Monday, December 5, 2016

यात्रा के रंग : अब पुरी की ओर -2 (राउरकेला का महत्व)

                                                                                              - मिलन सिन्हा 
गतांक से आगे ... करीब तीन घंटे के बाद एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी रुकी और डिब्बे में हलचल हुई. कुछ लोग उतरे, कुछ लोग सवार हुए. नीचे उतरा. यह राउरकेला स्टेशन था. वही राउरकेला जो ओड़िशा राज्य के उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित प्रदेश का तीसरा बड़ा शहर है. इस नियोजित शहर को अन्य बातों के अलावे सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित होनेवाले देश के पहले बड़े स्टील प्लांट के लिए जाना जाता है. जर्मनी के सहयोग से स्थापित होने वाले राउरकेला स्टील प्लांट के पहले वात भट्ठी (ब्लास्ट फरनेस) का उदघाटन देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद द्वारा फरवरी,1959 में किया गया था.  

रात हो चुकी थी. राउरकेला स्टेशन का प्लेटफार्म बिलकुल साफ़ –सुथरा एवं रोशनी में नहाया हुआ लग रहा था. स्टेशन के दूसरे प्लेटफार्म पर नजर गयी तो वहां भी वैसा ही दृश्य था. इन दिनों रेल यात्रा के बेहतर होने, रेल परिचालन एवं व्यवस्था में बेहतरी की बात सुनने को तो मिल ही रही थी, आज देखा तो यकीन हो गया. उम्मीद है, आनेवाले दिनों में यह सिलसिला और सुदृढ़ होगा, क्यों कि उत्कृष्टता कोई मंजिल तो है नहीं, यह भी एक यात्रा ही तो है !

गाड़ी चल पड़ी. लौटा तो पाया कि इस बीच हमारे पास के दो शायिकाओं में ट्रेन में यात्रा के दौरान रात गुजारने दो यात्री आ गए थे. पूछा उनसे तो पता चला कि वे लोग पिछले दो वर्षों से राउरकेला में रहते हैं और आज भुवनेश्वर जा रहे है, एक ऑफिसियल मीटिंग में भाग लेने. राउरकेला के बाबत कुछ और जानने की इच्छा प्रबल हो उठी, सो उनसे पूछ बैठा. उन्होंने हमें बताया कि यह शहर सुन्दरगढ़ जिले में बसा है जो खनिज सम्पन्न इलाका है. दरअसल, यह एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है जो आधुनिकता और पारंपरिकता के साथ-साथ  जनजातीय संस्कृति को भी बढ़िया से समेटे हुए है. औद्योगिक शहर होने के कारण यहाँ देश के हर प्रदेश के लोग रोजगार और नौकरी के सिलसिले में आते-जाते रहते हैं.  1961 में स्थापित राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी, राउरकेला) का भी इसमें विशेष योगदान रहा है. इसे ओड़िशा की व्यवसायिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है. यह इलाका नदियों और पहाड़ों से घिरा है. यहाँ दर्शनीय मंदिर और वॉटरफॉल भी हैं. उन्होंने स्थानीय लोगों के रहन-सहन, खान-पान आदि के बारे में भी बताया. 

कुछ देर बाद वे दोनों ऊपर आमने-सामने के बर्थ पर जा बैठे और फिर उनके बीच कामकाजी बातचीत चल पड़ी. एक ने कहा कि उनके बॉस एक काम ख़त्म होने से पहले ही दूसरे काम के लिए अनावश्यक दवाब बनाना शुरू कर देते हैं. ऑफिस समय के बाद वजह-बेवजह डांट–फटकार करते हैं, नौकरी से निकालने की धमकी तक देते रहते हैं. दूसरा व्यक्ति बीच-बीच में उसे प्रैक्टिकल बनने, बॉस को मैनेज करने, थोड़ा चालाक बनने की सलाह दे रहा था, जिसे उसका साथी यह कह कर नकार रहा था कि जब मै पूरी तन्मयता और ईमानदारी से काम कर रहा हूँ, तो गलत हथकंडे क्यों अपनाऊं? दोनों के बीच काफी समय तक गर्मागर्म बातचीत चलती रही. कहने की जरुरत नहीं कि देश –विदेश में खासकर कॉरपोरेट जगत में कार्यरत लाखों अच्छे व सच्चे युवा कर्मियों के लिए यह  मानसिक तनाव का बड़ा कारण रहा है. इसका बहुआयामी नकारात्मक असर खुद उस व्यक्ति पर तो पड़ता है, उसका परिवार भी उससे दुष्प्रभावित होता है. कहने का सीधा अभिप्राय यह कि कई मायनों में समाज के हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह एक गंभीर विचारणीय विषय था, है और रहेगा जिसका प्रभावी समाधान व्यक्ति-समाज–सरकार को मिलकर ढूंढने की जरुरत है.

नौ बजने को थे. सबने खाने का उपक्रम शुरू किया, सिवाय एक यात्री के. खाना शुरू करने से पहले मैंने पूछा, तो उन्होंने  बताया कि उनका पेट गड़बड़ है. दिन में कुछ ऐसा-वैसा खा लिया था, सो अब उपवास. दवाई है, जरुरत होगी तो ले लेंगे. कहते हैं, उपवास भी पारम्परिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार एक प्रकार का उपचार ही है. शायद तभी भारतीय जीवन पद्धति में उपवास को स्वास्थ्य प्रबंधन का एक अहम हिस्सा माना जाता रहा है.

बहरहाल, अपने-अपने बर्थ पर लेटने के बाद भी बॉस प्रकरण पर कुछ देर तक उन दोनों के बीच चर्चा चलती रही, साथ में सहमति-असहमति का सिलसिला भी. उसी विषय पर विचार एवं समाधान मंथन के क्रम में मैं भी काफी वक्त तक जगा रहा. उस बीच वे लोग सो चुके थे, जिसका पता उनके खर्राटों से चल रहा था. बत्ती बुझा कर मैं भी सो गया.       

बीच में कई छोटे-बड़े स्टेशन आते रहे, ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर जंक्शन सहित. हलचल–कोलाहल भी होते रहे. क्षण भर के लिए उचटती-टूटती-फिर गहराती नींद के बीच करवटें बदलते हुए यात्रा जारी थी. ...आगे जारी 
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# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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Saturday, December 3, 2016

यात्रा के रंग : अब पुरी की ओर -1

                                                                                      - मिलन सिन्हा 

कई सालों की इच्छा और अनेक बार बनाए गए कार्यक्रम को  साकार करने का दिन था. देश के एक प्रसिद्ध धार्मिक–आध्यात्मिक के साथ–साथ एक बेहद लोकप्रिय पर्यटन स्थल ‘पुरी’ प्रस्थान के लिए घर से निकला. ऑटो से हमें  हटिया स्टेशन जाना था. बताते चलें कि झारखण्ड की राजधानी रांची शहर में दो रेलवे स्टेशन है, एक रांची और दूसरा हटिया. दक्षिण पूर्व रेलवे के इस महत्वपूर्ण स्टेशन से रोजाना दर्जनों ट्रेनों का आना-जाना है. खैर, ऑटो से हम चल पड़े. घर से हटिया स्टेशन करीब पांच किलोमीटर होगा. रास्ते में कई चौराहे आते हैं. हर चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस आवागमन को सुचारू बनाए रखने के लिए तैनात रहती है. रांची की सड़कें ठीक-ठाक हैं, चौड़ी भी हैं, लेकिन कई स्थानों में अतिक्रमण का असर साफ दिखता है, हाई कोर्ट तक ने इस पर एकाधिक बार नाराजगी जताई है. सड़क पर हर तरह के वाहनों – साइकिल, मोटरसाइकिल, स्कूटर, रिक्शा, ठेला, ऑटो, कार, सिटी बस, स्कूल बस आदि की संख्या बढ़ती आबादी और अति सुलभ बैंक लोन (ऋण) के कारण निरंतर बढ़ती जा रही है. ट्रैफिक नियमों के अनुपालन में सुधार की बड़ी गुंजाइश तो है ही. ऐसी परिस्थिति में घर से स्टेशन पहुंचने के लिए सामान्य यात्रा समय से एक घंटे का मार्जिन लेकर चलने के बावजूद हम लोग ट्रेन खुलने से मात्र पांच मिनट पहले हटिया स्टेशन पहुंच सके, वह भी तब जब ऑटो चालक ने ज्यादा भीड़ वाले एक-दो चौराहे से पहले ही गलियों के रास्ते गाड़ी निकालने की बुद्धि लगाईं.    

वहां पहुँचते ही जाने क्यों स्मृति के एक कोने से गाने की ये पंक्तियां सुनाई देने लगी, गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है .... जल्दी से एक नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचा. डिब्बे में सामान रखा. तपस्वनी एक्सप्रेस ट्रेन, जो अपराह्न 4 बजे हटिया से रवाना होकर अगले दिन सुबह 7.15 बजे पुरी स्टेशन पहुँचती है, समय से खुल गयी. 

कम समय में ही जितना देख पाया, हटिया स्टेशन परिसर की सफाई बेहतर लगी. सूटकेस –बैग आदि को ठीक से रखने और अपनी सीट पर इत्मीनान से बैठने के कुछ देर बाद डिब्बे का मुआयना कर लिया. सफाई सहित अन्य बातें भी संतोषप्रद थीं. 

अमूमन ट्रेन के सामान्य आरक्षित डिब्बे के एक खाने में आठ लोगों के शयन हेतु शायिका की व्यवस्था होती है. हम जहाँ बैठे थे वहां गाड़ी खुलते वक्त 6 लोग आ चुके थे. आपसी वार्तालाप में पता चला कि उनमें जो दो लड़के थे, वे भुवनेश्वर तक जायेंगे और हमारे अलावे एक अल्पवय दंपति पुरी तक. गाड़ी के रफ़्तार पकड़ते ही चाय, समोसा, चना, चिप्प्स आदि बेचने वाले आने-जाने लगे, अलग-अलग स्वर व अंदाज में आवाज लगाने लगे. ट्रेन यात्रा में ऐसे खाने –पीने का सामान बेचने वाले अगर न हो तो यात्रा कैसी होगी, ऐसा हमने कभी सोचा भी है ? शायद कई लोगों को भूखे-प्यासे ही सोना पड़े, जीभ जैसे संवेदनशील अंग को तरसते-तड़पते कई घंटे गुजारने पड़े, स्वरोजगार के मार्फ़त अपने और अपने परिवार का लालन-पालन करनेवाले अनेक लोगों को बेकार-बेजार रहना पड़े, अनेक पुलिसवाले और रेल कर्मियों को खाने-पीने के लिए अपनी जेब ढीली करने पड़े.... 

खैर, जैसे हमें उनकी जरुरत है, वैसे ही उन्हें हमारी जरुरत होती है. माने-न-माने दिलचस्प पहलू यह भी है कि क्रेता-बिक्रेता का यह अस्थायी संबंध हमारी यात्रा में हमें जाने-अनजाने जीवन के कितने अनछुए पहलुओं से परिचित  करवाता है, हमारे जीवन को थोड़ा और सक्रिय कर जाता है – सोच व भावनाओं के स्तर पर ही सही.  ... ....आगे जारी 
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Friday, November 18, 2016

आज की बात: एक छोटा-सा उदाहरण और रांची को स्मार्ट सिटी बनाने का सपना

                                                                   - मिलन  सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर... 
झारखण्ड की राजधानी रांची को ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने की घोषणा से हम सब वाकिफ हैं. वर्ष 2000 में वजूद में आये इस प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर राज्य का 17 वां स्थापना दिवस समारोह हाल ही में पूरे जोर-शोर से मनाया गया. वर्ष 2000 से अब तक इस राज्य में विकास-विनाश के जितने अच्छे–बुरे काम हुए, उसको दोहराने की जरुरत नहीं. 

खैर, बहुत सालों बाद सम्प्रति राज्य में एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी, भाजपा  की बहुमत वाली सरकार है, जिससे राज्य के हर नागरिक को कुछ ज्यादा व कुछ बेहतर की एक स्वभाविक उम्मीद व अपेक्षा है. हो भी क्यों नहीं, जब देश और प्रदेश में भाजपा की ही सरकार हो. इतना ही नहीं, देश के प्रधानमंत्री व भाजपा नेता श्री नरेन्द्र मोदी स्वच्छ, समृद्ध व समर्थ भारत के सपने को साकार करने में खुद तो जुटे ही हैं, सारे देशवासियों से उस दिशा  में कार्य करने का बराबर आह्वान भी करते रहते हैं. ऐसे में, झारखण्ड के हर इलाके में मौजूदा सरकार को जमीनी स्तर पर विकास के हर काम को पारदर्शी, समयबद्ध व गुणवत्तापूर्ण तरीके से करने-करवाने की महती जिम्मेवारी है. 

आपका सोचना लाजिमी है कि ‘नोट बंदी’ के इस नाजुक दौर में (यह मामला काला  नोट/धन के सृजन से जुड़ा प्रतीत होता है) आखिर मैं यह सब किस सन्दर्भ में कहना चाहता हूँ. हाँ, सन्दर्भ है रांची के एक बड़े रिहायशी इलाके बर्दवान कंपाउंड के सबसे व्यस्ततम जतीन चन्द्र रोड, लाल पुर में पिछले करीब चार महीने से चल रहे कथित नाला और रोड बनाने का मामला. बताते चलें कि इस गलीनुमा रोड से रोज पचासों हजार लोग – बच्चे-बूढ़े,  युवक-युवती, महिलायें गिरते-पड़ते, बचते-बचाते धूल-कीचड़-कचड़े के बीच से गुजरने को अभिशप्त हैं. अतिक्रमण के बावजूद इस सड़क की चौड़ाई दो गाड़ियों के आने–जाने के लायक तो है ही, लेकिन पिछले कई महीनों से किसी तरह एक गाड़ी गुजर पाती है, क्यों कि सड़क के एक ओर खुला नाला है तो दूसरी ओर रोड खुदा हुआ है.  लिहाजा, इस रोड पर जाम लगना आम बात है और रोजाना छोटी-मोटी दुर्घटनाओं की बात  भी. धूल, वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से कितने ही बच्चे, महिलायें और  बुजुर्ग दमा आदि से पीड़ित हो रहे हैं, यह एक अन्य विचारणीय विषय है. 

वहां की ये तस्वीरें बहुत कुछ बोलती हैं. आप भी देखें : 

अगर इसे जनता की भलाई के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई से विकास के कार्य को अंजाम देने का एक छोटा उदाहरण मानें, तो इसमें जन-भागेदारी, पारदर्शिता, समयबद्धता एवं गुणवत्ता का स्पष्ट अभाव दिखता है. कोई भी जिम्मेदार और ईमानदार अधिकारी/ पर्यवक्षक आकर स्वयं इसे देख सकते हैं. 
सवाल है
- क्या रांची को स्मार्ट सिटी बनाने का अहम कार्य  प्रदेश की भाजपा सरकार इसी तरीके से करना चाहती है ?  नहीं न.
- क्या प्रधानमंत्री के सपने को उनकी ही पार्टी की सरकार ऐसे ही कार्य संस्कृति के माध्यम से साकार कर पायेगी ? बिलकुल नहीं. 
- क्या विकास के ऐसे कार्य का पूर्ण विवरण यथा, कार्य का प्रकार, अनुमानित लागत और समय, गुणवत्ता के मानक, ठेकेदार का नाम–पता–मोबाइल नंबर के  साथ-साथ, निरीक्षण अधिकारी का नाम-पदनाम-पता-मोबाइल नंबर कार्य स्थान में दो-तीन जगह स्पष्टतः लिखना वांछनीय नहीं है ? सभी मांगेंगे कि यह नितांत जरुरी है और इसके बहुआयामी फायदे हैं. 
  

कहते हैं, “अच्छा बोलने से अच्छा करना सदैव बेहतर होता है” (Well done is always better than Well said). उम्मीद है, संबंधित सरकारी विभाग व अधिकारी विकास से जुड़े इस मामले और ऐसे सभी मामलों पर पूरी संवेदनशीलता व जिम्मेवारी से त्वरित कार्यवाही करेंगे. शायद तभी संभावनाओं से भरा यह राज्य अगले कुछ वर्षों में सही अर्थों में एक स्वच्छ,समृद्ध और खुशहाल राज्य बन पायेगा. 
                                                                                  (hellomilansinha@gmail.com)

                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, November 13, 2016

आज की बात: 'नोट बंदी' का नाजुक दौर और प्रशासनिक चौकसी

                                                                - मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल  स्पीकर...
black-moneyप्रधानमंत्री ने आज ( 13.11.2016) गोवा में एक सभा को संबोधित करने के क्रम में नोट बंदी पर खुलकर अपने विचार रखे और देशवाशियों से अनुरोध किया कि वे थोड़ा संयम रक्खें, वर्तमान में जनता को जो कठिनाई हो रही है, वे सभी अगले कुछ दिनों में समाप्त हो जायेंगी  और  30 दिसम्बर’16  तक नोट बंदी का  अपेक्षित सकारात्मक असर सबको दिखने लगेगा. उन्होंने जनता से इस विषय पर समर्थन और सहयोग माँगा है.

हमें हर वक्त यह याद रखने की जरुरत है कि नोट बंदी के इस अति साहसिक फैसले, जिसका व्यापक व बहुआयामी असर आने वाले दिनों में  देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में दिखनेवाला है, की सफलता के लिए कुछ बातों पर बराबर ध्यान देने की आवश्यकता है. मसलन:  
  • 10 नवम्बर से 30 दिसम्बर '16 तक हरेक बैंक खाते में जमा होनेवाली नकदी पर कड़ी नजर रखने की जरुरत है. पिछले एक वर्ष के औसत जमा के मुकाबले इस बीच जमा होनेवाली राशि की तुलना आवश्यक है.
  • जुगाड़ संस्कृति के दिग्गज, राजनीति, प्रशासन, व्यवसाय आदि के लाखों बागड़ बिल्ले और मगरमच्छ चालाकी और फरेब के हर हथकंडे अपनाएंगे और अपने –अपने नौकरों, सेवकों, उनके रिश्तेदारों के साथ –साथ बिचौलियों के माध्यम से बैंकों में पुराने नोट बदलवाने और ऐसे लोगों के मृत प्राय एवं कम बैलेंस वाले  खातों में 2.5 लाख के ऐसे नोट जमा करवाने का हर संभव प्रयास जरुर करेंगे. करने  भी लगे हैं , ऐसा  मीडिया में रिपोर्ट है.
  • गांवों, कस्बों, गली –मोहल्ले में भी अगले कुछ दिनों तक निरीह व गरीब लोगों को  बरगलाकर, उनका इस्तेमाल करके निहित स्वार्थी  लोग अपने काले धन को सफ़ेद करने के पूरी कोशिश करेंगे.
  • गांव में कार्यरत डाकघर और बैंक की शाखाओं में इस तरह की कोशिश ज्यादा देखने में आयेगी. डाटा विश्लेषण तकनीक के मार्फ़त बहुत हद तक आसानी से इसका पता  चल सकता है. 
  • बैंक के प्रबंधकों, वरीय अधिकारियों के साथ –साथ स्थानीय प्रशासन पर गैर कानूनी कार्यों में संलिप्त ऐसे सभी लोगों को चिन्हित करके उनके विरुद्ध उपयुक्त त्वरित कार्रवाई करने की महती जिम्मेदारी है.
कहना न होगा, देश के करोड़ों आम लोगों  के दुःख–दर्द–तकलीफ के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील केन्द्र सरकार के साथ–साथ प्रदेश सरकारों  के संबंधित विभागों – वित्त, गृह, कस्टम एंड एक्साइज, कृषि आदि से यह उम्मीद करना मुनासिब है कि वे प्रधानमंत्री के इस आह्वान को जमीनी स्तर पर पूरी मुस्तैदी से लागू करेंगे –करवाएंगे. 
                                                        (hellomilansinha@gmail.com)

                     और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Saturday, November 12, 2016

आज की बात: 'नोट बंदी' का नाजुक दौर और हम

                                                                    - मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल  स्पीकर

black-money
'नोट बंदी' को तीन दिन हो गए, आज चौथा दिन है. आपको याद होगा कि 8 नवम्बर '16 के रात आठ बजे इस मामले में देश को संबोधित करते हुए  प्रधानमंत्री ने भी यह कहा था कि आम लोगों को अगले कुछ दिनों तक थोड़ी परेशानी हो सकती है. इस बात को देश के वित्त मंत्री ने भी बाद में दोहराया और साथ में विस्तार से यह भी बताया कि केन्द्र सरकार ने इस चुनौती से निबटने के लिए कौन-कौन सी व्यवस्था की है और आगे भी परिस्थिति को देखते हुए अनुकूल कदम उठाने में सरकार पीछे नहीं रहेगी, जिससे कि अगले कुछ दिनों में स्थिति सामान्य हो सके. 

32.87 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले और करीब 127 करोड़ की आबादी वाले हमारे विशाल देश में इतने बड़े आर्थिक फैसले को लागू करने में कुछ शुरूआती कठिनाई आए, तो उसे असामान्य स्थिति की संज्ञा देना ठीक  नहीं - वह भी तब जब आठ तारीख के रात आठ बजे की उक्त घोषणा के बाद डाक घरों, बैंक शाखाओं  एवं उनके  सभी ए टी एम में जमा पुराने 500 तथा 1000 के नोटों को हटाकर पर्याप्त मात्रा में छोटे नोटों एवं नए 500 -2000 के नोटों को सुरक्षित लाने-ले जाने एवं रखने के अभूतपूर्व कार्य को  अगले  36 से 60 घंटे के भीतर पूरा करना हो. बैंक में कार्यरत लोगों के अलावे समाज के वैसे सभी लोग जो देश में  बैंकिंग परिचालन व नकदी प्रबंधन  से जुड़ी कुछ बुनियादी बातों से वाकिफ हैं, वे जरुर मानेंगे कि केन्द्र सरकार, डाक कर्मियों, रिज़र्व बैंक के समस्त स्टाफ एवं देशभर में कार्यरत लाखों बैंक कर्मियों  के लिए  यह बेहद  चुनौतीपूर्ण व जोखिमभरा कार्य है, जिसमें ग्राहकों की सामान्य सुविधा के साथ -साथ उनके जान -माल (धन) की सुरक्षा का सवाल भी शामिल होता है.  लिहाजा, ऐसे मामलों में 'देर आए, दुरूस्त आए' का फार्मूला सख्ती से अपनाना जरुरी होता है. जोर देने की जरुरत नहीं कि इन सबके मद्देनजर देश के विभिन्न भागों - गांव, क़स्बा , शहर, गली, मोहल्ला, पहाड़, रेगिस्तान आदि में कार्यरत करीब 125000 बैंक शाखाओं  एवं  उनके लाखों  ए टी एम के अलावे  करीब  डेढ़ लाख डाकघरों में इतने सीमित समय में पुराने नकदी बदलने एवं बड़ी मात्रा में नई नकदी (500 /2000 के नोट ) और छोटे नोटों की उपलब्धता सुनिश्चित करना असंभव को संभव बनाने का अकल्पनीय एवं अप्रत्याशित उदाहरण है. इसके लिए हर जिम्मेदार भारतीय को केन्द्र सरकार तथा डाक और बैंक कर्मियों का शुक्रिया अदा करना ही चाहिए और देश हित के ऐसे अभूतपूर्व कार्य को उसके सही अंजाम तक पहुँचाने में जुटे सुरक्षा कर्मियों सहित सभी लोगों का आने वाले कुछ दिनों तक हौसला आफजाई करते रहना चाहिए.

कहना न होगा, डाक व बैंक कर्मियों पर इस वक्त बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, जिसका निर्वहन उन्हें अत्यधिक तन्मयता, दक्षता, संवेदनशीलता, इमानदारी एवं संयम के साथ करने की आवश्यकता है. बड़े डाकघरों तथा बैंक शाखाओं में पुराने नोट बदलनेवालों, वरीय नागरिक, दिव्यांग  और महिलाओं, बड़ी जमा राशि को अपने खाते में जमा करने वाले ग्राहकों आदि के लिए अलग-अलग काउंटर खोलने की जरुरत तो है ही. संबंधित विभागों के वरीय अधिकारियों द्वारा इस कार्य की सतत मॉनिटरिंग भी अपेक्षित है. सिविल सोसाइटी के जाने -माने लोगों को भी अपनी भूमिका  दर्ज  करने की जरुरत है. 

बैंक और डाक घर के स्टाफ को ऐसे नाजुक समय में ज्यादा सजग व चौकस भी रहना होगा, क्यों कि  निहित स्वार्थी लोग उन्हें एवं उनके सरल-सामान्य ग्राहकों को बहकाने, उकसाने, भड़काने, बहसबाजी में उलझाकर परिसर में शान्ति और व्यवस्था भंग करने का भरपूर  प्रयास करेंगे; कर भी रहे हैं - ऐसे रिपोर्ट आने भी लगे हैं. इस दौरान स्थानीय प्रशासन से डाकघरों एवं बैंकों के अन्दर -बाहर अतिरिक्त चौकसी एवं सुरक्षा की अपेक्षा भी स्वभाविक है.   

हाँ, एक बात और. इस महती कार्य संचालन में थोड़ी -बहुत ऊँच-नीच हो जाए तो भी  ग्राहकों को उसे बहस व हल्ला मचाने  का मुद्दा बनाने से बचना चाहिए, क्यों कि कतिपय असामाजिक तत्व ऐसे मौके का गलत फायदा उठा सकते है. ऐसे भी, इस कार्य को और बेहतर तरीके से करने के लिए किसी के द्वारा भी शालीनता से सकारात्मक -रचनात्मक सुझाव देने में कहाँ मनाही है- वह भी मेल- मोबाइल- सोशल मीडिया के इस युग में जब हम अपनी बात किसी भी संस्था के उच्च अधिकारी तक कुछ ही मिनटों में पहुंचा सकते हैं.   
                                                                         (hellomilansinha@gmail.com)

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( प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित, दिनांक :12.11.2016)

Tuesday, November 8, 2016

लघु कथा : मनीआर्डर

                                                                                          - मिलन सिन्हा
डाकिया आज बहुत खुश था. आज पहली बार पंडित जी के नाम पांच हजार रूपये का मनीआर्डर जो आया था. उसे बख्शीश मिलने की पूरी उम्मीद थी.

डाकिया ने पंडित जी को आवाज दी और उन्हें खुश–खबरी से अवगत कराया. पंडित जी ने बड़े गर्व से डाकिया को बताया कि यह मनीआर्डर उनके लड़के ने उन्हें दिल्ली से भेजा है जहाँ उसे हाल ही में एक शानदार नौकरी मिली है.

मनीआर्डर की राशि प्राप्त करने के बाद पंडित जी ने डाकिया को अपेक्षित बख्शीश दिया. डाकिया खुश हो गया. पंडित जी के कहने पर उसने यह खबर मोहल्ले के कई लोगों को दी. पंडित जी ने भी इधर अपने हर पहचानवालों से अपने लड़के के सदगुणों की खूब चर्चा की, उसके शानदार नौकरी और मनीआर्डर वाली बात विशेष तौर पर बताई.

डाकिया अगले महीने फिर मनीआर्डर देने आया और बख्शीश लेकर लौटा.

पंडित जी एवं उनके लड़के की चर्चा उनके अपने स्वजनों –स्वजातीय लोगों में जोर-शोर से होने लगी. लडकी वाले शादी के लिए पंडित जी के घर आने लगे.

जल्दी ही पंडित जी के लड़के की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न हो गयी. पंडित जी की पुत्रवधू देखने में सुन्दर तो थी ही, पंडित जी की मांग एवं अपेक्षा से कहीं अधिक दहेज़ भी लायी थी.

डाकिया को पंडित जी से मनीआर्डर की बख्शीश पाने की एक आदत-सी लग चुकी थी. शादी के लगभग पन्द्रह दिनों के बाद जब उसने पंडित जी के लड़के को वहीं देखा तो बरबस पूछ बैठा, आप अब तक दिल्ली नहीं गये? कब जायेंगे ? लड़के ने पहले तो टालने की कोशिश की, पर जोर डालने पर यह कहते हुए चले  गये कि अब दिल्ली जाने की कोई जल्दी नहीं है. डाकिया को बात जंची नहीं. उसने इधर –उधर पूछताछ की तो पंडित जी के लड़के के एक अभिन्न मित्र ने बताया कि वह तो दिल्ली में नौकरी के तलाश में छः –आठ महीने भटका, नौकरी नहीं मिली सो लौट आया. 

तो फिर वह मासिक पांच हजार रुपये का मनीआर्डर ?

हुआ ऐसा कि लड़के को दिल्ली भेजने के बाद पंडित जी हर महीने के अंत में पांच–छह हजार रूपये उसे भेज देते. उसी राशि में से उनका लड़का अगले महीने के आरम्भ में पंडित जी को मनीआर्डर से पांच हजार रुपये भेज देता. चार –छह महीने के मनीआर्डर के इस आवाजाही से शादी के बाजार में पंडित जी के लड़के की अच्छी बोली लग गयी. सो दिल्ली की यात्रा रुक गयी. और कोई बात नहीं ! 
                    
                    और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

(लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 4 दिसम्बर ,1997 को प्रकाशित)

Wednesday, October 12, 2016

प्रेरक प्रसंग : रुपयों का दान...

                                                                               - मिलन सिन्हा 

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सन 1933 में जर्मनी से लौटने के बाद डा. राममनोहर लोहिया अपने पुराने कर्म-स्थल कलकत्ता में कठिन संघर्ष का जीवन बिता रहे थे. ऐसे समय एक धनी मित्र से मिलने गए. इधर उस मित्र के लोहिया के पास कई पत्र आ चुके थे. धनी मित्र लोहिया जी की तत्कालीन आर्थिक स्थिति से वाकिफ थे. कुशल-क्षेम पूछने के बाद संपन्न मित्र ने लोहिया जी को नौकरी-धंधा करने की सलाह दी, पर उन्होंने इस पर अपनी असहमति प्रकट की. मित्र को निराशा हुई, फिर भी, लौटते वक्त लोहिया जी की जेब में उसने जबरदस्ती दो सौ रूपये ठूंस दिये. अब लोहिया जी के लिए इतने पैसे खर्च करना समस्या बन गयी. साथ गए एक अन्य मित्र के साथ मिलकर रूपये खर्च करने की योजना बनायी गयी. कपड़े एवं किताब सहित कुछ आवश्यक सामग्री खरीदने और भरपेट भोजन करने के पश्चात् भी पर्याप्त पैसे बच गये, तब दोनों मित्र घूमते- घूमते खिदिरपुर तक आये. रात काफी हो चुकी थी. योजना थी कि बंदरगाह के मजदूरों की बस्ती देखी जाए एवं जो जगा हुआ मिले उसे कुछ आर्थिक सहायता दी जाए. सुबह चार बजे तक दोनों वहां घूमते रहे, लोगों का हाल पूछते रहे और पैसे बांटते रहे. घर लौटने पर देखा कि अभी भी जेब में तीस रूपये बाकी हैं. उस समय दोनों मित्र सो गये. 

दिन में करीब दस बजे लोहिया जी की नींद एक स्त्री की आवाज सुनकर खुली. वह स्त्री उनके मित्र से कुछ आर्थिक सहायता मांग रही थी. लोहिया जी के बाहर आने से पूर्व ही मित्र ने पांच रूपये दे दिये थे. लोहिया जी के पूछने पर उस स्त्री ने बताया कि उसका पति राजनीतिक बंदी है एवं अलीपुर जेल में अन्य छः हजार स्त्री –पुरुषों के साथ राजनीतिक आरोपों के कारण यातनाएं भोग रहा है. परिवार की दयनीय स्थिति का भी उसने वर्णन किया. लोहिया जी के पूछने पर मित्र ने उक्त स्त्री को पांच रूपये देने की बात कही. सुनकर लोहिया जी की आंखें लाल हो गयीं. आक्रोश से चेहरा तमतमा गया. एक राजनीतिक बंदी की विवश बीवी को मात्र पांच रूपये सहायतार्थ देने की बात उनके लिए लज्जाजनक एवं असहनीय थी. उन्होंने मित्र को खूब खरी-खोटी सुनायी और रात के बचे हुए सारे रूपये उस असहाय स्त्री को दे दिये.

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
    
# लोकप्रिय मासिक पत्रिका “कादम्बिनी” के जुलाई,1978 अंक में प्रकाशित 

Friday, October 7, 2016

लघु कथा : इंटरव्यू

                                                                               - मिलन  सिन्हा 
गर्मी  का मौसम, चिलचिलाती धूप एवं दोपहर के बारह बजे का वक्त. किशोर अपने घर से स्टेशन ट्रेन पकड़ने को निकला. मुख्य सड़क पर आकर उसने चारों ओर नजर दौड़ाई, लेकिन कहीं कोई रिक्शा नहीं दिखाई पड़ा.

अपने मम्मी–पापा के हिदायत के बावजूद भी किशोर ऐन वक्त पर ही घर से निकला. सो, रिक्शा न उपलब्ध होने पर वह परेशान हो उठा. इस ट्रेन के छूट जाने पर उसका नौकरी के लिए साक्षात्कार में शामिल हो पाना नामुमकिन था. कई सालों की मेहनत के बाद उसे यह साक्षात्कार नसीब हुआ था.

तनाव  एवं गर्मी से उसका बुरा हाल था. स्टेशन दूर था, समय कम था. परेशानी बढ़ रही थी. ऐसे में उसे दूर एक रिक्शा आता दिखाई दिया. वह उधर लपका. एक बूढ़ा आदमी रिक्शा खींच रहा था. किशोर रिक्शे के पास पहुंच कर रिक्शे वाले से बिना बात किये ही सूटकेश रिक्शे पर रख कर बैठ गया एवं रिक्शे वाले से स्टेशन चलने को बोला. बूढ़े रिक्शे वाले ने किशोर से थोड़ा आराम कर पानी पी कर चलने का अनुरोध किया, परन्तु किशोर ने उसे तुरन्त चलने को बाध्य किया. मुंहमांगा किराया देने का वायदा भी किया.

स्टेशन पहुंच कर किशोर ने पहले एक कुली से ट्रेन की बाबत पूछा. ट्रेन आने में  पांच– दस मिनट देर थी. किशोर ने राहत की सांस ली. अब बड़े इत्मीनान से उसने बूढ़े रिक्शे वाले को दो रूपये दिये और चलने लगा. रिक्शे वाले ने उससे कम से कम उचित भाड़ा चार रुपया देने को कहा. रिक्शे वाले ने किशोर से मुंहमांगा किराया देने के उसके वायदे की दुहाई भी दी . जो किशोर दस –पन्द्रह मिनट पहले मन ही मन इस रिक्शे वाले को भगवान का अवतार मान रहा था, उससे स्टेशन तक चलने का अनुनय–विनय कर रहा था, अब वही किशोर रिक्शे वाले पर बरस पड़ा और रिक्शे वाले को धमकाने लगा.

बूढ़ा रिक्शा वाला पहले ही थक-हारकर चूर–चूर एवं बेहाल था. अपने हक़ के लिए न्यूनतम प्रतिरोध की शक्ति भी जाती रही थी उसकी. इस स्थिति में किशोर को बिना और पैसा दिये चले जाते देख उसने किशोर से हाथ जोड़कर विनती की, “मालिक, गरीब आदमी हूँ, बूढ़ा हूँ, दया कर दो रुपया और दे दें. भगवान आपका भला करेगा.” इस पर किशोर ने एक रुपया जेब से निकाल कर रिक्शे वाले की ओर फेंका और यह कहते हुए चला गया, “ ऐसे न मांगना चाहिए. रेट बताता है मुझे .... ...रोब झाड़ता है मुझ पर....” 
(hellomilansinha@gmail.com)
                               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

# लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 19 जून, 1997 को प्रकाशित

Thursday, September 1, 2016

लघु कथा : अनुभव

                                                                                   - मिलन  सिन्हा 

Image result for free photo of crowded railway platformधनीराम बहुत तेज गति से अपने लड़के पंकज के साथ प्लेटफार्म पर पहुंचा. वह हांफ रहा था. कुली से पूछताछ की तो उसे झटका लगा. उसकी ट्रेन जा चुकी थी. उन लोगों का आरक्षण प्रथम श्रेणी में था. ट्रेन आज नियत समय पर थी और वह लेट था. धनीराम परेशान हो उठा. उसे पंकज के साथ कल सुबह तक कलकत्ता पहुंचना ही था, लेकिन अब कोई उम्मीद न थी क्यों कि कलकत्ता के लिए और कोई ट्रेन उस वक्त थी नहीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या किया जाये, तभी घोषणा हुई कि एक सवारी गाड़ी चार घंटे विलम्ब से चलकर आधे घंटे बाद प्लेटफार्म  संख्या –एक पर आने वाली है. धनीराम को कुछ राहत महसूस हुई और वह विस्तृत जानकारी के लिए पूछताछ कार्यालय की ओर लपका. वहां उसे यह जानकार थोड़ी चिंता हुई कि सवारी गाड़ी में न तो कोई प्रथम श्रेणी का डिब्बा है और न ही कोई स्लीपर कोच.

पंकज के साथ अगले दिन सुबह कलकत्ता पहुंचने की मजबूरी के कारण उसने उसी ट्रेन से जाने का मन बनाया. उसने पंकज को सब बातें बतायी. दस वर्षीय पंकज ने झट से पूछा, “ पापा, इस ट्रेन से हम लोग कैसे जायेंगे ? सुना है सवारी गाड़ियों में बहुत भीड़ होती है; यात्री ट्रेन की छत पर बैठकर भी यात्रा करते हैं. हम लोगों को जगह न मिली तो क्या होगा ?”

“ चलो न, भीड़ तो होगी, पर हमें बैठने की जगह मिल जायेगी.” – धनीराम ने बेटे को आश्वस्त किया.

“ पर पापा, भीड़ रहने पर हमें जगह कैसे मिलेगी ?” – पंकज ने सहजता से पूछा. “याद है पापा, एक बार ट्रेन में अचानक भीड़ हो गयी थी. हम लोग अपनी–अपनी सीट पर सोये थे, फिर भी हमने किसी को बैठने की जगह नहीं दी. लोगों ने खड़े–खड़े ही यात्रा की और हम लोग बेफिक्र पसरे रहे.”

“ बेटा, हमारे साथ  ऐसा नहीं होगा. चलो न, हमें बैठने की जगह मिलेगी.”- धनीराम ने बेटे को समझाया. “ जानते हो बेटा, गरीब लोग इस ट्रेन में यात्रा करते हैं. वे लोग हमारे जैसे बड़े लोगों की मजबूरी समझते हैं.”

नन्हे पंकज को पापा का तर्क समझ में न आया, पर वह आगे कुछ न बोला.

ट्रेन आई तो भीड़ देखकर धनीराम भी चिंता में पड़ गया, किन्तु अब सोच –विचार निरर्थक  था. किसी तरह दोनों बाप –बेटा डिब्बे में घुस पाये. भीतर तिल धरने की जगह न थी. दोनों को बमुश्किल पांव टिकाने की जगह मिली. पंकज ने चारों ओर नजर घुमाई तो उसे हर तरफ गरीब आम लोग नजर आये – पोटली, मोटरी आदि के साथ. पंकज ने धनीराम की ओर देखा, पर धनीराम ने कुछ न कहा. 

गाड़ी खुली तो डिब्बे में फिर कुछ हलचल हुई. पंकज उत्सुकतावश मुड़ा, तभी पास की सीट पर बैठे एक यात्री ने पंकज को अपनी गोद में बिठा लिया. उसी समय एक मजदूर अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और धनीराम से वहां बैठने का आग्रह किया. धनीराम के सीट पर बैठते ही वह मजदूर निःसंकोच वहीं नीचे उकडूं बैठ गया. बालक पंकज यह सब देख कर अभिभूत हो गया.

कलकत्ता पहुंचकर धनीराम ने चैन की सांस ली, कहा – “चलो, आखिरकार हम लोग पहुंच गये. भगवान का शुक्र है .....”

“पापा, हमें तो सबसे पहले उन गरीब लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जो वाकई हमसे बहुत बड़े हैं, बहुत ही अच्छे हैं .... ....”- पंकज ने तपाक से जवाब दिया.

धनीराम की आंखें शर्म से झुक गयी. वह कुछ भी नहीं बोल पाया.  
(hellomilansinha@gmail.com)
                              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

( लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 29 अक्टूबर, 1998 को प्रकाशित)

Sunday, August 14, 2016

लघु कथा : प्रहरी

                                                                       - मिलन सिन्हा 
काम रुक गया था. पांचों मिस्त्री ठेकेदार के पास ही खड़े थे. कालू मिस्त्री  ठेकेदार से बोल रहा था, ‘गांव तो हम लोगों को परसों जाना ही है. हमारे भविष्य का सवाल है ....हम लोगों ने तो आपको पहले भी कहा था.’ अन्य मिस्त्री कालू के समर्थन में अपनी –अपनी गर्दन हिला रहे थे.

ठेकेदार ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘देखो, यह काम जब तक पूरा नहीं होता, तब तक तुमलोगों को कैसे जाने दें ? आखिर अगले एक महीने में इतना बड़ा काम पूरा भी तो करना है ? तुम लोग इस तरह चले जाओगे तो.... फिर इस मालिक को क्या जवाब देंगे ?’

‘हमलोगों को तीन दिनों के लिए जाने दीजिये. हमलोग नहीं जायेंगे  तो बहुत अनिष्ट हो जायेगा. ठेकेदार जी, आप सब जानते हैं, फिर भी हमें क्यों रोकना चाहते हैं ? हम तो कहते हैं कि आप भी हमारे साथ चलिये. अपने बीवी–बच्चों से मिल भी आयेंगे और वह काम भी हो जायेगा’ – कालू ने विनती की. 

‘कालू, तुम इतने समझदार हो फिर भी मेरी कठिनाई नहीं समझते हो. तुम तो इस मालिक को अच्छी तरह जानते हो. समय पर अगर काम नहीं होगा तो मुझे बहुत नुकसान हो जायेगा. यह मालिक आगे हमें फिर कोई काम का ठेका नहीं देगा.’- ठेकेदार ने कालू को अपनी विवशता समझाने के उद्देश्य से कहा.

कालू एवं उसके अन्य साथियों की अपनी विवशता थी तो ठेकेदार की अपनी. दोनों पक्ष एक दूसरे को समझाने के लिए अलग–अलग तर्क दे रहे थे. काम रुका हुआ था. असहमति कायम थी. इसी समय मालिक जगत जी अचानक वहां आ पहुंचे. कालू पुनः ठेकेदार से रोष भरे स्वर में कुछ कह रहा था. सारे मिस्त्री एवं ठेकेदार को एक स्थान पर बहस करते देख पहले तो वे नाराज हुए, फिर ठेकेदार की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा. ठेकेदार ने पहले तो बात को टालना चाहा, परन्तु जगत जी द्वारा दुबारा पूछने पर कहा, ‘ये सारे मिस्त्री परसों अपने –अपने गांव जाना चाहते हैं तीन दिनों के लिए. और मैं इन्हें समझा रहा हूँ कि इस वक्त काम अधूरा छोड़कर घर न जायें.’

‘आखिर ये लोग इसी समय घर क्यों जाना चाहते हैं ‘ – जगत जी ने प्रश्न किया.

‘ इनके गांव में दो दिन बाद पंचायत चुनाव है. ये सभी उसी चुनाव में अपने –अपने गांव जाकर अपना वोट डालना चाहते हैं’ – ठेकेदार ने सहमते हुए उत्तर दिया.

मालिक ने पहले तो सारे मिस्त्री को एक बार गौर से देखा, विशेषकर कालू को और फिर ठेकेदार की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘भाई, इन्हें इनके गांव जरुर जाने दो. मेरा काम तीन दिन विलम्ब से ही ख़त्म होगा, तब भी ठीक है, लेकिन इन्हें मत रोको. ठेकेदार, तुम जानते हो, लोकतंत्र के असली प्रहरी ये ही हैं, तुम और हम नहीं.’              (hellomilansinha@gmail.com)

                         और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

( लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 6 अगस्त, 1998 को प्रकाशित) 

Thursday, August 4, 2016

मोटिवेशन: रियो ओलिंपिक में सबसे बड़े युवा देश से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद

                                                                      - मिलन सिन्हा 

कौन नहीं जानता कि खेलकूद हमारे बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए कितना आवश्यक है. और खेलना किसे पसंद नहीं है ? खेल की बात हो, तो बच्चे मचल उठते हैं. बड़े-बुजुर्ग भी अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों की याद में खो से जाते हैं. अपने देश के विभिन्न खेल मैदानों में हजारों-लाखों की भीड़ हमें यह बताती है कि हमें खेलों से कितना लगाव है. हम खेलना चाहते हैं और अपने खिलाड़ियों को खेलते हुए देखना भी. शायद कुछ ऐसी ही भावना से ओतप्रोत हमारे प्रधान मंत्री ने ब्राजील के शहर ‘रियो डी जनेरियो’ में 5 अगस्त से 21 अगस्त, 2016 के बीच होनेवाले आगामी ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करनेवाले खिलाड़ियों से हाल ही में मुलाक़ात की और उन्हें पूरे देश की ओर से शुभकामनाएं दी. प्रधान मंत्री ने हरेक खिलाड़ी से व्यक्तिगत तौर पर बात की और उन्हें देश के लिए पदक जीतने को प्रेरित भी किया.

बताते चलें कि 2012 के लंदन ओलम्पिक  में  भारत को केवल 6 पदक मिले थे – दो रजत और चार कांस्य. 17 दिनों तक चले इस खेल महाकुंभ में जिन 204 देशों ने भाग लिया उनमें से सिर्फ 85 देश ही पदक हासिल कर पाए. 104 पदक पर कब्ज़ा जमा कर अमेरिका पहले स्थान पर था, जब कि 87 पदक के साथ चीन दूसरे  और 65 पदक के साथ मेजबान देश ब्रिटेन तीसरे स्थान पर रहा. पदक तालिका में भारत 55वें स्थान पर रहा. भारत के 83 खिलाड़ियों ने विभिन्न खेलों में भाग लिया और पदक जीतने का हर संभव प्रयास किया.

ज्ञातव्य है कि वर्ष 2012 में हमारे देश की आबादी करीब 121 करोड़ थी. कहने का अभिप्राय यह कि चीन के बाद विश्व के दूसरे सबसे ज्यादा आबादी वाले देश भारत को लंदन ओलम्पिक में मात्र 6 पदक हासिल हुए.  तुलनात्मक रूप से देखें तो 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में प्राप्त तीन पदक के मुकाबले हमारा प्रदर्शन 100% बेहतर रहा. लेकिन संभावनाओं और क्षमताओं से भरे विश्व के सबसे बड़े युवा देश के लिए क्या यह संतोष का  विषय हो सकता है ?  

बताने की जरुरत नहीं कि  हमारे देश में न तो सरकारी फंड की कमी है और न ही क्षमतावान खिलाड़ियों की. झारखण्ड से लेकर महाराष्ट्र तक, जम्मू–कश्मीर से लेकर केरल तक हॉकी, बास्केटबॉल, साइकिलिंग, तैराकी, फुटबॉल, तीरंदाजी, भारोत्तोलन, बैडमिंटन, जूडो, कुश्ती आदि खेलों के लिए हमारे गांवों–कस्बों और छोटे–बड़े शहरों में युवा प्रतिभाओं की भरमार है. जरुरत है तो सिर्फ इस बात की कि सरकार और सभी खेल संगठन इन क्षमतावान प्रतिभाओं को भरपूर मौका एवं प्रशिक्षण दें, उन्हें मोटिवेट करें और उनके हुनर को सतत तराशने की जिम्मेदारी लें और उसका दृढ़ संकल्प व निष्ठा के साथ निर्वहन करें. इससे उनको आत्मसम्मान की अनुभूति होगी और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. यकीनन इससे विभिन्न खेलों में उन्नत प्रतिस्पर्धा की स्वस्थ परंपरा को पुनर्स्थापित और सुदृढ़ करते रहने का सिलसिला चल पड़ेगा. परिणामस्वरूप, हमारे खिलाड़ी बड़ी संख्या में ओलम्पिक सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में भाग लेने के लिए न केवल क्वालीफाई कर पायेंगे,  बल्कि पदक जीत कर अपने देश-प्रदेश का नाम रोशन भी कर सकेंगे. 

कहना न होगा,  पूरे देश को यह उम्मीद है कि रियो ओलिंपिक में हमारा प्रदर्शन 2012 लंदन ओलिंपिक की तुलना में अवश्य ही बेहतर रहेगा – 125 करोड़ देशवासियों की शुभकामनाएं तो हमारे खिलाड़ियों के साथ सर्वदा है ही.        (hellomilansinha@gmail.com)

                         और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं