- मिलन सिन्हा
राजनीति के रंग निराले होते हैं और राजनीति में रंग बदलने वाले नेताओं के बयान एवं व्यवहार भी कम निराले नहीं होते हैं। फिर बिहार की राजनीति के नित बदलते इन्द्रधनुषी रंग के क्या कहने ? राजनीतिक विश्लेषक बिहार को राजनीति का प्रयोगशाला यूँ ही थोड़े ही कहते हैं ? पिछले 13 महीने के राजनीतिक घटना क्रम पर संक्षेप में ही गौर कर ले तो इसकी सच्चाई और इनमें छुपे निहितार्थ को जानना -समझना आसान हो जाएगा।
दरअसल, जून 2013 में भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार बनाये जाने की संभावना को मुद्दा बनाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू ने भाजपा के साथ गठबंधन को अलविदा कहने और कांग्रेस के चार विधायकों के समर्थन से बिहार में सरकार चलाने का कठिन काम जारी रखने के निर्णय के साथ ही आने वाले दिनों में बिहार की राजनीतिक दिशा-दशा में अप्रत्याशित परिवर्तन के संकेत मिलने शुरू हो गए थे, जो लोकसभा चुनाव के परिणाम आने तक लगभग स्पष्ट होते गए।
पहले राजद के अंतर्कलह और बाद में जदयू में नेताओं के बागी तेवर से बेवश हुए दोनों दलों के बड़े नेताओं ने भाजपा के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने के नाम पर साथ आने का फैसला किया जिससे ज्यादा से ज्यादा दिनों तक सत्ता पर पकड़ बनाये रख सकें। तभी तो राजद ने मांझी सरकार को विधानसभा में समर्थन और फिर राज्यसभा चुनाव में जदयू उम्मीदवारों को मदद किया, जिसे जदयू के सभी बड़े नेता स्वीकारते हैं। हाँ, इस पूरे राजनीतिक घटना क्रम ने बिहार की राजनीति में हाशिये पर पहुँच चुके लालू प्रसाद को पुनर्स्थापित करने का काम किया।
जानकारों का कहना है कि राजद और जदयू दोनों ने यह मान लिया है कि परिवर्तित राजनीतिक परिदृश्य में वे अकेले भाजपा का सामना नहीं कर पायेंगे और इसलिए दोनों को साथ मिलकर भाजपा का मुकाबला करना चाहिए। इसके पीछे राजनीतिक सोच व रणनीति के बजाय सामान्य अंकगणित सर चढ़ कर बोल रहा है, तभी तो लालू प्रसाद बोलते हैं कि पिछले लोक सभा चुनाव में राजद और जदयू का सम्मिलित वोट प्रतिशत भाजपा से कहीं ज्यादा है। क्या राजनीति अंकगणित का साधारण खेल है या कुछ और? क्या लालू और नीतीश जैसे बड़े नेता चुनावी राजनीति के मनोवैज्ञानिक व भावनात्मक पहलू से अनजान हैं? क्या प्रदेश की जनता विभिन्न दलों के नेताओं द्वारा हाल तक अलापे जा रहे बयानों-वादों को यूँ ही भुला देगी? क्या देश में तेजी से बदलते राजनीतिक माहौल के बावजूद बिहार में मंडल -कमंडल या पिछड़ा -अगड़ा के नाम पर चुनाव जीतना अब भी संभव होगा ? शायद नहीं।
ऐसा नहीं है कि प्रदेश भाजपा में भी सब कुछ बिलकुल ठीक -ठाक चल रहा है, अन्यथा भागलपुर और बांका की संसदीय सीट यूँ ही नहीं हारते और वह भी तब जब कि भागलपुर से शाह नवाज़ हुसैन जैसे भाजपा के बड़े नेता चुनाव लड़ रहे हों। कहने का अभिप्राय यह कि भाजपा गठबंधन के लिए आने वाला वक्त बहुत ही चुनौतीपूर्ण होगा जब उन्हें पूरी एकजुटता के साथ बिहार की जनता के सामने एक स्पष्ट रोड मैप प्रस्तुत करना पड़ेगा।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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