- मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर...
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
कल रात की हल्की बारिश के बाद आज सुबह जब बाजार की ओर निकला तो सामने की सड़क थोड़ी साफ़ लगी. देख कर अच्छा लगा. बारिश ने अपना काम किया था. लेकिन, थोड़ा और आगे बढ़ा तो खुशी गायब हो गई. एक बड़े मकान के सामने सड़क पर कचड़ा बिखरा पड़ा था. दो–तीन कुत्ते वहीं जमे थे. गाड़ियां कचड़े का कचूमर निकालती, कचड़े को और दूर तक फैलाती बेपरवाह दौड़ लगा रही थी. यह दृश्य मुख्य सड़क पर पहुंचने तक कई जगह दिखा. आते-जाते लोग कचड़े से बच कर निकल रहे थे; कुछ संभ्रांत किस्म के लोग नाक पर रुमाल भी रखे दिखाई पड़े.
आगे चौराहे पर एक नई बड़ी गाड़ी में बैठे चार-पांच पुलिस कर्मी खैनी मलने या मोबाइल में व्यस्त थे. ट्रैफिक पुलिस की ड्यूटी का समय अभी नहीं हुआ था. सड़क किनारे नियमित लगने वाले सब्जी-फल बाजार में अव्यवस्था का आलम था. गौर से इधर –उधर नजर दौड़ाई और कुछ सब्जी विक्रेताओं से पूछा तो पता चला कि कल दिन में नाले की उढ़ाई हुई और फिर जो रात में बारिश हुई, तो यह गन्दगी चारों ओर इस तरह बिखरनी ही थी. सभी विक्रेता नगर निगम को इस हाल के लिए दोष दे रहे थे. उनका कहना था कि नगर निगम टैक्स तो लेती है, लेकिन काम ठीक से नहीं करती. नाले की साप्ताहिक सफाई भी नहीं होती. जब भी सफाई- उढ़ाई होती है, नाले से निकले बदबूदार कचड़े का ढेर दो-तीन दिनों तक ऐसे ही पड़ा रहता है; भोर में कचड़ा उठाने के बजाय दुकानदारी शुरू होने के बाद नौ-दस बजे नगर निगम सड़क पर ट्रेक्टर लगा कर कचड़ा उठाती है और बदबू फैलाते हुए खुला ही ले जाती है.
दरअसल, शहर को साफ़ –सुथरा रखने के नाम पर नगर निगम ऐसे ही कार्य करता रहा है. विडम्बना है कि प्रदेश में भाजपा की सरकार है, प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान की खूब दुहाई दी जाती है, सफाई के मद में पहले से ज्यादा राशि खर्च करने की बात भी अखबारों में दिखती है, पर हकीकत कुछ और ही बयाँ करती है.
यह तो हुई नगर निगम या सरकार के कार्यशैली की बात. पर स्वच्छता के मुत्तलिक बड़ा सवाल यह है कि एक जागरूक शहरी और समाज के रूप में हम सब क्या कर रहे हैं? स्वच्छता तो ‘स्व’ अर्थात खुद से शुरू होता है न.
तो फिर चलते हैं वहीं जहां से यह चर्चा प्रारंभ हुई थी - अपनी गली में. गली में कचड़ा जिनके भी घर के सामने पड़ा और बिखरा हुआ मिले, क्या वे इसका समाधान अपने पड़ोसियों के साथ मिलकर आसानी से नहीं निकाल सकते? एक छोटी-सी पहल तो प्लास्टिक का कूड़ेदान रखकर कर ही सकते हैं, क्यों? फिर नगर निगम को नरक निगम कहना छोड़ उसके सफाई कर्मियों से कचड़े की नियमित सफाई का अनुरोध नहीं, आग्रह करें, जरुरत हो तो मिलकर करें. सार्थक परिणाम न निकले तो बात को आगे तक ले जाएं – मौखिक और लिखित दोनों स्तर पर. आखिर हमारे टैक्स के पैसे से ही नगर निगम के कर्मियों को वेतन मिलता है. यकीन मानिए, स्थिति सुधरेगी, बेशक कछुआ गति से.
अब चलें सब्जी-फल के बाजार में. जिस भी कारण से और जिसकी भी अनुमति या सहमति से सड़क किनारे ये लोग दुकान लगाते हैं, अपने आसपास की सफाई का ध्यान तो रख ही सकते हैं. सड़ी-गली सब्जियां, सूखे-गले फल, बेकार पत्ते-कागज़ आदि जहां-तहां न फेंक कर, बगल के नाले में न डाल कर उन्हें छोटे-बड़े डस्टबीन में डाल सकते हैं. शाम को घर लौटने से पहले अपनी जगह की सफाई कर अवशेष को कूड़ेदान के सुपुर्द कर दें. जो लोग ऐसा न करें, उन्हें सब मिलकर समझाने का प्रयास करें. झगड़ने की जरुरत नहीं. बिलकुल न समझें तो निगम के अधिकारी से आग्रह करें. इतने से भी स्वच्छता के अभियान में कुछ योगदान तो कर ही लेंगे.
मेरी तो स्पष्ट मान्यता रही है कि देश के एक आम नागरिक के रूप में हमें जो करना चाहिए, उसे हम करने का प्रयास करें, यथासाध्य करें. हर बात के लिए सरकार का मुखापेक्षी होना और सरकार पर निर्भर रहना कहां तक मुनासिब है. एक बात और, जब हम अपना कर्तव्य का निर्वाह करेंगे, तभी तो पूरी नैतिकता के साथ सरकार पर भी सही जोर डाल पायेंगे.
(hellomilansinha@gmail.com)और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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