात्र-छात्राओं को परखने और सेलेक्ट करने के क्रम में हो या स्कूल-कॉलेज में अपने मोटिवेशनल स्पीच के क्रम में मुझे विद्यार्थियों से मिलने, उन्हें जानने-समझने का अवसर मिलता रहता है. कई विद्यार्थी मुखर या आक्रामक, कई चुपचाप या दब्बू तो कई बिलकुल संयत, संतुलित व दृढ़ पाए जाते हैं. छात्र-छात्राओं के किसी समूह या भीड़ को गौर से देखने पर भी आपको इसका एहसास हो जाएगा. जेनेटिक तथा परवरिश-परिवेश जन्य कारणों से मूलतः हमारी व्यवहार पद्धति निर्मित होती है. आमतौर पर यह देखा जाता है कि सच्चे और अच्छे लोगों की संतान सामान्यतः अच्छे गुण व संस्कार से लैस होते हैं.
गलती करना, उसका एहसास होना, फिर पछताना और उस गलती से सीख लेने एवं आगे उसे पुनः न दोहराने का संकल्प लेकर जीवन में अग्रसर हो जाना, मानव जीवन का उत्तम उसूल माना जाता रहा है. देखने पर हर महान व्यक्ति का जीवन इस सिद्धांत का पालन करता हुआ प्रतीत होगा. लेकिन अगर आप अपने आसपास देखेंगे तो आप पायेंगे कि कुछ विद्यार्थियों के लिए गलती करना और पछताना, फिर गलती करना और फिर पछताना, वाकई एक समानांतर तथा सतत चलनेवाली प्रक्रिया है. देखा गया है कि वे जानते हुए भी ऐसे काम करते हैं जिसके लिए उन्हें पिछली बार भी पछताना पड़ा था और कई बार डांट भी खानी पड़ी थी. महात्मा गांधी सहित किसी भी महान व्यक्ति की जीवनी पढ़ लीजिए, सब ने जीवन के किसी-न-किसी काल खंड में एक-दो या ज्यादा गलतियां की हैं, लेकिन एक ही गलती बारबार नहीं की और हर गलती से कुछ-न-कुछ सीख लेकर जीवन पथ पर कठिन से कठिन चुनौतियों का डट कर सामना किया और असाधारण रूप से विजयी भी हुए.
स्वभाव व व्यवहार के सन्दर्भ में बात करें तो विद्यार्थियों को मुख्यतः तीन श्रेणी में रख सकते हैं. पहला दब्बू, दूसरा आक्रामक और तीसरा दृढ़ और निश्चयात्मक व्यवहारवाले. पहले दो प्रकृति के विद्यार्थियों को यह मालूम नहीं होता या मालूम होने पर भी यह तय नहीं कर पाते कि कब बोलना चाहिए और कब चुप रहना चाहिए. कहां और कब अपना पक्ष दृढ़ता से रखना है और किस मौके पर सिर्फ वेट एंड वाच की अवस्था में रहना श्रेयस्कर होता है. दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों विपरीत स्वभाव के विद्यार्थी होते हैं, पर दोनों एक दूसरे के पूरक होने के नाते जाने-अनजाने कारणों से एक साथ दिखाई पड़ते हैं. जो विद्यार्थी दब्बू होते हैं, वे 'यस सर' (जी, महाशय ) श्रेणी के होते हैं. सही हो या गलत, बॉस टाइप विद्यार्थी की हर बात में हां में हां मिलाते हैं. काबिले गौर बात है कि ऐसे विद्यार्थी बाद में सिर पकड़ कर बैठते हैं और करवटें बदलते हुए सोने का प्रयास करते हैं. दूसरी ओर जो आक्रामक होते हैं वे अपने को सही दिखाने के लिए अनावश्यक रूप से हर जगह हावी होना चाहते हैं. ये वही बॉस टाइप या दबंग किस्म के विद्यार्थी होते हैं. ऐसे विद्यार्थी का ईगो बहुत बड़ा होता है. वे चिल्लाकर तथा शारीरिक बल से दब्बू किस्म के विद्यार्थियों में दहशत फैलाते हैं और अपना रौब झाड़ते हैं. इनके पास तथ्य और तर्क का अभाव होता है. ऐसे विद्यार्थियों को विरोध करनेवाले या सोच-विचारकर जवाब देनेवाले सहपाठी या जूनियर पसंद नहीं आते. इन्हें तो हर स्थिति में 'यस सर' कहनेवाले दब्बू लोग बहुत पसंद हैं. इस तरह ये गलती पर गलती करते हैं, पछताते हैं, किन्तु दूसरों पर दोष डाल कर फिर वैसी ही गलती करते रहते हैं. पाया गया है कि इन दोनों किस्मों के विद्यार्थी आंतरिक रूप से कमजोर होते हैं. न चाहते हुए भी अधिकांश समय निराशा, भय, अवसाद आदि से पीड़ित रहते हैं. फलतः परीक्षा में अच्छा कर पाना मुश्किल होता है. ऐसे विद्यार्थी कम उम्र में ही कई व्यसन और व्याधि के शिकार भी हो जाते हैं.
दिलचस्प और बहुत ही विचारणीय तथ्य है कि पहले दो प्रकार के विद्यार्थियों के अलावे कुछ विद्यार्थी हर शैक्षणिक संस्थान और गाँव-शहर में मिल जायेंगे जो धीर-गंभीर होते हैं. वे सोच-समझ कर कार्य करते हैं. उनका विचार-स्वभाव -व्यवहार अच्छा होता है. वे दृढ़ निश्चय वाले होते हैं. वे न तो किसी को डराते हैं और न ही किसी से डरते हैं. बिनोवा भावे के शब्दों में ऐसे विद्यार्थी ही वीर कहे जा सकते हैं. कहने का तात्पर्य, व्यवहार में दब्बू अथवा आक्रामक होने के बदले, यह हमेशा वांछनीय है कि छात्र-छात्राओं का व्यवहार निश्चयात्मक, संयत और संतुलित हो. पाया गया है कि ऐसे व्यवहारवाले विद्यार्थी मेहनती, निष्ठावान, सक्षम, विश्वस्त, विनोदप्रिय, शांतचित्त और तार्किक होते हैं. फलतः वे हमेशा एक बेहतर जिंदगी जीते हैं -सफलता, सुख, समृद्धि, संतोष, स्वास्थ्य और आनंद के पैमाने पर.
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और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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