Tuesday, January 7, 2014

आज की कविता : धरती की आवाज

                                                                                 -मिलन  सिन्हा 
गुजरात में 
धरती में कंपन हुआ 
मात्र पैंतालीस सेकेंड 
और 
गणतंत्र दिवस के अवसर पर 
हजारों लोगों ने 
तिरंगे को अंतिम सलाम किया 
कुछ ही पल में 
कई एक शहर 
अनेकानेक कस्बे व गाँव 
श्मशान में तब्दील हो गए 
जो बचे - अनाथ, आहत, विपन्न, बेघर . .. 
ईंट, कंक्रीट के मलबे में 
अपना -अपना अतीत 
तलाशते फिर रहे थे 
सहायता कार्य के बीच 
जांच -पड़ताल की बात भी चल पड़ी 
भूखे को रोटी 
नंगे को कपड़ा 
बेघर को घर जैसे नारों से 
माहौल फिर गूंजने लगा 
बड़े पैमाने पर 
पुनर्निर्माण की योजना बनने लगी 
धरती पर 
और ज्यादा बोझ की संभावना प्रबल हुई 
इन सब घटना -दुर्घटनाओं के बीच 
मलबे से एक धीमी आवाज 
फिर सुनाई पड़ी 
'माँ, मुझे बचा लो, माँ 
मैं इतना बोझ नहीं सह सकती ..... '
कंपकंपी -सी  दौड़ गयी 
मेरे पूरे शरीर में 
सोच कर यह कि 
कहीं यह 'धरती' की आवाज तो नहीं !

           और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

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