Sunday, December 16, 2018

मोटिवेशन : अच्छाई और सच्चाई में है सफलता का राज

                                                  - मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर एवं लेखक 
देश-विदेश सब जगह अच्छाई और सच्चाई के साथ जीनेवाले लोगों की संख्या अच्छी-खासी है. वे मेहनत से पीछे नहीं हटते. संघर्ष को वे साथी मानते हैं और अपनी स्थिति को मजबूत करने का सतत प्रयास करते हैं. शार्ट-कट में उनका विश्वास नहीं होता. वे जीवन को एक खूबसूरत यात्रा समझते हैं. यात्रा के उतार –चढ़ाव, आसानी-परेशानी, सफलता-असफलता और ख़ुशी–गम के बीच से तमाम अनुभूतियों–अनुभवों को समेटते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहते हैं. वे जानते और मानते हैं कि हर रात के बाद एक नई सुबह आती है, आशा और उमंग का संचार करती है. उनके जीवन में जो भी चुनौतियां आती हैं उसका समाधान पाने में वे पूरे सामर्थ्य से लग जाते हैं. वे असफलता को सिर पर रखते हैं और सफलता को दिल में. वे जानते हैं कि असफलता का निरपेक्ष विश्लेषण करके उसके पीछे के कारणों को बेहतर ढंग से जानना संभव होता है और आगे की कार्ययोजना में उन सीखों को इस्तेमाल करना सर्वथा अपेक्षित और बेहतर होता है.  

हर मनुष्य के जीवन में कभी–न-कभी कोई बड़ी समस्या आती है, कई बार तो बार-बार आती है; छोटे-छोटे अंतराल में आती रहती है, उस समय ऐसे लोग उत्तेजित, क्रोधित, आतंकित या भयभीत होने के बजाय ज्यादा शांत रहने का प्रयत्न करते हैं. 

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि समस्या आने पर जब हम विचलित, असंतुलित व असामान्य हो जाते हैं तब उस समस्या को सुलझाने की हमारी शक्ति कम हो जाती है, कारण ऐसे वक्त मन-मस्तिष्क में उलझन का जाल मजबूत हो जाता है और समाधान आसान होने पर भी नामुमकिन प्रतीत होने लगता है. इसके विपरीत, थोड़ी देर शांत रहने और फिर समस्याविशेष का नए सिरे से विश्लेषण करने एवं उसका समाधान तलाशने की कोशिश करने  पर हमें अधिकांश मौके पर सफलता हाथ लगती है. ऐसा इसलिए भी कि समस्या कैसी भी हो, उसका कोई-न-कोई समाधान तो उपलब्ध होता ही है. और फिर अपने जीवन की समीक्षा करने पर जब वे पाते हैं कि जीवन में असफलताओं से अधिक सफलताएं मिली है तो उसे याद कर खुश हो जाते हैं, उत्साह-उमंग से भर जाते हैं. 

यह भी देखने-सुनने में आता है कि पुरजोर कोशिश करने के बावजूद कई लोग अनबुझ कारणों से बार-बार हारते रहते हैं. लेकिन वे हार नहीं मानते और कोशिश का दामन नहीं छोड़ते, क्यों कि ऐसे लोग मानते हैं कि कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती. ऐसे लोग उस कठिन समय में महान आविष्कारक थॉमस अल्वा एडिसन जैसे महान लोगों को याद कर प्रेरित होते हैं. कारण यह है कि एडिसन को बिजली के बल्ब का आविष्कार से पहले हजारों बार असफलता का सामना करना पड़ा था. लेकिन जब किसी ने उनसे इस बाबत पूछा कि आप अपनी हजारों असफलता को कैसे देखते हैं तो एडिसन का उत्तर कम प्रेरणादायी नहीं था. उन्होंने कहा कि मैंने बल्ब के आविष्कार के क्रम में हजारों बार प्रयोग किये जिसका परिणाम बस अनुकूल नहीं रहा. सच है, सफलता और खुशी दोनों ही अच्छाई और सच्चाई के साथ कोशिश करनेवालों के पीछे-पीछे चलती रहती है.     (hellomilansinha@gmail.com) 

                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# दैनिक जागरण में 16.12.18 को प्रकाशित

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Sunday, December 9, 2018

आत्मविश्वास से मिलेगी मंजिल, बढ़ते रहें आगे

                                  - मिलन  सिन्हामोटिवेशनल स्पीकर एवं स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ...
ऐसे तो आजकल हर उम्र का आदमी तनाव से थोड़ा या ज्यादा परेशान दिखता है. लेकिन तेज रफ़्तार जिंदगी में ‘यह दिल मांगे मोर’ की अपेक्षा के साथ जीनेवाले लोगों में तनाव का स्तर कुछ ज्यादा ही होता है. वैसे देखा जाए तो तनाव से आदमी का रिश्ता कोई नया नहीं है. समय के हर दौर में लोग कम या अधिक तनाव से ग्रसित रहे हैं, खासकर वे लोग जो अवैध, अनैतिक एवं अवांछित तरीके से सिर्फ अपना मतलब साधने में विश्वास करते हैं. 

बहरहाल, परीक्षा के मौसम में स्कूली बच्चे एवं युवा तनाव से कुछ ज्यादा ही परेशान रहते हैं.  ऐसे समय डर एवं आशंका के कारण तनाव में इजाफा होता है. इसके कई कारण हैं- वास्तविक एवं काल्पनिक दोनों. तनाव की इस अवस्था में उनकी सहजता, सरलता एवं स्वभाविकता दुष्प्रभावित होती है. उलझन, परेशानी और तनाव अनावश्यक रूप से बढ़ जाते हैं. अधिकतर मामलों में अभिभावक–शिक्षक या प्रियजन इसे ठीक से समझ नहीं पाते हैं या समझकर भी तत्काल बच्चे से खुलकर बात नहीं करते. ऐसे में  बच्चे का कॉनफ्यूज़न बढ़ता जाता है. कई बार तो अपनी भावनाओं और परेशानियों को साझा करना संभव नहीं दिखता. तब बच्चे अपने-आप को असहाय, अकेला और लाचार समझने लगते हैं. और कभी-कभी तो कई तरह के आत्मघाती फैसला कर लेते हैं. 

सवाल है कि आखिर इस तरह की स्थिति से बच्चे कैसे बचें और उबरें जिससे  चुनौतियों का डटकर सामना कर सकें, परीक्षा में बेहतर कर सकें?  

जानकार मानते हैं कि थोड़ा तनाव तो अच्छा होता है; एक ड्राइविंग फ़ोर्स की तरह काम करता है जो हमें थोड़ी तीव्रता से कुछ करने को प्रेरित करता है. ऐसे समय शरीर के सारे अंग कुछ ज्यादा सक्रियता एवं नियोजित ढंग से काम को अंजाम देने में जुट जाते हैं. हम असहज या असामान्य होने के बजाय सहज और सामान्य तरीके से कुछ ज्यादा फोकस होकर काम करते हैं क्यों कि पूरा ध्यान लक्ष्य को प्राप्त करने में लगा रहता है. मजे की बात यह कि इस तरह का तनाव अल्पकालिक होता है और काम  के पूरा होने या सफल होने पर ज्यादा ख़ुशी का एहसास भी करवाता है. 

हां, बराबर तनाव ग्रस्त रहना वाकई चिंता का विषय है, वो भी परीक्षा के समय. लिहाजा, तनाव के मूल कारण को जानने–समझने का प्रयास करें और फिर चिंता छोड़कर अपेक्षा प्रबंधन, प्राथमिकता निर्धारण, समय प्रबंधन, योजनाबद्ध तैयारी, नियमित अभ्यास के साथ ही आकस्मिक परिस्थिति एवं परिवर्तन को दिल से स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने की यथासाध्य कोशिश करें. इससे आपका आत्मविश्वास बढ़ेगा और तनाव भी बहुत कम होगा. परीक्षा के समय अपनी सामान्य दिनचर्या को तिलांजलि न देकर अपने खाने-सोने आदि को भी यथासंभव ठीक रखें. इससे आपका शरीर उस महत्वपूर्ण समय में यथोचित उर्जा और उत्साह से लबरेज रहेगा. एक बात और. जब भी जरुरत महसूस हो तो सोशल मीडिया में समाधान तलाशने के बजाय अपने अभिभावक-शिक्षक–गुरुजन से अपनी परेशानी साझा करें और उनके सुझावों पर अमल करें. बहुत लाभ होगा.       (hellomilansinha@gmail.com) 


                      और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# दैनिक जागरण में 09.12.18 को प्रकाशित

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Friday, November 23, 2018

मोटिवेशन : सफलता की सीढ़ी है लक्ष्य के प्रति समर्पण

                                                                - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर...
ऐसे देखा जाए तो हर कोई अपने जीवन में सफल होना चाहता है, परन्तु सबको अपेक्षित सफलता मिलती है क्या ? इसके एकाधिक कारण हो सकते हैं, किन्तु एक महत्वपूर्ण कारण एक स्पष्ट लक्ष्य न तय कर पाना होता है. सोचिये जरा, अगर फुटबॉल के मैदान में कोई गोल पोस्ट ही न हो या  क्रिकेट के खेल में विकेट न हो तो क्या होगा? तभी तो ए. एच. ग्लासगो कहते हैं, ‘फुटबाल की तरह ज़िन्दगी में भी आप तब-तक आगे नहीं बढ़ सकते जब तक आपको अपने लक्ष्य का पता ना हो.’ कहने का अभिप्राय यह कि अगर लक्ष्य को सामने से हटा दिया जाय तो फिर न तो खेल के कोई मायने होते हैं और न ही जीवन के.

कुछ दिनों पूर्व प्रदर्शित केतन मेहता निर्देशित फिल्म, ‘मांझी – दि माउंटेन मैन’ की खूब चर्चा हुई. यह अकारण नहीं है. इस फिल्म में बिहार के गरीब -शोषित  समाज के एक ऐसे इंसान के वास्तविक जीवन  को फिल्माने का प्रयास किया गया जिसने गरीबी और सामाजिक विरोध के बावजूद सिर्फ अपने दम पर एक विशाल पहाड़ को चीरकर सड़क बनाने का लक्ष्य अपने सामने रखा. दशरथ मांझी ने इसके निमित्त अनथक परिश्रम किया और रास्ते में आने वाले  तमाम अवरोधों को चीरते हुए  सफलता हासिल की.

सभी जानते हैं कि महाभारत में लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता के मिसाल के तौर पर पांडव पुत्र अर्जुन का नाम उभर कर आता है. ऐसा इसलिए कि अर्जुन ने एकाग्र हो कर केवल अपने लक्ष्य पर फोकस किया था और परिणामस्वरूप चिड़िया की आँख पर तीर से निशाना साधने में वही सफल रहे थे.

तभी  तो स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "लक्ष्य को ही अपना जीवन कार्य समझो. हर समय उसका चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी के सहारे जीवित रहो ." खुद स्वामी जी का जीवन इसका ज्वलंत उदाहरण है.

भारतीय आई टी  उद्द्योग के एक बड़े नामचीन व्यक्ति के रूप में हम सब नारायण मूर्ति का नाम लेते हैं. दरअसल इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने किन-किन पड़ावों से होकर अपनी यात्रा जारी रखी, उसे जानना –समझना जरुरी भी है और  प्रेरणादायक भी. मध्यम वर्ग परिवार के  युवा नारायण मूर्ति  को 1981 में इन्फोसिस की शुरुआत से पहले साइबेरिया –बुल्गारिया  की  रेल यात्रा के दौरान किसी भ्रमवश गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया,  जहाँ उन्हें करीब तीन दिनों तक भूखा रहना पड़ा और यातनाएं भी झेलनी पड़ी. उस समय उन्हें एक बार ऐसा भी लगा कि शायद  वे अब वहां से निकल भी पायें, लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और सच्चाई का दामन थामे रखा. सौभाग्य  से उन्हें चौथे दिन जेल से निकाल कर इस्ताम्बुल की ट्रेन में बिठा कर मुक्ति दी गई. वह उनकी जिंदगी का कठिनतम दौर था. कहते है न कि हर सफल  व्यक्ति अपने जीवन के उतार –चढ़ाव से बहुत कुछ सीखता रहता है और अपने लक्ष्य की  ओर अग्रसर होता रहता है. अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध  नारायण मूर्ति के साथ भी ऐसा ही हुआ और आज देश –विदेश के करोड़ों लोग उनके  प्रशंसक हैं.

                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# दैनिक जागरण में 23.11.18 को प्रकाशित

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Wednesday, November 14, 2018

श्रद्धांजलि : सकारात्मक सोच एवं कर्म के प्रतीक हमारे मित्तल साहब

                                                                                              -मिलन सिन्हा 
जब यह समाचार मिला, मन पीड़ा से भर गया, उद्विग्न हो गया. ऐसा कैसे हो गया, वो इस तरह, इतनी जल्दी क्यों चले गए? कैंसर से उनकी लड़ाई पिछले कुछ महीनों से चल रही थी. दोनों तरफ से जोर आजमाइश हो रही थी. असीम सकारात्मकता और संकल्प के धनी राकेश कुमार मित्तल बराबर भारी पड़ रहे थे. चाहे लखनऊ हो या मुंबई, जहां मुख्यतः उनका इलाज चल रहा था, जब भी मेरी उनसे मोबाइल पर बात हुई उनकी स्नेहभरी आवाज में कहीं कोई कमजोरी, विरक्ति या नकारात्मकता का थोड़ा भी एहसास नहीं हुआ. 

लखनऊ निवासी मेरे मित्र ज्ञानेश्वर जी के सौजन्य से मित्तल साहब से मेरी पहली मुलाक़ात 2015 के उत्तरार्द्ध में रांची स्थित ‘सीएमपीडीआई’ (सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिज़ाइन इंस्टिट्यूट) के गेस्ट हाउस में हुई. वे यहाँ निदेशक मंडल की बैठक में भाग लेने आये थे. सुबह जब मैं उनसे मिलने पहुंचा, वे मेरा ही इंतजार कर रहे थे. कुछ मिनटों की मुलाक़ात में मुझे ऐसा लगा कि मुझे एक और अभिभावक मिल गया. वह मीटिंग करीब दो घंटे चली. हमने साथ में नाश्ता किया और ढेर सारी बातें – हेल्थ, हैप्पीनेस, गवर्नेंस जैसे जनहित के विषयों पर. उसके बाद उनसे बीच-बीच में मोबाइल पर बातें होती रही. उसी क्रम में हमने उनसे अनुरोध किया कि उनके अगले रांची विजिट में ‘हैप्पीनेस इन लाइफ’ विषय पर हम एक संवाद गोष्ठी आयोजित करना चाहते हैं जिसमें वे मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होकर हमें कृतार्थ करें. उन्होंने सहमति दी और हम उस कार्य में लग गए.

बताते चलें कि अगस्त, 1949 में रक्षा-बन्धन के दिन उत्तर प्रदेश के जनपद मुज़फ्फरनगर के पुरकाजी में जन्मे मित्तल साहब ने रुड़की विश्वविद्द्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री ली, अपने बैच में फर्स्ट क्लास फर्स्ट भी रहे. इतना ही नहीं उन्हें 1969 -70 सेशन के सर्वोत्तम छात्र के रूप में “कुलाधिपति स्वर्ण पदक” से भी सम्मानित किया गया. कुछ वर्ष इंजीनियरिंग क्षेत्र में काम करने के बाद 1975 में उन्होंने आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) ज्वाइन किया और अपनी सेवा के दौरान बस्ती के डीएम, लखनऊ के कमिश्नर, कई विभागों के प्रधान सचिव के पद पर रहते हुए उन्होंने दक्षता, कार्यक्षमता और सत्यनिष्ठा की मिसाल कायम की. उन्होंने अगस्त 2000 में भारत के प्रतिनिधि के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित ‘विश्व शान्ति सम्मेलन’ में भी भाग लिया. अक्टूबर 2002 में उन्हें ‘उत्तर प्रदेश रत्न’ सम्मान से नवाजा गया. वर्ष 2009 में प्रशासनिक सेवा से  अवकाश लेने के बाद वे ‘कबीर शांति मिशन’ जिसकी स्थापना उन्होंने 1990 में की थी, के माध्यम से अनेक जन कल्याणकारी कार्य को और सक्रियता से आगे बढ़ाने में जुट गए. 

मार्च, 2016 में मित्तल साहब से मैं दूसरी बार मिला. पूर्व योजना के मुताबिक़ 18 मार्च, 2016 को रांची के प्रसिद्ध ऑड्रे हाउस में ‘हैप्पीनेस इन लाइफ’ विषय पर संवाद गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें शहर के अनेक प्रबुद्ध लोगों ने भाग लिया. जीवन में सकारात्मकता के असीमित महत्व को केन्द्र में रख कर अंग्रेजी और हिन्दी में लिखी गई 20 से ज्यादा किताबों के लेखक एवं विशाल प्रशासनिक अनुभव के धनी मित्तल साहब के विचारों से सब लोग बहुत प्रभावित एवं लाभान्वित हुए. दो लोकप्रिय अखबार ‘दैनिक भास्कर’ और ‘प्रभात खबर’ ने मित्तल साहब से देश-प्रदेश में स्वास्थ्य की स्थिति पर बात की और ‘हैप्पीनेस इन लाइफ’ आयोजन को कवर भी किया. 

तीसरी बार फिर वे बोर्ड बैठक में शामिल होने के लिए रांची आए. उसी शाम हमने शहर के कुछ लोगों के साथ उनकी एक छोटी-सी बैठक आयोजित की, जिसमें उन्होंने अध्यात्म से लेकर विज्ञान तक अनेक विषयों पर अपने विचार लोगों के साथ खुलकर साझा किए. उनकी सहजता, सरलता और विद्वता का असर उस चर्चा में शामिल लोगों पर होना स्वभाविक था. दूसरे दिन सुबह उन्हें ‘सीएमपीडीआई’ के अधिकारियों  के साथ एक कोयला खदान के निरीक्षण में जाना था. उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे भी साथ आने को कहा. कोयला खदान में टेढ़े–मेढ़े फिसलनभरे सीढ़ियों के रास्ते से हमें करीब पचास फूट नीचे उतरना था. हम सभी आम खदान कर्मी की तरह माथे पर टोपी, हाथ में टॉर्च आदि से सुसज्जित थे. साथ चल रहे अधिकारी मित्तल साहब को खदान परिचालन की तकनीक आदि बताते-समझाते जा रहे थे. हमारे लिए यह अभिनव एवं रोमांचक अनुभव से गुजरना था. सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से हो रहा था. लौटते हुए अब उन्हीं सीढ़ियों से सुरक्षित ऊपर आने की बड़ी चुनौती थी. खदान के भीतर ऑक्सीजन की कमी सामान्य बात है और नए लोगों का थोड़ी चढ़ाई के बाद दम फूलने की शिकायत. आधी चढ़ाई पूरी हो चुकी थी.  मित्तल साहब सधे क़दमों से बढ़ रहे थे. उनकी उर्जा-उत्साह को देखकर मैंने जब पूछा कि उन्हें कैसा लग रहा है, चढ़ने में कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है तो उनका उत्तर असाधारण रूप से प्रेरणादायी था. कहा उन्होंने, ‘मैं तो सिर्फ एक कदम आगे बढ़ा रहा हूँ. मैं कहां देख रहा हूँ कि और कितना चढ़ना है. ये कदम बढ़ते रहे तो मंजिल तो मिल ही जायेगी.’ और हम कुछ मिनटों में खदान से बाहर निकल आए एक नए विचार-मंथन के साथ. 
ऐसे लोकतान्त्रिक एवं समावेशी सोच के विलक्षण लोग दैहिक रूप से न होते हुए भी हमारे आसपास-हमारी स्मृति में सदैव एक अभिभावक-मार्गदर्शक के रूप में रहते हैं -अपने उत्तम विचार और सत्कर्मों के कारण. सच कहूँ तो यह सब लिखते हुए मुझे भी लग रहा है कि मित्तल साहब आसपास ही हैं. ऐसे असाधारण व्यक्तित्व को मेरा शत-शत नमन.                                                        (hellomilansinha@gmail.com)
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# "कबीर ज्योति" में प्रकाशित
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Friday, September 14, 2018

आज की बात : बच्चों की शैतानी और प्राचार्य का नजरिया

                                                                                                    -मिलन सिन्हा 
आज रांची के एक बड़े स्कूल में एक कार्यक्रम के सिलसिले में जाने का मौका मिला. स्कूल के गेट पर तैनात गार्ड ने गाड़ी स्कूल के भीतर तब तक जाने नहीं दिया जब तक कि उन्हें ऊपर से अनुमति नहीं मिली. हमें पहले तो बुरा लगा कि हमें स्कूल प्रबंधन ने एक कार्यक्रम के लिए बुलाया है, फिर भी अन्दर जाने में इतनी परेशानी हो रही है. लेकिन बाद में सोचने पर गार्ड के कर्तव्यनिष्ठा की तारीफ़ किये बिना नहीं रह सका. स्कूल के हजारों बच्चों और स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाओं तथा अन्य कर्मियों की सुरक्षा-संरक्षा की जिम्मेदारी आखिर उन दो सुरक्षाकर्मियों पर ही तो है.

प्राचार्य के कक्ष के बाहर एक तरफ कई बच्चे मुंह झुकाए खड़े थे तो दूसरी ओर चार अभिभावक बैठे थे. सभी  प्राचार्य से मिलने की अपनी बारी के इन्तजार में थे. कार्यक्रम शुरू होने में थोड़ी ही देर थे और कार्यक्रम से पहले एक बार प्राचार्य साहब से मिलना हमारे एजेंडे में था. सो, हमें जल्द ही चैम्बर में बुलाया गया. प्राचार्य साहब तपाक से मिले. हमने कार्यक्रम की संक्षिप्त जानकारी उन्हें दी. वे खुश हुए और हमारे साथ कार्यक्रम के लिए ऑडिटोरियम के ओर चल दिए. बाहर निकलने पर उनकी नजर पहले प्रतीक्षारत अभिभावकों पर पड़ी. उनसे क्षमा  मांगते हुए उन्होंने उन लोगों से उप-प्राचार्य से मिलकर अपनी बात रखने को कहा और तुरत मोबाइल से उप-प्राचार्य से उस विषय पर बात भी की. अभिभावक संतोष का भाव लिए उप-प्राचार्य के कक्ष  की ओर चले गए.

अब बारी मुंह झुकाए खड़े बच्चों की थी. अपने प्राचार्य को देखते ही बच्चों के चहरे पर भय का भाव तैरने लगा. प्राचार्य साहब ने सबको पास बुला कर बस इतना कहा कि क्यों यह शैतानी करते हो, पढ़ाई में मन लगाओ. अगली बार ऐसी शिकायत आई तो तुम सबके अभिभावक को बुलाना पड़ेगा. ऐसा न हो, इसका ध्यान रखो.

ऑडिटोरियम की ओर चलते हुए उन्होंने हमसे कहा कि बच्चे हैं, थोड़ी बहुत शैतानी अभी नहीं करेंगे तो कब करेंगे. बड़े हो कर करेंगे तो क्या अच्छा लगेगा. हमारा काम ही है इन्हें अच्छाई की ओर ले जाना. यह सब कहते हुए प्राचार्य के चेहरे पर मंद मुस्कान तैर गई, जो हमें खुश कर गया.

सच कहते हैं अच्छे लीडर के कार्यशैली की छाप संस्था के हर कर्मी पर दिखाई पड़ती है. गार्ड की बात तो कर ही चुके हैं हम, क्यों?
  
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Wednesday, August 22, 2018

आज की बात : मानव तस्करी और हम

                                                                                                 -मिलन सिन्हा
रांची से प्रकाशित आज के कई अखबारों में मानव तस्करी  से जुड़ी खबर है. यह बात सामने आ रही है कि झारखण्ड राज्य की 15 हजार बालिकाएं ट्रैफिकिंग की शिकार हो रहीं हैं. द ट्रैफिकिंग ऑफ़ पर्सन बिल, 2018 की चर्चा भी हो रही है. यह बिल लोकसभा में पारित हो चुका है. आशा करनी चाहिए कि राज्यसभा से भी पारित  होने के बाद इस कानून के तहत मानव तस्करी पर लगाम लगाने में प्रशासन को कुछ और आसानी होगी.

दरअसल, पिछले कई वर्षों से मानव तस्करी की घटनाएं उत्तरोत्तर बढ़ती रही है. उसमें भी चाइल्ड ट्रैफिकिंग, खासकर गर्ल्स ट्रैफिकिंग में चिंताजनक वृद्धि दर्ज हुई है. अपेक्षाकृत पिछड़े प्रदेशों में ये घटनाएं अप्रत्याशित  रूप से बढ़ी है. झारखण्ड प्रदेश इनमें शामिल है. अखबारों में यहाँ की लड़कियों जिनमें आदिवासी लड़कियों की संख्या अधिक होती है, के अन्य प्रदेशों एवं महानगरों में ले जाकर बेचने तथा कई अवांछित कार्य में ढकेलने की ख़बरें छपती रही हैं. अब तो मानव तस्करी के घृणित अपराध के पीछे के एक अन्य कारण के रूप में अंग विक्रय भी शुमार हो चुका है.

कहने की जरुरत नहीं कि समाज में व्याप्त गरीबी, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा आदि तो जाने-अनजाने मानव तस्करी में लिप्त असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती है, तथापि इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता, अनेक मामलों में संलिप्तता और घटनाओं के प्रकाश में आने के बाद भी कार्रवाई में शिथिलता के साथ-साथ कई राजनीतिक एवं सफेदपोश लोगों को बचाने के चक्कर में मानव तस्करी की घटनाएं इस हद तक बढ़ पाई है.

विचारणीय प्रश्न यह है कि सिर्फ नए कानून बना देने मात्र से इन घटनाओं को रोकना संभव हो पायेगा? मेरे विचार से तो नहीं. इसके लिए सोशल डेवलपमेंट इंडेक्स में उत्तरोत्तर तीव्र गुणात्मक सुधार की आवश्यकता तो है ही, पुलिस प्रशासन को संवेदनशील बनाने और उनकी जिम्मेदारी तय करने की भी उतनी ही आवश्यकता है. मानव तस्करी के सभी लंबित मामलों को एक समयावधि में निपटाने के लिय न्यायपालिका को भी कोई रास्ता निकालना पड़ेगा. तस्करी के शिकार बच्चों, खासकर लड़कियों को समुचित काउंसलिंग तथा सामाजिक पुनर्वास की सुविधा सुलभ हो, ऐसी व्यवस्था सरकार एवं समाज को मिलकर करनी पड़ेगी. 
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Friday, July 20, 2018

आज की बात : बैंक, स्थापना दिवस और कस्टमर

                                                                                                    - मिलन सिन्हा 
जन्म दिन के तरह ही स्थापना दिवस मनाने का प्रचलन हमारे देश में भी रहा है. बाजारवाद के मौजूदा दौर में यह मार्केटिंग और विज्ञापन का एक बड़ा जरिया भी हो गया है. ऐसे ही एक स्थापना दिवस के अवसर पर आज एक बड़े बैंक के स्थानीय शाखा में आयोजित समारोह में शामिल होने का मौका मिला. बैंकों में इस बात की भी होड़ लगी रहती है कि कौन कितना  हमेशा अपने कस्टमर का ख्याल रखने का विज्ञापन दे सके और गाहे-बगाहे उसका दावा भी करते रहें. बहरहाल, इस शाखा के प्रबंधक और स्टाफ ने शाखा में अनेक नए-पुराने ग्राहकों  को इस अवसर का गवाह बनाया था. शाखा परिसर को अन्दर-बाहर से सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था. कार्यक्रम का औपचारिक शुभारम्भ बैंक के किसी उच्च अधिकारी के कर-कमलों से सुबह 10.30 बजे होना था, पर कतिपय कारणों से विलम्ब होता रहा. शाखा प्रबंधक के लिए ग्राहकों को समझाना और उन्हें रोके रखना कठिन हो रहा था. लेकिन वे यथासाध्य पूरी शालीनता के साथ ऐसा करने में जुटे थे. खैर, उच्चाधिकारी महोदय 12 बजे पहुंचे  और जल्दी-जल्दी सब कुछ निबटा कर आधे घंटे में विदा हो गए. शायद उन्हें किसी और कार्यक्रम में जाने की जल्दी थी. इस बीच उन्होंने न तो उपस्थित ग्राहकों, जो करीब दो घंटे से उनके आने का इन्तजार कर रहे थे, से अपने लेट आने के लिए  कोई क्षमा याचना की और न ही बैंक के विकास में ग्राहकों के अहम योगदान की चर्चा -प्रशंसा ही की.  बेशक उन्होंने फोटो सेशन में अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज जरुर करवाई. 

शाखा के प्रबंधक के अनुरोध के मुताबिक़ ज्यादातर ग्राहक सुबह 10.15 बजे  तक शाखा में आ चुके थे. आमंत्रित लोग भी शाखा में पहुंच चुके थे. पर जैसा कि बताया गया निर्धारित कार्यक्रम 12 बजे के बाद ही शुरू हुआ. कहते हैं न कि हम दूसरों के समय का कोई मोल नहीं समझते और "चलता है" संस्कृति में विश्वास करते हैं.  खैर, सकारात्मक रूप से सोचें तो शायद अच्छा ही हुआ. इस बीच मुझे कुछ लोगों से बातचीत का अवसर जो मिल गया.

गुरुजन सही कहते हैं कि एक स्थान पर कुछ लोग बैठे हों और बातचीत का सिलसिला शुरू न हो, ऐसा नहीं हो सकता है. सो, बातचीत मौसम को ले कर शुरू हुआ. आज सुबह से छिटपुट बारिश हो रही थी. ऐसे पिछले दो-तीन दिनों से अच्छी बारिश हो रही थी रांची और आसपास के इलाकों में. हर स्थानीय अखबार में बारिश के कारण रांची के कई सड़कों पर जाम की स्थिति की खबर के साथ-साथ कई इलाकों के गली-मोहल्ले में जल-जमाव की तस्वीरें भी थी. साथ बैठे प्रसाद जी ने कहा कि रांची का नगर निगम और प्रदेश की सरकार को बारिश के पानी को संग्रहित करने पर ध्यान देना चाहिए जिससे कई सड़कों-गली-मोहल्ले में जल जमाव को रोका जा सकता है. इसका एक बड़ा फायदा यह होगा कि मच्छर के कारण फैलेनेवाले रोगों की आशंका काफी कम होगी. वर्षा के जल को संग्रहित करने से अंडरग्राउंड वाटर लेवल में सुधार होगा और तालाबों-जलाशयों में संग्रहित जल का उपयोग कई प्रकार से करना भी संभव होगा. बताते चलें कि हर साल फरवरी-मार्च से ही रांची शहर में पानी की किल्लत शुरू हो जाती है जो मानसून के आने के कुछ दिनों बाद तक गंभीर बनी रहती है.

इसी चर्चा में एक अन्य ग्राहक श्री घोष ने बारिश में स्वास्थ्य समस्या के बढ़ने की बात करके यह पूछ लिया कि रांची में ऐसे कितने और कौन से डॉक्टर हैं जो इस मौसम के सामान्य रोगों में दो-तीन दवाइयों से रोगी का उपचार करते हैं. अब तो एक साथ कई लोग इस बातचीत में शामिल हो गए और अपना-अपना अनुभव बताने लगे. एक सज्जन जो दवाई के व्यवसाय से बहुत वर्षों से जुड़े रहे थे, ने स्पष्ट रूप से कहा कि अब बहुत कम डॉक्टर ऐसे हैं जो कम दवाओं और पैथोलॉजिकल टेस्ट के रोग का उपचार करते हैं. इसका मुख्य कारण ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की लालसा भी है. एक और व्यक्ति ने दवा कंपनी और अधिकांश डॉक्टरों के बीच उत्तरोत्तर बढ़ते मधुर संबंध और साथ ही मरीजों पर बढ़ते आर्थिक बोझ पर चर्चा शुरू की तो अन्य कई ग्राहक भी शामिल हो गए. यह चर्चा परवान चढ़ती उससे पहले ही विराम लग गया क्यों कि मुख्य अतिथि कार्यक्रम का उद्घाटन हेतु आ चुके थे. खैर, स्थापना दिवस के बहाने कई और विषयों पर मेरी स्थापित मान्यताओं को नया आयाम तो मिल ही गया. शाखा प्रबंधन और उसके ग्राहकों को धन्यवाद, बधाई एवं शुभकामनाएं.  

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Sunday, July 15, 2018

मेघ आये बड़े बन-ठन के - बच्चों को पढ़ने दें प्रकृति का रंग-रूप

                                                                       -मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर...  

आज सुबह से ही मुझे कुछ अच्छा होने का आभास हो रहा था. इसी वजह से बालकनी में बैठा प्रकृति के इस खूबसूरत एहसास को खुद में समेटने की कोशिश कर रहा था. प्रकृति विज्ञानी तो पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की हरकतों से जान जाते हैं कि प्रकृति आज कौन-सा नया रंग दिखाने वाली है. अचानक तेज हवा चलने लगी. बादल उमड़-घुमड़ आने-जाने लगे और बस बारिश शुरू हो गयी. एकदम झमाझम. बालकनी से घर के सामने और बगल में फैले आम, नीम, यूकलिप्ट्स, सहजन, अमरुद आदि के पेड़ों को बारिश में बेख़ौफ़ हंसते-झूमते देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा था. सामने की भीड़ वाली सड़क पर अभी इक्के-दुक्के लोग छाता सहित या रहित आ-जा रहे थे. सड़क किनारे नाले में पानी का बहाव तेज हो गया था, पर सड़क पर कहीं बच्चे नजर नहीं आ रहे थे. यही सब देखते-सोचते पता नहीं कब अतीत ने घेर लिया. 

बचपन में बारिश हो और हम जैसे बच्चे घर में बैठे रहें, नामुमकिन था. किसी न किसी बहाने बाहर जाना था, बारिश की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते हुए न जाने क्या-क्या करना था. हां, पहले से बना कर रखे विभिन्न साइज के कागज़ के नाव को बारिश के बहते पानी में चलाना और पानी में छप-छपाक करना सभी बच्चों का पसंदीदा शगल था. नाव को तेजी से भागते हुए देखने के लिए उसे नाले में तेज गति से बहते पानी में डालने में भी हमें कोई गुरेज नहीं होता था. फिर उस नाव के साथ-साथ घर से कितनी दूर चलते जाते, अक्सर इसका होश भी नहीं होता और न ही रहती यह फ़िक्र कि घर लौटने पर मां कितना बिगड़ेंगी .... अनायास ही गुनगुना उठता हूँ, ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे ... ... ...’  

आकाश में बिजली चमकी और गड़गड़ाहट हुई तो वर्तमान में लौट आया. यहाँ तो कोई भी बच्चा बारिश का आनंद लेते नहीं दिख रहा है, न कोई कागज़ के नाव को बहते पानी में तैराते हुए. क्या आजकल बच्चे बारिश का आनंद नहीं लेना चाहते या हम इस या उस आशंका से उन्हें इस अपूर्व अनुभव से वंचित कर रहे हैं या आधुनिक दिखने-दिखाने के चक्कर में बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं. शायद किसी सर्वे से पता चले कि महानगर और बड़े शहरों में सम्पन्नता में पलनेवाले और बड़े स्कूल में पढ़नेवाले बच्चों के लिए कहीं उनके अभिभावकों ने इसे अवांछनीय तो घोषित नहीं कर रखा है. खैर, अच्छी बात है कि अब तक गांवों तथा कस्बों के आम बच्चे प्रकृति से जुड़े हुए हैं और इसका बहुआयामी फायदा पा रहे हैं. इस सन्दर्भ में मुझे  सर्वेश्वरदयाल सक्सेना  की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं :
"मेघ आए 
बड़े  बन-ठन के सँवर के.
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए 
 बड़े  बन-ठन के सँवर के. ... ..."
विचारणीय प्रश्न है कि हम कहीं जाने-अनजाने अपने बच्चों को प्रकृति के अप्रतिम रूपों को देखने-महसूसने से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, उन्हें कृत्रिमता के आगोश में तो नहीं  धकेल रहे हैं?  
कहने  का तात्पर्य बस यह कि बच्चों को अपना बचपन जीने दें, उन्हें उसका मजा लेने दें और उन्हें स्वभाविक ढंग से प्रकृति से जुड़ने दें क्यों कि हम सभी जानते और मानते हैं कि हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत समय बचपन ही होता है और प्रकृति से बेहतर कोई शिक्षक नहीं होता. 

मेरा तो मानना है कि गर्मी के मौसम के बाद नीले आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों में संग्रहित जल-बूंदों का वर्षा की शीतल फुहार के रूप में धरती पर आने के पीछे के मौसम विज्ञान के विषय में बड़े-बुजुर्ग बच्चों को बताएं. बारिश के इस मौसम का खान-पान से लेकर  गाँव, खेत-खलिहान, कृषि कार्य, अन्न उत्पादन, अर्थ व्यवस्था  आदि पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव के बारे में हमारे अनुभव व वैज्ञानिक जानकारी से उन्हें लाभान्वित करें. आम, जामुन, कटहल, नाशपाती, अमरुद जैसे मौसमी फलों का हमारे स्वास्थ्य पर होने वाले लाभकारी असर की जानकारी बच्चों को दें. 

बच्चे जो देखते हैं उससे बहुत कुछ सीखते हैं. लिहाजा यह बेहतर होगा कि हम उन्हें बाहर जाने दें, खुद भी ले जाएं - अपने या आसपास के गांव-क़स्बा में और जमीनी हकीकत से रूबरू होने दें, प्रकृति के इस मनमोहक इन्द्रधनुषी रंग-रूप को बढ़िया से देखने, पढ़ने और एन्जॉय करने दें. दिलचस्प बात है कि उन्हें इस मौसम में कई जगह लड़कियों और महिलाओं को लोकगीत गा कर वर्षा के मौसम का स्वागत करते और पीपल, बरगद, आम, कटहल, नीम आदि के पेड़ों की टहनियों में झूला डालकर इस मौसम का आनन्द उठाते देखने और उसमें शिरकत करने का मौका भी मिलेगा. इस तरह वे अपनी संस्कृति व परम्परा से जुड़ते भी जायेंगे. 

एक बात और. सभी जानते हैं, जल नहीं तो कल नहीं; जल ही जीवन है. ऐसे में अगर बच्चे बचपन से ही जल चक्र की पूरी प्रक्रिया को आत्मसात करेंगे और वर्षा के पानी का  हमारे जीवन चक्र पर जो बहुआयामी प्रभाव होता है उसे भी जानेंगे और महसूस करेंगे, तभी वे जल की महत्ता को ठीक से समझेंगे. इस प्रक्रिया में उनका मन-मानस भी परिष्कृत एवं समृद्ध होगा और वे स्वतः "सर्वे भवन्तु सुखिनं" के विचार को जीना सीखेंगे.

कुल मिलाकर देखें तो नभ से झरते बारिश की बूंदों को सन्दर्भ में रखकर हम अपने बच्चों, जो भविष्य के नागरिक भी हैं, को स्वभाविक ढंग से प्रकृति से जुड़ने और जीवन को समग्रता में जीने व एन्जॉय करने का स्वर्णिम अवसर दे सकते हैं. बूंद-बूंद करके ही सही बहुत अच्छी चीजों से उन्हें लैस कर सकते हैं. 

हां, एक और बात. कहा जाता है कि बारिश में स्नान करने से घमौरियां ख़त्म हो जाती हैं, किसी तरह के कूल-कूल पाउडर की जरुरत नहीं होती. हमने तो ऐसा पाया है. क्या आपने भी ?  

                                                                                  ( hellomilansinha@gmail.com)
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Thursday, June 21, 2018

बेहतर स्वास्थ्य के लिए योग से जुड़ें

                                                   -मिलन सिन्हा, योग विशेषज्ञ एवं मोटिवेशनल स्पीकर

विश्वभर के 170 से ज्यादा देश आज (21 जून) चौथा “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” मना रहे हैं. स्वभाविक रूप से हमारे लिए यह उत्सव और गौरव का दिन है. देश के हर हिस्से में हर उम्र के लोग आज इस योग उत्सव में शामिल होंगे. दरअसल, आज तेज रफ़्तार जिन्दगी में तमाम दुश्वारियों और उससे जुड़े अनेकानेक रोगों से जूझते करोड़ों लोगों के स्वस्थ और सानंद रहने का सरल एवं सुगम समाधान तो योग से जुड़ कर ही प्राप्त किया जा सकता है. आज इस अवसर पर कुछ प्रमुख रोगों के लिए उपयुक्त योगाभ्यासों के विषय में जानते हैं:

1.रोग: मानसिक तनाव (स्ट्रेस)
उपयुक्त योगक्रिया: भ्रामरी प्राणायाम 
विधि: किसी भी आरामदायक आसन जैसे सुखासन, अर्धपद्मासन में सीधा बैठ जाएं. शरीर को ढीला छोड़ दें. आँख बंद कर लें. अब प्रथम अंगुलियों (तर्जनी) से दोनों कान बंद कर लें. दीर्घ श्वास लें और भंवरे की तरह ध्वनि करते हुए मस्तिष्क में इन ध्वनि तरंगों का अनुभव करें. यह एक आवृत्ति है . इसे 5 आवृत्तियों से शुरू कर यथासाध्य रोज बढ़ाते रहें.  
अवधि: रोजाना 5-10 मिनट 
लाभ: यह प्राणायाम मस्तिष्क की कोशिकाओं को सक्रिय करता है; गले में स्पंदन पैदा करता है जिससे गले के सामान्य रोगों में लाभ तो मिलता ही है, स्वर में मधुरता भी लाता है. क्रोध, दुश्चिंता, उच्च रक्तचाप आदि में भी लाभकारी.

2.रोग: मधुमेह (डायबिटीज)
उपयुक्त योगक्रिया: पश्चिमोत्तानासन 
विधि: दोनों हथेलियों को जांघ पर रखते हुए पांवों को सामने फैला कर सीधा बैठ जाएं. श्वास छोड़ते हुए सिर को धीरे-धीरे आगे की ओर झुकाते हुए हाथ की अँगुलियों से पैर के अंगूठों को पकड़ने की कोशिश करें और माथे को घुटने से स्पर्श करने दें. शुरू में जितना झुक सकते हैं, उतना ही झुकें. अंतिम स्थिति में जितनी देर रह सकें, रहें और फिर श्वास लेते हुए प्रथम अवस्था में लौटें. इसे 5-10 बार करें. 
अवधि: रोजाना 5-8 मिनट 
सावधानी: पीठ दर्द, साइटिका और उदार रोग से पीड़ित लोग इसे न करें.
लाभ: इससे उदर-संस्थान के सभी अंगों की क्रियाशीलता बढ़ती है; मेरुदंड की नसों और मांसपेशियों में खून के प्रवाह में सुधर होता है; पेट के आसपास की चर्बी घटती है. गुर्दे और श्वसन संबंधी रोगों में भी इस आसन का सकारात्मक असर होता है. 

3.रोग: ह्रदय रोग 
उपयुक्त योगक्रिया: उज्जायी प्राणायाम 
विधि: आराम के किसी भी आसन में सीधा बैठ जाएं. शरीर को ढीला छोड़ दें. अपने जीभ को मुंह में पीछे की ओर इस भांति मोड़ें कि उसके अगले भाग का स्पर्श ऊपरी तालू से हो. अब गले में स्थित स्वरयंत्र को संकुचित करते हुए मुंह से श्वसन करें और अनुभव करें कि श्वास क्रिया नाक से नहीं, बल्कि गले से संपन्न हो रहा है. ध्यान रहे कि श्वास क्रिया गहरी, पर धीमी हो. इसे 10-20 बार करें. 
अवधि: रोजाना 5-8 मिनट 
लाभ: इस योग क्रिया से ह्रदय की गति संतुलित रहती है; पूरे नर्वस सिस्टम पर गहरा सकारात्मक असर पड़ता है; मन-मानस को शांत करके अनिद्रा से परेशान लोगों को राहत देता है. ध्यान के अभ्यासियों के लिए बहुत ही फायदेमंद.  

4.रोग: पीठ व कमर दर्द (बेक पेन) 
उपयुक्त योगक्रिया: भुजंगासन 
विधि: पांव को सीधा करके पेट के बल लेट जाएं. माथे को जमीन से सटने दें. हथेलियों को कंधे के नीचे जमीन पर रखें. अब श्वास लेते हुए धीरे-धीरे सिर तथा कंधे को हाथों के सहारे जमीन से ऊपर उठाइए. सर और कंधे को जितना पीछे की ओर ले जा सकें, ले जाएं. ऐसा लगे कि सांप अपना फन उठाये हुए है. श्वास छोड़ते हुए धीरे-धीरे वापस प्रथम अवस्था में लौटें. इसे 5-10 बार दोहरायें.  
अवधि: रोजाना 5 मिनट 
सावधानी: हर्निया, आंत संबंधी रोग से ग्रसित लोग इसे न करें.
लाभ: इसके एकाधिक लाभ हैं. इससे अभ्यास से मेरुदंड लचीला और मजबूत होता है; पेट, किडनी, लीवर आदि ज्यादा सक्रिय होते हैं; महिलाओं के प्रजनन संबंधी तकलीफों को दूर करने में मदद मिलती है.  यह आसन कब्ज को दूर करने और भूख को बढाने में भी असरकारी है.  

5.रोग: गुर्दा (किडनी) रोग
उपयुक्त योगक्रिया: शशांक आसन 
विधि: वज्रासन यानी घुटनों के बल पंजों को फैला कर सीधा ऐसे बैठें कि  घुटने पास-पास एवं एड़ियां अलग-अलग रहे. हथेलियों को घुटनों पर रखें. श्वास लेते हुए धीरे-धीरे हांथों को ऊपर उठाएं. अब श्वास छोड़ते हुए धड़ को सामने पूरी तरह झुकाएं जिससे कि माथा और सामने फैले हाथ जमीन को स्पर्श करें. श्वास लेते हुए धीरे-धीरे प्रथम अवस्था में लौटें. इसे रोजाना 10 बार करें.   
अवधि: रोजाना 6-8 मिनट 
सावधानी: स्लिप डिस्क से पीड़ित लोग इसका अभ्यास न करें.
लाभ: इससे एड्रिनल ग्रंथि की क्रियाशीलता में सुधर होता है; मूलाधार चक्र को जागृत करने में सहायता मिलती है; कब्ज की समस्या में लाभ पहुंचता है; कुल्हे और उसके आसपास की मांशपेशियों को सामान्य बनाए रखने में सहायता  मिलती है. 

6.रोग: सर दर्द, माइग्रेन 
उपयुक्त योगक्रिया: अनुलोम-विलोम 
विधि: वज्रासन को छोड़ आराम के किसी भी आसन में सीधा बैठ जाएं. शरीर को ढीला छोड़ दें. हाथों को घुटने पर रख लें. आँख बंद कर लें और सारा ध्यान श्वास पर केन्द्रित करें. अब दाहिने हाथ के प्रथम और द्वितीय (तर्जनी तथा मध्यमा) अंगुलियों को ललाट के मध्य बिंदु पर रखें और तीसरी अंगुली (अनामिका) को नाक के बायीं छिद्र के पास और अंगूठे को दाहिने छिद्र के पास रखें. अब अंगूठे से दाहिने छिद्र को बंद कर बाएं छिद्र से दीर्घ श्वास लें और फिर अनामिका से बाएं छिद्र को बंद करते हुए दाहिने छिद्र से श्वास को छोड़ें. इसी भांति अब दाहिने छिद्र से श्वास लेकर बाएं से छोड़ें. यह एक आवृत्ति है. इसे कम–से-कम 10-15 बार करें.  
अवधि: रोजाना 5-7 मिनट 
लाभ: नाड़ी शोधन प्राणायाम का यह सबसे सरल अभ्यास है. इससे शरीर में ऑक्सीजन का प्रवाह बढ़ता है और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का निष्कासन होता है;  रक्त शुद्ध होता है; मस्तिष्क की कोशिकाएं सक्रिय होती है जिससे ब्रेन बेहतर रूप में कार्य करता है; मन–मानस को शान्ति मिलती है और मानसिक तनाव भी कम होता है.  
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# लोकप्रिय अखबार 'प्रभात खबर' के सभी संस्करणों में एक साथ प्रकाशित 
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Tuesday, May 8, 2018

शान्ति बनाम उन्नति

                                                                                                  - मिलन सिन्हा

हमारा देश विविधताओं से भरा एक विशाल देश है. ‘अनेकता में एकता’ विश्व के इस सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की अनूठी पहचान रही है. हम यह भी जानते हैं कि किसी भी देश को मजबूत बनाने के लिए व्यक्ति व समाज का मजबूत होना अनिवार्य है. इसके लिए देश में होने वाले सामाजिक-आर्थिक विकास का लाभ समाज के सभी तबके को मिलना जरुरी है. और विकास के रफ़्तार को बनाये रखने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों–समुदायों के बीच एकता और भाईचारा का होना आवश्यक है. इतने बड़े देश में कारण-अकारण घटनाएं–दुर्घटनाएं होना अस्वाभाविक भी नहीं है, जिसके रोकथाम के लिए सतत प्रयासरत रहना प्रशासन की बुनियादी जिम्मेदारी है. 

हर अमन पसंद एवं विकासोन्मुख देश की तरह हमारे देश में भी अधिकांश लोग शान्ति, एकता और विकास के पक्षधर हैं; न्यायपालिका सहित देश के सभी संवैधानिक संस्थाओं पर उनका विश्वास है; वे तोड़-फोड़ या दंगे-फसाद में शामिल नहीं होते हैं और कानून का सम्मान करते हैं. विरोध की नौबत आने पर  वे सत्याग्रह जैसे अचूक माध्यम का सहारा लेते हैं. इसके विपरीत, कुछ मुट्ठी भर लोग हर घटना–दुर्घटना के वक्त येन-केन प्रकारेण समाज में विद्वेष व  घृणा का माहौल बनाने की चेष्टा करते हैं, जिससे वे अपना निहित स्वार्थ सिद्ध कर सकें. दुर्भाग्यवश, इन असामाजिक तत्वों को किसी–न–किसी रूप में राजनीति का सहारा मिल जाता है और फिर तो  इन ताकतों के कुत्सित चालों को मानो गति मिल जाती है. ऐसी ही स्थिति में ऐसे तत्व धर्म, जाति, अगड़े-पिछड़े को मुद्दा बनाकर भोले-भाले लोगों को बहकाने, भड़काने और अंततः सामाजिक सदभाव को  नष्ट करने का काम करते हैं. ऐसे ही लोग देश के विभिन्न हिस्सों में छोटी -बड़ी घटनाओं–दुर्घटनाओं के बाद अकारण ही निजी एवं सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने में आगे रहते हैं; समाज में उन्माद एवं अविश्वास का बीज बो कर विकास के गति को क्षति पहुंचाते हैं. इससे सबसे ज्यादा  नुकसान समाज के सबसे गरीब लोगों को होता है. 

कहने  की जरुरत नहीं कि ऐसे हर मौके पर समाज के सभी  अमन पसंद एवं जागरूक लोगों, खासकर युवाओं  को  मिलजुल कर ऐसे स्वार्थी तत्वों के नापाक इरादों को बेनकाब करते रहने की आवश्यकता है, जिससे प्रशासन को इनके विरुद्ध त्वरित कार्रवाई करने में कुछ आसानी हो जाय. तभी हम सब शान्ति व खुशहाली के साथ रहते हुए देश और समाज को उन्नत व मजबूत बना पायेंगे. (hellomilansinha@gmail.com)

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Sunday, April 1, 2018

यात्रा के रंग : भारत-चीन सीमा की ओर -7 (लौटने का क्रम)

                                                                                        - मिलन सिन्हा
गतांग से आगे ... ...  वहां से लौटते हुए भी कई स्थानों पर रुकने की इच्छा हो रही थी, लेकिन ड्राईवर ने यह कह कर मना  किया कि आगे सोमगो अर्थात छान्गू झील पर ज्यादा वक्त गुजारना  बेहतर होगा. सही कहा था उसने.  ऐसा सोमगो अर्थात छान्गू झील पहुंचने पर हमें लगने लगा. 

ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच में मुख्य सड़क के बिलकुल बगल में है यह लम्बा खूबसूरत  झील. गाड़ी रुकते ही हम उतर कर झील के किनारे पहुंच गए. तुरत ही सामने से बड़ा-सा काला-सफ़ेद याक आ पहुंचा. याक की आंखें कुछ बोल रही थी, शायद यह कि यहां आये हैं तो मेरी सवारी का भी आनन्द ले लीजिए, अच्छा लगेगा आपको और मुझे भी. मेरा मालिक भी खुश होगा और आपके  जाने के बाद मुझे सहलायेगा, प्यार से खिलायेगा .... हमारे मालिक के लिए यह आमदनी का छोटा जरिया है, क्यों कि साल के कुछ ही महीने आप जैसे पर्यटक आ पाते हैं यहाँ... कहते हैं, बच्चे भगवान का रूप होते हैं, मन की बात खूब समझते हैं. याक भी कैसे अपनी भावना उनसे छुपा पाता. तो बच्चे याक की सवारी के लिए मचलने लगे. युवा और महिलायें भी साथ हो लिए. एक-एक कर सब सवारी का मजा ले रहे थे. फोटो सेशन भी हुआ. सेल्फी का दौर तो चलना ही था. बताते चलें कि याक के सींगों को कलात्मक ढंग से रंगीन कपड़ों से सजाया गया था. उसके पीठ पर रखा हुआ गद्दा भी सुन्दर लग रहा था. 


दिन ढल रहा था, पहाड़ों पर फैले बर्फ की चादरों का रंग बदलता जा रहा था, गंगटोक लौटने वाली गाड़ियां लम्बी कतार में खड़ी थीं, ठंढ से ठिठुरते लोगों की भीड़ चाय-काफी की दुकानों में लगी थी, बच्चे दोबारा याक की सवारी की जिद कर रहे थे... सच कहें तो मनोरम दृश्य के बीच ये सारी बातें फील गुड, फील हैप्पी का एहसास करवा रही थी. अंधेरा होने से पहले गंगटोक पहुंचने की बाध्यता नहीं होती तो किसे लौटने की जल्दी होती ! खैर, गाड़ी में आ बैठे हम मन-ही-मन यह दोहराते हुए : जल्दी ही आऊंगा फिर एक बार, देखेंगे-सीखेंगे और भी बहुत कुछ, करेंगे हर किसी से बातें भी दो-चार... …         (hellomilansinha@gmail.com)                                                                                                
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# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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Friday, March 16, 2018

यात्रा के रंग : भारत-चीन सीमा की ओर -6 (अब बाबा मंदिर...)

                                                                                                 - मिलन सिन्हा 

गतांक से आगे ... ...  ड्राईवर गाड़ी बढ़ा चुका था उल्टी दिशा में यानी गंगटोक की ओर. रास्ते में बाबा मंदिर और सोमगो अर्थात छान्गू झील पर भी तो हमें रुकना था. 
बस दस मिनट में हम आ गए बाबा मंदिर,  बीच में एक स्थान पर रुकते हुए. रुकने का सबब यह था कि सड़क के दोनों ओर पहाड़ की तलहटी तक बर्फ फैला था और हम सबों का मन बच्चों की तरह मचल रहा था, बर्फ से खेलने को; फोटो खिचवाने को. बर्फ की बहुत मोटी परत यहां से वहां सफ़ेद मोटे बिछावन की तरह बिछी हुई थी. अदभुत.



चारों ओर बर्फ ही बर्फ. हिमपात जारी था, सो बहुत दूर तक साफ़ देखना कठिन हो रहा था. ठंढ भी उतनी ही. खैर, बच्चों और युवाओं ने तो बहुत धमाचौकड़ी और मस्ती की. बर्फ के बॉल बना-बनाकर एक-दूसरे पर निशाना साधा गया. कुछ लोग पहाड़ पर थोड़े ऊपर तक फिसलते हुए चढ़े भी. सेल्फी का दौर भी खूब चला. बड़े –बुजुर्गों ने भी बर्फ पर बैठकर-लेटकर उस पल का आनंद लिया और कुछ फोटो खिंचवाए, कुछ खींचे भी.तभी हमारी नजर भारत तिब्बत सीमा पुलिस के एक बोर्ड पर पड़ी. लिखा था, “ ताकत वतन की हमसे है, हिम्मत वतन की हमसे है....” सच ही लिखा है. ऐसे कठिन परिस्थिति में अहर्निश देश सेवा वाकई काबिले तारीफ़ है. 


इधर, सड़क किनारे खड़ी गाड़ी में बैठे ड्राईवर हॉर्न बजा-बजा कर हमें जल्दी लौटने का रिमाइंडर देते रहे. सो इन अप्रतिम दृश्यों को आँखों और कैमरे में समेटे हम लौट आये.
  
बाबा मंदिर के पास पार्किंग स्थल पर बड़ी संख्या में सुस्ताते गाड़ियों को देखकर अंदाजा लग गया था कि मंदिर में काफी भीड़ होगी. अब हम मंदिर के बड़े से प्रांगण में आ गए थे. यहां तीन कमरों के समूह में बीच वाले हिस्से में बाबा हरभजन सिंह के मूर्ति स्थापित है और सामने दीवार पर उनका एक फोटो भी लगा है. बगल के एक कमरे में उनसे जुड़ी सामग्री मसलन उनकी वर्दी, कुरता, जूते, बिछावन आदि बहुत तरतीब से रखे गए हैं. पर्यटक और श्रद्धालु  उन्हें श्रद्धा  सुमन अर्पित कर निकल रहे थे. 



वहां से बाहर आते ही हमें सामने पहाड़ के बीचोबीच  शिव जी की एक बड़ी सी सफ़ेद मूर्ति दिखाई दी. दूर से भी बहुत आकर्षक लग रहा था. कुछ लोग पहाड़ी रास्ते से वहां भी पहुंच रहे थे. समयाभाव के कारण हम वहां न जा सके. हमें ड्राईवर दिलीप ने बताया कि सामान्यतः वैसे पर्यटक जिन्हें सिर्फ बाबा मंदिर तक आने का ही परमिट मिलता है, उनके पास थोड़ा ज्यादा वक्त होता है और उनमें से ही कुछ लोग ऊपर शिव जी की मूर्ति तक जाते हैं.   ...आगे जारी.   (hellomilansinha@gmail.com)                                                                                                
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# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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Tuesday, March 13, 2018

यात्रा के रंग : भारत-चीन सीमा की ओर -5 (अब सीमा पर)

                                                                                                   - मिलन सिन्हा 
गतांक से आगे ...    तो अब गाड़ी से उतर कर हम चले वास्तविक भारत –चीन सीमा पर. इसके लिए सीढ़ियों से होकर ऊपर जाना पड़ता है. चूँकि रास्ते में जो हिमपात का सिलसिला शुरू हुआ था वह यहां पहुंचने पर और तेज हो गया था. सो, सीढ़ियां बर्फ से ढंक चुकी थी और  चलना  कठिन हो गया था. तेज हिमपात के कारण तापमान काफी गिर चुका था. ऑक्सीजन की कमी भी महसूस होने लगी थी. बावजूद इसके हमारा  हौसला बुलंद था. हम एक दूसरे का हाथ पकड़े धीरे –धीरे आगे बढ़ने लगे. बर्फ से ढंकी सीढ़ियों पर ऊपर की ओर जाने का यह अनुभव अपूर्व था. थोड़ा आगे बढ़ने  पर सेना के एक जवान ने हमें सुरक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी कुछ हिदायतें दी और हमारी हौसला आफजाई भी की. हमें अच्छा लगा, उत्साह में इजाफा हो गया. घुमावदार  रास्ते से ऊपर जाना था. बच्चे और युवा तेजी से आगे बढ़ रहे थे. बुजुर्ग धीरे-धीरे और रुक-रुक कर. ऑक्सीजन की कमी से दम फूल रहा था. इस रास्ते चलते हुए बेनीपुरी जी की लिखी एक बात याद आ गई – जवानी की राह फिसलनभरी होती है. हालांकि यहां तो बर्फ के रास्ते  फिसलनभरे साबित हो रहे थे. नीचे बर्फ, निरंतर  हिमपात और ऊपर से बहती ठंढी हवा. कुल मिलाकर हाथ-पांव ही नहीं पूरा शरीर ठंड से ठिठुरने लगा. तभी दो कदम ऊपर एक छोटा- सा कमरा  दिखा जहां लोग अंदर-बाहर कर रहे थे. हम लपक कर उस कमरे के अंदर गए. आश्चर्य हुआ. वह एक छोटा रेस्टोरेंट था जहां चाय-कॉफ़ी के अलावे समोसा, बिस्कुट आदि भी बिक रहा था. देख कर हमें बहुत खुशी हुई. उस मौसम में उस ऊंचाई पर यह सब उपलब्ध होना आशातीत था. झट से कॉफ़ी का गर्म गिलास लिया और पहली चुस्की ली. कॉफ़ी अच्छी थी. बेशक स्वाद कुछ अलग सा लगा. पूछने पर पता चला कि यहां याक के दूध का ही प्रयोग होता है. रास्ते में कई स्थानों पर याक दिखाई तो पड़े थे, पर यह मालूम न था कि इस इलाके में याक के दूध ही बहुतायत में उपलब्ध हैं और सामान्यतः उसी का उपयोग किया जाता है. कहा जाता है कि शारीरिक तापमान एवं रक्तचाप को ठीक बनाए रखने में कॉफ़ी बहुत लाभदायक है.

कॉफ़ी आदि लेने एवं वहां थोड़ी देर रुकने पर शरीर में उर्जा और उत्साह फिर से भर गया और हम निकल पड़े कठिनतर रास्ते से ऊपर पहुंचने को. निकलते ही रास्ते में उक्त रेस्टोरेंट के बगल में एक और कमरा दिखा जिसके बाहर चिकित्सा सुविधा कक्ष लिखा था. वहां सेना के मेडिकल स्टाफ ऑक्सीजन सिलिंडर एवं जरुरी दवाइयों के साथ मुस्तैद थे. हमें  बहुत सकून मिला; हम थोड़ा और आश्वस्त हुए. मन-ही-मन भारतीय सेना के जज्बे को सलाम करते हुए हम आगे बढ़ चले. आगे बढ़ने में दिक्कत तो हो रही थी, परन्तु ऊपर सीमा पर लहराता तिरंगा और उसकी आन-बान-शान को अक्षुण्य बनाये रखने को सर्वदा तत्पर एवं मुस्तैद भारतीय सेना के जवानों को  देखते तथा प्रेरित होते हुए आखिरकार हम पहुंच गए नाथू ला के भारत –चीन सीमा पोस्ट पर. हम सभी बहुत रोमांचित थे. आसपास सिर्फ बर्फ ही बर्फ. दूर जहां तक नजर गई, सभी पहाड़ बर्फ से आच्छादित थे. छोटे-छोटे सफ़ेद-भूरे बादल सर के ऊपर से आ-जा रहे थे. उनके लिए सीमा का बंधन जो नहीं था. इस अभूतपूर्व प्राकृतिक दृश्य के हम भी गवाह बन पाए, इसकी खुशी थी. 

14200 फीट ऊँचे बर्फ से ढंके पहाड़ पर कांटे तार की जाली से सीमा निर्धारित थी. इस पार  हमारे सैनिक गश्त लगा रहे थे तो उस पार चीनी सेना के जवान. वहां तैनात एक-दो जवानों से हमारी थोड़ी बातचीत हुई; देश को सुरक्षित रखने के लिए हमने उनके प्रति आभार व्यक्त किया और उन्हें शुभकामनाएं दी. सच मानिए, वहां खड़े होकर हमारे मन में न जाने कितने अच्छे ख्याल आ रहे थे. मसलन, दुनिया के छोटे-बड़े सभी  देश अगर एक दूसरे की भौगोलिक सीमा का पूरा सम्मान करे तो हर देश के रक्षा बजट में कितनी कमी आ जाय; उन पैसों का इस्तेमाल अगर गरीबी, बीमारी, भूखमारी आदि के उन्मूलन के लिए किया जाय तो विश्व के सारे देश मानव विकास सूचकांक में कितना आगे बढ़ जाएं.... ....

बहरहाल, यथार्थ  में लौटते हुए ध्यान आया कि हमारे गाड़ी के चालक ने घंटे भर के अन्दर लौट आने के लिए कहा था. तो हम लौटने के लिए तत्पर हुए. हिमाच्छादित पहाड़ से नीचे उतरना भी कम जोखिम भरा नहीं होता है. इस अनुभव से हम गुजर रहे थे. हमसे थोड़ा  आगे चलते एक युवा दंपति को अभी-अभी फिसलते एवं चोटिल होते देखा था. वो तो उनके साथ चलते लोगों ने उन्हें बीच में ही सम्हाल लिया, नहीं तो बड़ी क्षति हो सकती थी. खैर, साथी हाथ बढ़ाना की भावना को साकार करते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बहुत धीरे-धीरे हम नीचे तक सुरक्षित आ गए. हमारे सह-यात्री भी आ चुके थे. गाड़ी में बैठे तो शुरू हो गई बातें  सीमा पर  बिताये उन यादगार पलों की.  ...आगे जारी.   (hellomilansinha@gmail.com)                                                                                                
                         और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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