Thursday, September 1, 2016

लघु कथा : अनुभव

                                                                                   - मिलन  सिन्हा 

Image result for free photo of crowded railway platformधनीराम बहुत तेज गति से अपने लड़के पंकज के साथ प्लेटफार्म पर पहुंचा. वह हांफ रहा था. कुली से पूछताछ की तो उसे झटका लगा. उसकी ट्रेन जा चुकी थी. उन लोगों का आरक्षण प्रथम श्रेणी में था. ट्रेन आज नियत समय पर थी और वह लेट था. धनीराम परेशान हो उठा. उसे पंकज के साथ कल सुबह तक कलकत्ता पहुंचना ही था, लेकिन अब कोई उम्मीद न थी क्यों कि कलकत्ता के लिए और कोई ट्रेन उस वक्त थी नहीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या किया जाये, तभी घोषणा हुई कि एक सवारी गाड़ी चार घंटे विलम्ब से चलकर आधे घंटे बाद प्लेटफार्म  संख्या –एक पर आने वाली है. धनीराम को कुछ राहत महसूस हुई और वह विस्तृत जानकारी के लिए पूछताछ कार्यालय की ओर लपका. वहां उसे यह जानकार थोड़ी चिंता हुई कि सवारी गाड़ी में न तो कोई प्रथम श्रेणी का डिब्बा है और न ही कोई स्लीपर कोच.

पंकज के साथ अगले दिन सुबह कलकत्ता पहुंचने की मजबूरी के कारण उसने उसी ट्रेन से जाने का मन बनाया. उसने पंकज को सब बातें बतायी. दस वर्षीय पंकज ने झट से पूछा, “ पापा, इस ट्रेन से हम लोग कैसे जायेंगे ? सुना है सवारी गाड़ियों में बहुत भीड़ होती है; यात्री ट्रेन की छत पर बैठकर भी यात्रा करते हैं. हम लोगों को जगह न मिली तो क्या होगा ?”

“ चलो न, भीड़ तो होगी, पर हमें बैठने की जगह मिल जायेगी.” – धनीराम ने बेटे को आश्वस्त किया.

“ पर पापा, भीड़ रहने पर हमें जगह कैसे मिलेगी ?” – पंकज ने सहजता से पूछा. “याद है पापा, एक बार ट्रेन में अचानक भीड़ हो गयी थी. हम लोग अपनी–अपनी सीट पर सोये थे, फिर भी हमने किसी को बैठने की जगह नहीं दी. लोगों ने खड़े–खड़े ही यात्रा की और हम लोग बेफिक्र पसरे रहे.”

“ बेटा, हमारे साथ  ऐसा नहीं होगा. चलो न, हमें बैठने की जगह मिलेगी.”- धनीराम ने बेटे को समझाया. “ जानते हो बेटा, गरीब लोग इस ट्रेन में यात्रा करते हैं. वे लोग हमारे जैसे बड़े लोगों की मजबूरी समझते हैं.”

नन्हे पंकज को पापा का तर्क समझ में न आया, पर वह आगे कुछ न बोला.

ट्रेन आई तो भीड़ देखकर धनीराम भी चिंता में पड़ गया, किन्तु अब सोच –विचार निरर्थक  था. किसी तरह दोनों बाप –बेटा डिब्बे में घुस पाये. भीतर तिल धरने की जगह न थी. दोनों को बमुश्किल पांव टिकाने की जगह मिली. पंकज ने चारों ओर नजर घुमाई तो उसे हर तरफ गरीब आम लोग नजर आये – पोटली, मोटरी आदि के साथ. पंकज ने धनीराम की ओर देखा, पर धनीराम ने कुछ न कहा. 

गाड़ी खुली तो डिब्बे में फिर कुछ हलचल हुई. पंकज उत्सुकतावश मुड़ा, तभी पास की सीट पर बैठे एक यात्री ने पंकज को अपनी गोद में बिठा लिया. उसी समय एक मजदूर अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और धनीराम से वहां बैठने का आग्रह किया. धनीराम के सीट पर बैठते ही वह मजदूर निःसंकोच वहीं नीचे उकडूं बैठ गया. बालक पंकज यह सब देख कर अभिभूत हो गया.

कलकत्ता पहुंचकर धनीराम ने चैन की सांस ली, कहा – “चलो, आखिरकार हम लोग पहुंच गये. भगवान का शुक्र है .....”

“पापा, हमें तो सबसे पहले उन गरीब लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जो वाकई हमसे बहुत बड़े हैं, बहुत ही अच्छे हैं .... ....”- पंकज ने तपाक से जवाब दिया.

धनीराम की आंखें शर्म से झुक गयी. वह कुछ भी नहीं बोल पाया.  
(hellomilansinha@gmail.com)
                              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

( लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 29 अक्टूबर, 1998 को प्रकाशित)

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