Wednesday, June 5, 2013

आज की कविता : छोटी- सी आशा

                                      - मिलन सिन्हा 


lebbaourजानता नहीं है
कहाँ है उसका मुकाम ।
वह तो लगा रहता है
बनाने में
एक के बाद दूसरा
बहुमंजिला  मकान ।
छोटे-से गाँव का है वह
एक कुशल कारीगर ।
आ  गया है यहाँ
अपना घर– द्वार छोड़कर।
गाँव का वह
झोपड़ीनुमा  घर भी
गिरवी रख आया था,
जिसे कुछेक सालों में
महाजन के चक्रवृधि ब्याज  ने
हड़प लिया था ।
सुबह से शाम,
हर दिन उसका
एक समान ।
मिटटी,ईंट,बालू, सीमेंट आदि से
हर साल
उसके सामने हो जाता है
एक कीमती इमारत तैयार
और साथ ही
विस्थापित हो जाता है फिर
वह और उसका परिवार ।
बेशक,
कुछ संपन्न लोगों को बसाकर
फिर कहीं
एक नयी इमारत की नींव पड़ती है
और व्यस्त हो जाता है
वह फिर एक बार ।
रह जाती है तो शायद
एक छोटी-सी आशा कि
कभी तो,
किसी व्यवस्था में,
दर्जनों घर बनानेवाले
उन जैसे गृहहीनों को
निरंतर बढ़ते इस महानगर में
मिलेगा एक छोटा-सा छत
जो होगा उनका घर
उनका अपना घर ।
#  प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित, दिनांक :05.06.2013

               और भी बातें करेंगे, चलते चलते। असीम शुभकामनाएं। 

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