Tuesday, December 1, 2020

संभव-असंभव और आपकी सोच

                                     - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

स्वामी विवेकानंद कहते हैं, "संभव की सीमा जानने का केवल एक ही तरीका है, असंभव से भी आगे निकल जाना.” अपने शब्दकोश में असंभव जैसे शब्द न होने की बात करनेवाले फ़्रांसिसी क्रांति के एक मुख्य योद्धा और बाद में फ़्रांस के सम्राट का पद ग्रहण करनेवाले नेपोलियन बोनापार्ट के जीवनवृत से हमें उनकी इस सोच का परिचय मिलता है.
दिलचस्प और विचारणीय बात यह है कि इतिहास के पन्नों में असाधारण और अकल्पनीय कीर्तिमान और उपलब्धियों के लिए जितने भी लोगों के नाम दर्ज हैं, संभव है कि उनको भी एक समय वह काम असंभव प्रतीत हुआ हो, परन्तु उन्होंने अपने संकल्प, समर्पण व अथक परिश्रम से उसे संभव कर दिखाया. 


यहां अमेरिका के मशहूर तैराक मार्क स्पिट्ज और उनके हमवतन माइकल फेल्प्स का जिक्र बहुत प्रासंगिक है.
मार्क स्पिट्ज ने 1972 के ओलंपिक में एक साथ सात गोल्ड मेडल जीतकर असंभव को संभव कर दिखाया था. उससे पहले 1936 के बर्लिन ओलिम्पिक में अमेरिकी धावक जेसी ओवंस ने  और 1964 के टोक्यो ओलिम्पिक में अमेरिकी तैराक डॉन स्कोलेंडर ने चार-चार स्वर्ण पदक जीतने का रिकॉर्ड बनाया था. जाहिर है कि  मार्क स्पिट्ज ने एक ही ओलिम्पिक में चार गोल्ड मैडल के विश्व रिकॉर्ड को तोड़कर सात गोल्ड मैडल जीतने का अविश्वसनीय कीर्तिमान बना दिया. आगे जो हुआ वह और भी आश्चर्यचकित करनेवाला सत्य था.  अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स  ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक में आठ गोल्ड मैडल जीतकर असंभव को संभव बनाने का नया इतिहास रच दिया. सच कहते हैं कि इस दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं. हम वो सब कर सकते है, जो हम सोच सकते है और हम वो सब सोच सकते है, जो आज तक हमने नहीं सोचा. 


अमूमन सभी छात्र-छात्राओं के जीवन में एकाधिक बार ऐसा वक्त आता है जब उन्हें लगता है कि यह काम बिलकुल असंभव है. इसके अनेक कारण हो सकते हैं, जिसमें  एक बड़ा कॉमन कारण होता है विद्यार्थी की सोच.
अनेक महान लोगों ने अलग-अलग सन्दर्भ में यह स्पष्ट तौर पर कहा है कि हम जैसा सोचते हैं, धीरे-धीरे वैसा ही बनते जाते हैं. बराबर जीतनेवाले और बराबर हारनेवाले दो विद्यार्थियों में फर्क इसी बात का होता है, जबकि दोनों एक तरह की क्षमतावाले होते हैं. दरअसल, होता यह है कि एक विद्यार्थी ने किसी टास्क के विषय में ठीक से जाने बिना या उसका विश्लेषण किए बिना ही उसे न करने का मन बना लिया. अब सोच के स्तर पर वह टास्क संभव होते हुए भी असंभव प्रतीत होने लगता है. इससे वह अंदर से कमजोर पड़ता जाता है  और फिर खुद को उस टास्क को करने लायक नहीं समझता है. कहने का मतलब यह कि आप खेलने से पहले ही मैदान छोड़ देते हैं. और देखा और पाया गया है कि क्विट करनेवाले कभी विन नहीं करते हैं. इसके विपरीत, जब कोई भी विद्यार्थी पॉजिटिव सोच और एक्शन के साथ आगे बढ़ता है तो वह नेपोलियन हिल की इस बात को साबित करता है कि मस्तिष्क किसी चीज की कल्पना कर सकता है तो उसे साकार भी कर सकता है. हां, यहां अल्बर्ट आइंस्टीन की इस बात को याद रखना जरुरी है कि हर व्यक्ति जीनियस है, लेकिन अगर आप किसी मछली की क्षमता उसके पेड़ पर चढ़ने से आंकना चाहते हैं तो वह जीवनभर यही सोच कर जीएगी कि वह तो निरा बेवकूफ है. कहने का अभिप्राय यह कि विज्ञान के किसी विद्यार्थी से कॉमर्स की परीक्षा में टॉप करने की अपेक्षा करना सही नहीं है. लेकिन अपने विषय की परीक्षा में परीक्षा से पहले ही खुद को फेल समझकर ड्राप हो जाना भी उचित नहीं माना जा सकता है.  तो विद्यार्थियों को क्या करना चाहिए?


1) किसी भी टास्क को बिना सोचे-समझे या जांचे-परखे सीधा ना न कहें और न ही किसी साथी-सहपाठी की बात पर कोई नेगेटिव फैसला कर लें. 2) जिस भी टास्क को हाथ में लें, उसके प्रति यह भाव मन में जरुर रखें कि यह हो सकता है और इसे अच्छी तरह करने की  पूरी चेष्टा करेंगे. 3) काम के बीच में कभी भी कोई रुकावट आए, कारण चाहे जो भी हो, बराबर अपनी क्षमता और अपने आत्मविश्वास पर  भरोसा बनाए रखें और काम करते रहें, और ज्यादा दृढ़ निश्चय के साथ. 4) टास्क थोड़ा कठिन रहे या रखें तो बेहतर होगा. ऐसा इसलिए कि मानव स्वभाव में यह बात अंतर्निहित होता है कि वह कठिन या विपरीत परिस्थिति में पहले से बेहतर परफॉर्म करता है. 5) यथोचित प्रयास के बाद भी अगर असफलता मिलती है तो उस लम्हे को सेलिब्रेट करके यादगार बना दें जिससे कि अगले प्रयास को इतना बेहतर बनाने का जुनून हो कि संभव की संभावना दो सौ फीसदी और असंभव की शून्य हो जाए. 

 (hellomilansinha@gmail.com) 


             और भी बातें करेंगे, चलते-चलते. असीम शुभकामनाएं.               
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