- मिलन सिन्हा
# लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 11 दिसम्बर ,1997 को प्रकाशित
जिस वक्त जगत
रेलवे टिकट खिड़की पर पहुंचा, वहां काफी भीड़ थी. उसके ट्रेन का समय हो चला था. वह
लाइन में खड़ा हो गया. दस–पन्द्रह मिनट गुजर गये, परन्तु अब भी टिकट खिड़की पर उसके
आगे एक यात्री टिकट लेने के लिए खड़ा था.
प्लेटफार्म पर
गाड़ी आ गई. वह विचलित हो उठा. टिकट के लिए उसने रूपये दिये. टिकट बाबू ने रूपये ले
लिये और टिकट घर के भीतर ही अपने एक मित्र से बातचीत में लग गये. जगत ने टोका,
‘टिकट दीजिए, गाड़ी आ गयी है.’ टिकट बाबू ने उत्तर नहीं दिया. बातचीत में लगे रहे.
जगत को जब टिकट मिला, गाड़ी ने सीटी दी. जगत दौड़ा. प्लेटफार्म पर पहुंचा तो गाड़ी सरक
रही थी. वह लपक कर सामने के डब्बे में चढ़ गया.
डिब्बे के अंदर
पहुंच कर जगत ने गहरी सांस ली और बैठने के लिए तत्पर हुआ. दिन का समय था, लेकिन
बैठने के स्थान पर भी लोग सोये हुए थे. जगत एक सीट पर सोये एक यात्री के पांव के
पास थोड़ी-सी जगह पर बैठ गया और आंखें बंद कर सोचने लगा कि अगर चलती गाड़ी में चढ़ते
हुए कोई दुर्घटना हो जाती तो क्या होता ?
टिकट–टिकट की आवाज
सुनकर उसने आंखें खोली तो सामने टी.टी बाबू
को खड़ा पाया. जगत ने झट अपना टिकट निकाल कर दिखाया. टिकट देखते ही टी.टी बाबू
वहां बैठ गये. काली कोट के जेब से रसीद बुक निकालने का उपक्रम करते हुए
कहा, ‘निकालिये एक सौ पचपन रुपये.’ जगत ने विस्मय से कारण जानना चाहा तो टी.टी
बाबू ने झल्लाते हुए बताया, ‘एक तो बिना
पूछे, बिना आरक्षण के स्लीपर कोच में सामान्य टिकट लेकर चढ़ गये, फिर सवाल –जवाब भी
करते हैं. स्लीपर कोच का भाड़ा एवं फाइन मिलाकर हुआ एक सौ पचपन रुपये.’
जगत ने टी.टी बाबू
को समझाने की कोशिश की कि किस परिस्थिति में वह उस डिब्बे में चढ़ा. फिर उसके
पास उतने पैसे थे भी नहीं.
टी.टी बाबू ने उसकी बातें अनसुनी करते हुए कहा कि ऐसे
बहाने वे अनेक सुन चुके हैं. टी.टी बाबू
आगे कुछ और कहते, इसी बीच एक अन्य
यात्री ने टी.टी बाबू से कहा, ‘सर, जरा मेरा मामला देख लें. आपके भरोसे ही यात्रा
कर रहे हैं हम. चार दिन पूर्व भी इसी ट्रेन में आपके साथ ही गये थे, याद है न सर.’
टी.टी बाबू ने उस यात्री को देखा, मुस्कराया और फिर उनके टिकट
पर एक नजर डाली. तत्पश्चात धीरे से उनसे सौ रूपये मांगे. उस यात्री ने झट सत्तर
रूपये टी.टी बाबू को दिये और धीरे से कहा,
सर, इतना ही लिया था आपने पिछले दफे.’
टी.टी बाबू ने चुपचाप सत्तर रूपये कोट के भीतर वाली जेब
में रख लिये और उस व्यक्ति को एक बर्थ सोने
के लिए दे दिया. अच्छी तरह आश्वस्त भी किया उन्हें हर संभावित परेशानी के प्रति.
अगला स्टेशन आ
चुका था. टी.टी बाबू ने जगत को हाथ पकड़ कर
डिब्बे से नीचे उतार दिया और यह नसीहत भी दी, ‘देखिए, या तो सही टिकट लेकर चलिए या
फिर मेरे भरोसे. हां, मेरे भरोसे चलेंगे तो सोकर आराम से चलेंगे.’
(hellomilansinha@gmail.com)
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 11 दिसम्बर ,1997 को प्रकाशित
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