- मिलन सिन्हा
गतांक से आगे... ट्रेन नियत समय के आसपास ही पुरी के तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर आ कर रुक गई. कई प्लेटफार्मों वाला पुरी रेलवे स्टेशन साफ़-सुथरा था. इस दिशा का अंतिम स्टेशन होने के कारण डिब्बे खाली होने लगे और प्लेटफॉर्म पर यात्रियों का बहिर्गमन. आबोहवा में आद्रता की अनुभूति होने लगी. ट्रेन में हमारा डिब्बा पीछे होने के कारण निकास द्वार तक काफी चलना पड़ा, अपना-अपना ट्राली सूटकेस लेकर. ट्रेन के सहयात्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक ही सही, चलना अच्छा लगा. जाति, धर्म, भाषा, जिला-प्रदेश, गरीब-अमीर आदि भावनाओं से इतर सिर्फ मानवता का भाव लिए सभी इस यात्रा के अंत में अपने-अपने गंतव्य की ओर अग्रसर थे.
प्लेटफॉर्म से ही ऑटोवाले हमें हमारे रुकने के स्थान तक पहुँचाने के लिए तत्पर दिखे. एक–दो तो निकास द्वार तक आ गए – रेट वगैरह में कमीवेशी के बदलते ऑफर के साथ. बाहर निकला तो और अच्छा लगा. स्टेशन परिसर बहुत बड़ा और अपेक्षाकृत व्यवस्थित एवं साफ़–सुथरा. कुछ और सोचता, तबतक दो-एक रिक्शेवाले ने भी साथ चलने का आग्रह किया. एक क्षण तो ऐसा लगा कि हमें होटल तक पहुंचाने के चक्कर में रिक्शेवाले और ऑटोवाले के बीच झगड़ा न हो जाए. खैर, बात वहां तक पहुंचने से पहले ही ऑटोवाले को दूसरी सवारी मिल गयी और वह उधर लपका. हमें भी दूसरा ऑटोवाला मिल गया. इस सबके बीच मेहनत करके अपना पेट पालने को तत्पर कई लोगों से हमें फिर दो-चार होने का मौका मिला; अपने देश में कितनी बेरोजगारी है, इसका प्रमाण भी.
पुरी स्टेशन से निकलकर होटल के रास्ते हम बढ़ चले. इसी क्रम में पुरी का आकाशवाणी केन्द्र दिखा. इसी रास्ते में दिखा राजभवन का पुरी परिसर एवं दो सरकारी गेस्ट हाउस. ऑटोवाले ने बताया कि ये सभी बड़े परिसर समुद्र तट पर स्थित हैं. तुरत यह ख्याल आया कि ब्रिटिश राज ख़त्म होने के सात दशक बाद भी जनता के प्रतिनिधि के रूप में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों के लिए हर बड़े शहर में एक अलग आलीशान व सुसज्जित परिसर की जरुरत क्यों है ? लोकतंत्र में ऐसे आडम्बर और विलासिता के प्रतीक जिनके रख-रखाव पर हर साल आम जनता के टैक्स का लाखों का खर्च होता है, के स्थान पर करोड़ों गरीब-वंचितों के मुफ्त इलाज के लिए एक अच्छा अस्पताल खोला जा सकता है, अनाथ और अशक्त बच्चों के मुफ्त शिक्षा के लिए एक अच्छा स्कूल खोला जा सकता है या फिर जन कल्याण के ऐसे ही कई अन्य काम किये जा सकते हैं. इसी सोच-विचार में न जाने कब हम पुरी में समुद्र तट के निकट अवस्थित अपने होटल के पास पहुंच गए.
होटल की सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रहा था कि ऐसी किसी भी यात्रा के दौरान अनायास ही हम-आप आशा-अपेक्षा, करुणा-प्रेरणा, हास-परिहास, सीखने-बताने, देखने-दिखाने, सोचने-विचारने सहित जीवन के विविध रंग-बिरंगे अनुभवों-अनुभूतियों से हो कर गुजरते रहते हैं. जीवन को जीवंत और समाजोपयोगी बनाए रखने में इसकी बड़ी भूमिका भी तो होती है! .... ....आगे जारी
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित
#For Motivational Articles in English, pl. visit my site : www.milanksinha.com
गतांक से आगे... ट्रेन नियत समय के आसपास ही पुरी के तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर आ कर रुक गई. कई प्लेटफार्मों वाला पुरी रेलवे स्टेशन साफ़-सुथरा था. इस दिशा का अंतिम स्टेशन होने के कारण डिब्बे खाली होने लगे और प्लेटफॉर्म पर यात्रियों का बहिर्गमन. आबोहवा में आद्रता की अनुभूति होने लगी. ट्रेन में हमारा डिब्बा पीछे होने के कारण निकास द्वार तक काफी चलना पड़ा, अपना-अपना ट्राली सूटकेस लेकर. ट्रेन के सहयात्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक ही सही, चलना अच्छा लगा. जाति, धर्म, भाषा, जिला-प्रदेश, गरीब-अमीर आदि भावनाओं से इतर सिर्फ मानवता का भाव लिए सभी इस यात्रा के अंत में अपने-अपने गंतव्य की ओर अग्रसर थे.
प्लेटफॉर्म से ही ऑटोवाले हमें हमारे रुकने के स्थान तक पहुँचाने के लिए तत्पर दिखे. एक–दो तो निकास द्वार तक आ गए – रेट वगैरह में कमीवेशी के बदलते ऑफर के साथ. बाहर निकला तो और अच्छा लगा. स्टेशन परिसर बहुत बड़ा और अपेक्षाकृत व्यवस्थित एवं साफ़–सुथरा. कुछ और सोचता, तबतक दो-एक रिक्शेवाले ने भी साथ चलने का आग्रह किया. एक क्षण तो ऐसा लगा कि हमें होटल तक पहुंचाने के चक्कर में रिक्शेवाले और ऑटोवाले के बीच झगड़ा न हो जाए. खैर, बात वहां तक पहुंचने से पहले ही ऑटोवाले को दूसरी सवारी मिल गयी और वह उधर लपका. हमें भी दूसरा ऑटोवाला मिल गया. इस सबके बीच मेहनत करके अपना पेट पालने को तत्पर कई लोगों से हमें फिर दो-चार होने का मौका मिला; अपने देश में कितनी बेरोजगारी है, इसका प्रमाण भी.
पुरी स्टेशन से निकलकर होटल के रास्ते हम बढ़ चले. इसी क्रम में पुरी का आकाशवाणी केन्द्र दिखा. इसी रास्ते में दिखा राजभवन का पुरी परिसर एवं दो सरकारी गेस्ट हाउस. ऑटोवाले ने बताया कि ये सभी बड़े परिसर समुद्र तट पर स्थित हैं. तुरत यह ख्याल आया कि ब्रिटिश राज ख़त्म होने के सात दशक बाद भी जनता के प्रतिनिधि के रूप में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों के लिए हर बड़े शहर में एक अलग आलीशान व सुसज्जित परिसर की जरुरत क्यों है ? लोकतंत्र में ऐसे आडम्बर और विलासिता के प्रतीक जिनके रख-रखाव पर हर साल आम जनता के टैक्स का लाखों का खर्च होता है, के स्थान पर करोड़ों गरीब-वंचितों के मुफ्त इलाज के लिए एक अच्छा अस्पताल खोला जा सकता है, अनाथ और अशक्त बच्चों के मुफ्त शिक्षा के लिए एक अच्छा स्कूल खोला जा सकता है या फिर जन कल्याण के ऐसे ही कई अन्य काम किये जा सकते हैं. इसी सोच-विचार में न जाने कब हम पुरी में समुद्र तट के निकट अवस्थित अपने होटल के पास पहुंच गए.
होटल की सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रहा था कि ऐसी किसी भी यात्रा के दौरान अनायास ही हम-आप आशा-अपेक्षा, करुणा-प्रेरणा, हास-परिहास, सीखने-बताने, देखने-दिखाने, सोचने-विचारने सहित जीवन के विविध रंग-बिरंगे अनुभवों-अनुभूतियों से हो कर गुजरते रहते हैं. जीवन को जीवंत और समाजोपयोगी बनाए रखने में इसकी बड़ी भूमिका भी तो होती है! .... ....आगे जारी
(hellomilansinha@gmail.com)
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं । # साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित
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