- मिलन सिन्हा
हम सभी कुछ-न-कुछ करना चाहते हैं, खुश रहना चाहते हैं। चाहते हैं कि हर सुबह का आगाज एक नयी आशा के साथ हो और दिन भर के प्रयास और परिश्रम के बाद उस दिन के अनुभव एवं उपलब्धियों को समेटे रात में अच्छी नींद का आनंद ले सकें। परन्तु ऐसा रोज न जाने क्यों नहीं हो पाता है?
एक विज्ञापन तो आपने भी देखा होगा टीवी पर। वही जिसमें ऑफिस में काम के बोझ से परेशान एक बाबू पूछता है 'संडे कब आएगा'। इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में जिसे देखिये परेशान है, दुखी है, संडे की प्रतीक्षा में कम- से -कम सप्ताह के बाकी दिन मानसिक तनाव में जी रहा है। न ठीक से खा पा रहा है, न ठीक से सो पा रहा है और न ही किसी के कंधे पर सिर रख कर रो पा रहा है। कहे तो किससे कहे, करे तो क्या करे ?
तनाव बढ़ता जाता है। गुस्सा बीवी- बच्चों पर निकलता है या ऑफिस में अधीनस्थ सहकर्मियों पर, बेवजह। शॉर्टकट समाधान के तौर पर रात में दो-तीन पैग लेना पड़ता है या नींद की गोली। फिर भी सुबह वही हालत। क्यों ?
ऐसा इसलिए कि हम तनाव को दिमाग में बैठा कर सोचते और उलझते रहते हैं। समाधान आसान होता है, पर उसे ढूढ़ने का हमारा तरीका जटिल । मानसिक तनाव के ऐसे किसी अवस्था में आप उन कारणों को स्वयं एक कागज़ पर लिखें और उसी के सामने सम्भावित व व्यवहारिक समाधान भी लिखें। अधिकतर मामले में आप पाएंगे कि तनाव के उन कारणों का निराकरण आपने खुद कर लिया है। कहने का मतलब,दिमाग से जब कोई चीज कागज़ पर उतर आती है, अमूमन उसका समाधान दिख जाता है। हाँ, एकाध मामले ऐसे हो सकते हैं जिसको सुलझाने के लिए आपको कुछ कदम उठाने पड़ें, कुछ प्रयास करने पड़ें जो आपके सोच एवं सामर्थ्य से परे भी न हो। तभी तो दिनकर जी लिखते हैं :
ख़म ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।
तो संडे का इंतजार छोड़, रोज जीयें एक परफेक्ट लाइफ !
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते। असीम शुभकामनाएं।
# 'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित
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