Friday, January 12, 2018

स्वामी विवेकानन्द- कर्म, विचार व व्यक्तित्व

                                                                                                      - मिलन सिन्हा 
नरेन यानी नरेंद्र नाथ दत्त जिन्हें दुनिया आज स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानती और सराहती है, का जन्म कलकत्ता के एक कुलीन और संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी, 1863 के दिन हुआ था. उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाई कोर्ट के नामी वकील थे. उनके दादा जी दुर्गाचरण दत्त बांग्ला के अलावे संस्कृत तथा फारसी के विद्वान् थे और मात्र 25 वर्ष की उम्र में गृहस्थ जीवन को त्यागकर साधू बन गए थे. नरेन की मां भुवनेश्वरी देवी  धार्मिक विचारों से ओतप्रोत एक कर्तव्य निष्ठ महिला थी.

नरेन पढ़ने-लिखने में तेज थे तो खेलने और बाल सुलभ अन्य मामलों में भी. उनके घर में पूजा -पाठ, भजन-कीर्तन, पठन -पाठन आदि का अच्छा परिवेश था जिसका समग्र सकारात्मक असर नरेन के स्वभाव एवं संस्कार पर पड़ना स्वभाविक था. सब कुछ बढ़िया चल रहा था कि अचानक 1884 में उनके पिता का देहांत हो गया. उस समय नरेन 21 वर्ष के थे और उसी वर्ष उन्होंने बीए की परीक्षा पास की थी. पिता के गुजरने के बाद पूरा परिवार आर्थिक तंगी का शिकार हो गया. आगे के चार वर्ष काफी कठिन गुजरे. 1881 में उनकी मुलाक़ात रामकृष्ण परमहंस से हुई. युवा नरेन अपने गुरु से बेहद प्रभावित थे. फलतः उन्होंने  अपना जीवन रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर दिया. 

इस बीच जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आये. अप्रत्याशित आर्थिक तंगी के बीच सामाजिक विरोध-बहिष्कार के शिकार हुए; एकाधिक जगहों पर नौकरी की.  1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भारत के प्रतिनिधि के रूप में अपना ऐतिहासिक भाषण देने से पूर्व करीब पांच वर्षों तक वे देश के विभिन्न भागों का एक सामान्य सन्यासी के रूप में  पैदल भ्रमण  करते रहे. इस व्यापक यात्रा में उन्होंने  देश के लोगों की वास्तविक स्थिति को अपनी आँखों से देखा, उसे खुद महसूस किया. मात्र साढ़े 39 साल की उम्र में 4 जुलाई, 1902 को विवेकानन्द ने अपना देह त्याग दिया.  

स्वामी विवेकानन्द ने 1897 में अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के नाम पर  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की जो दशकों से आम देशवासियों के सामजिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत कार्य करता रहा है.

स्वामी जी मनुष्य को श्रेष्ठतम जीव मानते थे.  देखिए क्या थे स्वामी जी के विचार:

  • मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से - यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है. मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं. देवताओं को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है.... .... भगवान मनुष्य के भीतर रहते हैं; मानव शरीर में स्थित आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है; अगर  मैं उसकी उपासना नहीं कर सका, तो अन्य किसी भी मंदिर में जाने से कुछ भी उपकार नहीं होगा. 
  • जिस क्षण मैंने यह जान लिया कि भगवान हरेक मानव शरीर रुपी मंदिर में विराजमान हैं, जिस क्षण मैं हर व्यक्ति के सामने श्रद्धा से खड़ा हो सकूँगा और उसके भीतर भगवान को देखने लगूंगा – उसी क्षण मैं बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा....

स्वामी जी मनुष्य के कर्त्तव्य पर कहते हैं :

  • हमारा पहला कर्त्तव्य यह है कि अपने प्रति घृणा न करें; क्योंकि आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि पहले हम स्वयं में विश्वास रखें और फिर ईश्वर में. जिसे स्वयं में विश्वास नहीं, उसे ईश्वर में कभी भी विश्वास नहीं हो सकता...
  • प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्न करें. दूसरों के ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा, जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है..... 
  • जब तुम कोई कर्म करो, तब अन्य किसी बात का विचार ही मत करो. उसे एक उपासना के रूप में करो और उस समय उसमें अपना सारा तन-मन लगा दो.

स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा: 

  • पहले रोटी और तब धर्म चाहिए. गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं ...
  • संभव की सीमा जानने का केवल एक ही मार्ग है. और वह है असंभव से भी आगे निकल जाना 
  • युवा वह है जो अनीति से लड़ता है, जो दुर्गुणों से दूर रहता है, जिसमें जोश के साथ होश भी है, जो समस्याओं का समाधान निकालता है, जिसमें राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाने का जज्बा है ....
  •  हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की उपेक्षा है, और वह भी हमारे पतन का कारण है. हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत का जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता.....
आज जरुरत इस बात की है कि हम स्वामी जी के कर्म, विचार और व्यक्तित्व से सच्ची प्रेरणा लें और देश के सभी लोगों, खासकर करोड़ों गरीब जनता (स्वामी जी के शब्दों में 'दरिद्रनारायण') की भलाई के लिए सच्चे मन एवं सम्पूर्ण समर्पण से काम करें.  (hellomilansinha@gmail.com) 
            और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
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Sunday, January 7, 2018

आज की बात : योगदा आश्रम

                                                                                           - मिलन सिन्हा
आज रविवार है. 2018 का पहला महिना है. ठंढ है. आसमान साफ़ और धूप अच्छी है. कहते हैं सुबह की शुरुआत अच्छी हो तो दिन अच्छा गुजरता है. जहां हम नहीं जाते हैं, उस स्थान के विषय में पढ़-सुनकर ही हम अपने विचार बनाते हैं; एक चित्र अपने मानस में बना लेते हैं - अच्छा, सामान्य या बुरा.  रांची रेलवे स्टेशन की ओर जाने-आने के  क्रम में उसके पास स्थित योगदा आश्रम के भीतर जाने का मन कई बार हुआ, लेकिन जाना आज हो सका. योगदा आश्रम के पेड़-पौधों से भरे बड़े से परिसर में नीरवता और स्वच्छता स्पष्ट रूप से दिखती है. सब कुछ जैसे पूरी तरह व्यवस्थित.
हर रविवार को योगदा आश्रम में, जिसकी स्थापना परमहंस स्वामी योगानंद ने 1917 में की थी,  सुबह 10 बजे से करीब 12 बजे तक ध्यान -प्रवचन का सत्र आयोजित होता है. इस दौरान शहर के वैसे लोग भी वहां पहुँचते है जो आश्रम से वैसे जुड़े नहीं हैं. साफ़-सुथरे एक बड़े से हॉल में यह कार्यक्रम होता है, जिसमें लगभग 1000 लोगों के बैठने की व्यवस्था है. बैठने की यह व्यवस्था दो भागों में बंटा था - एक तरफ महिलायें तो दूसरी तरफ पुरुष. हमारे वहां पहुंचने से पहले कुछ लोग आ चुके थे और शान्ति से बैठे थे - कुछ लोग नीचे सामने की ओर और कुछ कुर्सियों पर पीछे की ओर. संभवतः यह व्यवस्था इस बात को ध्यान में रख कर लागू की गयी होगी कि जिन लोगों, खासकर उम्रदराज लोगों को जमीन पर बैठने में शारीरिक परेशानी होती है, उन्हें असुविधा न हो. बहरहाल, थोड़ी देर तक लोग आते रहे और चुपचाप स्थान ग्रहण करते रहे. 
अगले कुछ मिनटों में निर्धारित कार्यक्रम प्रारंभ होने को था. एक नजर पूरे हॉल में घुमाया तो पता चला कि 60 % लोग अधेड़ और बुजुर्ग थे और बाकी उससे कम उम्र के. यानी युवाओं की संख्या भी अच्छी थी. स्वामी जी आ चुके थे. हारमोनियम और माइक आ गया. अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद स्वामी जी ने प्रार्थना में सबको जोड़ा. फिर शुरू हुआ उनका रोचक-प्रेरक प्रवचन, जो करीब एक घंटे तक चला. इस बीच करीब आधे घंटे का मेडीटेसन (ध्यान) सत्र भी हुआ. पूरा समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. स्वामी जी ने स्वामी योगानंद के विचारों -उक्तियों को आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ते हुए बहुत अच्छी तरह बताया-समझाया. प्रवचन के दौरान जो कुछ बातें स्वामी जी ने कही, उनमें से कुछ प्रस्तुत है यहां :
  1. हमें ख़ुशी अपने अन्दर खोजने की जरुरत है, बाहर नहीं.
  2. हमारी आत्मा हमेशा खुश रहना चाहती है
  3. जिस तरह चींटी बालू में से चीनी या मीठी चीज निकाल लेती है, उसी प्रकार हमें भी माया के बीच से खुशी निकाल लेनी  है. अन्यथा अपना जीवन बालू को उलटने-पुलटने में बीत जायेगा. 
  4. यह आप पर निर्भर है कि आप दुखी आत्मा बने रहें या खुशी आत्मा. एक बार इसे तय कर लेगें तो बहुत कुछ स्वतः होते चलेंगे.
  5. नई बातें जानने -सीखने को उत्सुक बच्चे की तरह बने रहें हमेशा. आप बूढ़े होने से बचे रहेंगे.
  6. "हम कर सकते हैं, हम जरुर करेंगे" को जितना दोहराएंगे, आपका आत्म-विश्वास और कार्यक्षमता में उतना ही इजाफा होगा.
  7. क्रोध -घृणा टिकाऊ नहीं होता, प्यार होता है. सोच कर देखिए- कर के देखिए. अच्छा लगेगा.
  8. ज्ञान के दुर्ग में स्वयं को सुरक्षित रखें. इससे अधिक और कोई सुरक्षा नहीं है. 
  9. प्रलोभन चीनी लगा जहर है जो स्वाद में रुचिकर तो जरुर लगता है, पर है वस्तुतः जानलेवा.
  10. ईश्वर ने हमें हमारे जीवन की सभी परीक्षाओं एवं कमियों पर विजय पाने के लिए आवश्यकता से अधिक शक्ति दे रखी है.
  11. बुरी आदतों का त्याग करें और अच्छी बातों को तुरत ग्रहण करें. यह आपको ख़ुशी की ओर ले जाएगा.  
कार्यक्रम ख़त्म होने पर सभी लोग कतारबद्ध हॉल के दोनों बगल के रास्ते धीरे-धीरे निकलने लगे. बाहर मुख्यद्वार पर स्वामीजी स्वयं सबको प्रसाद का छोटा पैकेट देते जा रहे थे - भीतर ज्ञान का प्रसाद और बाहर यह प्रसाद.  .... .... रांची में अगर हैं या कभी आयें तो एक बार जरुर योगदा आश्रम परिसर में जाएं और जीयें निर्मल आनंद के कुछ पल.              (hellomilansinha@gmail.com)                                                                                                
                         और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

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Monday, January 1, 2018

मोटिवेशन : नये साल का संकल्प

                                                                      -मिलन  सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर... 
एक और साल  बीत  गया. एक नया साल दस्तक दे रहा है. सब जानते हैं कि गुजरा हुआ वक्त कभी लौट कर नहीं आता, आती रहती हैं तो केवल गुजरे वक्त की खट्टी -मीठी यादें. पर क्या सिर्फ यादों के सहारे  दुनिया में जी पाना मुमकिन है या यथार्थ को स्वीकार कर आगे की यात्रा तय करनी पड़ती है ? हमारे व्यक्तिगत जीवन में बीते साल भी बहुत कुछ अच्छा हुआ ही होगा, कुछ नहीं भी. ऐसे मिश्रित अनुभव–अनुभूति से हमारा सरोकार रहा है और आगे भी रहेगा. यही तो जीवन का सतरंगी शाश्वत रूप है, क्यों? 

सच कहें तो हमारे देश की यात्रा भी हमारे सम्मिलित जीवन यात्रा का प्रतिरूप ही तो  है. सब मानते हैं कि पिछले 70 वर्षों से हमारा देश विकास की यात्रा पर तो जरुर चलता रहा है, लेकिन गति अपेक्षा से धीमी रही है. तभी तो आजादी के करीब सात दशक बाद आज भी हमारे करोड़ों भाई-बहनों को गरीबी, बीमारी, बेकारी, भूखमरी जैसे आर्थिक–सामाजिक समस्याओं से जूझना  पड़ रहा है. कारण अनेक हैं, पर एक बड़ा कारण देश के अनेक भागों में कारण-अकारण अशांति का माहौल बना कर विकास की यात्रा में व्यवधान उपस्थित करने वाले तत्वों की कोशिशों के कामयाब होते रहने का है. 

हम सब जानते हैं कि हमारा देश विविधताओं से भरा एक विशाल देश है. ‘अनेकता में एकता’ विश्व के इस सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की अनूठी पहचान रही है. हम यह भी जानते हैं कि किसी भी देश को मजबूत बनाने के लिए व्यक्ति व समाज का मजबूत होना अनिवार्य है. इसके लिए देश में होने वाले सामाजिक-आर्थिक विकास का लाभ समाज के सभी तबके को मिलना जरुरी है. और विकास के रफ़्तार को बनाये रखने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों–समुदायों के बीच एकता और भाईचारा का होना आवश्यक है. 

हर अमन पसंद एवं विकासोन्मुख देश की तरह हमारे देश में भी अधिकांश लोग शान्ति, एकता और विकास के पक्षधर हैं; न्यायपालिका सहित देश के सभी संवैधानिक संस्थाओं पर उनका विश्वास है; वे तोड़-फोड़ या दंगे-फसाद में शामिल नहीं होते हैं और कानून का सम्मान करते हैं. विवाद को बेहतर संवाद से सुलझाना चाहते हैं. विरोध की नौबत आने पर वे गाँधी जी द्वारा बताये गए सत्याग्रह जैसे अचूक माध्यम का सहारा लेते हैं.  

इसके विपरीत, कुछ मुट्ठी भर लोग हर घटना–दुर्घटना के वक्त येन-केन प्रकारेण समाज में विद्वेष व  घृणा का माहौल बनाने की चेष्टा करते हैं, जिससे वे अपना निहित स्वार्थ सिद्ध कर सकें. ऐसे ही लोग देश के विभिन्न हिस्सों में छोटी -बड़ी घटनाओं–दुर्घटनाओं के बाद अकारण ही निजी एवं सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने में आगे रहते हैं; समाज में उन्माद एवं अविश्वास का बीज बो कर विकास के गति को क्षति पहुंचाते हैं. इससे सबसे ज्यादा  नुकसान समाज के सबसे गरीब लोगों को होता है. इसके अन्य अनेक अनिष्टकारी आयाम भी हैं, जिनसे हम अपरिचित नहीं हैं.

‘नये साल के संकल्प’ की चर्चा अगले कुछ दिनों तक होती रहेगी. होनी भी चाहिए. अच्छे संकल्पों-कार्यों की सही चर्चा जितनी ज्यादा होगी, हमारे समाज में उतना ही सकारात्मक माहौल बनेगा, उतनी ही तीव्रता से अच्छाई भी फैलेगी. कहने का अभिप्राय यह कि आज का समय समाज के करोड़ों अमन पसंद एवं जागरूक लोगों, खासकर युवाओं के लिए यह संकल्प लेने का है कि हम हर अच्छे काम में एक दूसरे की यथा संभव मदद करेंगे. साथ ही साथ सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बिगाड़ने की चेष्टा करनेवाले चंद लोगों  के नापाक इरादों को नाकाम करने में स्थानीय प्रशासन की मदद करेंगे, जिससे प्रशासन को इन असामाजिक लोगों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई करने में कुछ आसानी हो जाय. 

सच मानिए, तभी जाकर हम सब शान्ति व खुशहाली के साथ रहते हुए देश और समाज को तीव्र गति से उन्नत व मजबूत बना पायेंगे. तभी भारत एक विश्व शक्ति बन भी पायेगा और सच्चे मायने में ऐसा देश कहलाने का हकदार भी. 

“हैप्पी न्यू इयर” कहने की सार्थकता भी तो इसी में है, क्यों ?  

           और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 
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