Tuesday, April 15, 2014

आज की बात: गौरवशाली बिहार में आज की हकीकत

                                                              - मिलन सिन्हा 

Silhouette Of Buddha Statue Stock Photoलोकसभा चुनाव,2014 के मद्देनजर किसी भी प्रदेश में हिंसक घटनाओं में वृद्धि को बिल्कुल अस्वभाविक नहीं कहा जा सकता है, लेकिन बिहार में ऐसी घटनाओं में इजाफे को मात्र इस तरह व्याख्यायित करना शायद सही नहीं होगा । इसलिए, तमाम राजनीतिक उठा -पटक, नैतिक - अनैतिक जोड़ -तोड़, आरोप -प्रत्यारोप के बीच इन घटनाओं को एक व्यापक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में पूरी समग्रता में देखना जरुरी होगा । 

बिहार का अतीत अत्यन्त गौरवशाली रहा है, जिसका उल्लेख वेदों, पुराणों एवं महाकाव्यों तक में प्रचुरता में मिलता है । आबादी के लिहाज से यह देश का तीसरा तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से बिहार देश का 12वां बड़ा राज्य है । इसका 45 % हिस्सा कृषि क्षेत्र के अन्तर्गत आता है; 76 % आबादी खेती से अपना जीविका चलाती है ।   यहाँ की मिट्टी बहुत उपजाऊ है । यहाँ के आम जनता का जीवन सीधा -सादा है और यहाँ के लोग काफी मेहनती  तथा बचत पसंद हैं । बिहारी छात्र हमेशा से मेधावी रहे हैं ।  अखिल भारतीय  स्तर की हर परीक्षा में भी यहाँ के छात्रों की संख्या प्रत्याशा से हमेशा अधिक रहती है । गत दो दशकों से प्रदेश में कोई राजनीतिक अस्थिरता भी नहीं रही ।  और तो और पिछले आठ वर्षों से प्रान्तीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) भी औसतन 10 % से ज्यादा रहा है । 

तो फिर, बिहार में मानव विकास सूचकांक कमजोर क्यों है; बेहतर जीडीपी दर का अपेक्षित फायदा गरीबी उन्मूलन,शिक्षा, स्वास्थ्य,आवास,  रोजगार आदि क्षेत्रों और राज्य के सभी इलाकों और समुदायों को समावेशी रूप में क्यों नहीं मिला है; बिहार की प्रति व्यक्ति आय पिछले एक दशक में बेहतर तो हुई है, परन्तु यह अब भी देश के अग्रणी राज्यों के मुकाबले आधे से भी कम क्यों है ? क्या इन सबका धरना, प्रदर्शन, आन्दोलन और हिंसक घटनाओं से  कोई रिश्ता नहीं है ?

दरअसल, राज्य में अधिकांश किसान कृषक मजदूर हैं, लेकिन उनका यह दुर्भाग्य रहा है कि भूमि सुधार के लिए योजनाएं बनने के बावजूद उनपर सख्ती से अमल नहीं हो पाया । यहाँ भी एक हद तक भू -हदबंदी एवं भूदान के द्वारा खेत मजदूरों को जमीन देने का ढोल वर्षों से पीटा जाता रहा । ऊपर से गांव के सम्पन्न व उच्च जाति के भूस्वामियों द्वारा गरीब - दलितों पर किये जा रहे अत्याचार -अन्याय में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया जिसके फलस्वरूप भूस्वामी एवं भूमिहीन के बीच सामजिक तनाव व हिंसक संघर्ष की स्थिति किसी न किसी रूप में बनी रही । मनरेगा  आदि  के तहत रोजगार के कुछ अवसर बढ़ने के बाद भी  गांवों से पलायन का यह भी एक कारण है ।  

बिहार में पानी की बहुलता तो है, पर जल प्रबंधन की समुचित योजना के अभाव में कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति बनी रहती है । दूसरी ओर, बीज, खाद आदि मंहगे होते रहने के कारण कृषि उत्पादन लागत बहुत बढ़ गया है, बावजूद इसके फसल को बाजार तक ले जाकर बेचने में बिचौलियों की सेंधमारी भी कायम है । फलतः  किसानों को खेती से पर्याप्त आय तो होती नहीं है, पानी के बंटवारे आदि को लेकर भी मारपीट व हिंसक झड़प  होती रहती है । ऐसी विषम परिस्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब गांव के पढ़े -लिखे नौजवान साल -दर -साल बेरोजगार रहते हैं । 

बिजली की किल्लत व प्रशासनिक व्यवधानों के कारण बड़े पैमाने पर नए उद्योग स्थापित  होने में मुश्किलें तो हैं ही , सेवा क्षेत्र में भी सम्भावनाओं के बावजूद कतिपय कारणों से बात बन नहीं रही है जिसका सीधा असर पढ़े -लिखे युवकों के रोजगार सृजन  पर पड़  रहा है ।

 दरअसल, जहाँ तक कानून के सामने सबकी समानता के सिद्धांत का प्रश्न है, प्रशासन इसकी दुहाई तो देती है पर जमीनी हकीकत अभी भी भिन्न है । आजादी के 66 साल बाद भी जिसमें वर्त्तमान  सरकार  के 100 महीने का शासन भी शामिल है, आम जनता को लगता है कि यहाँ गरीबों, दलितों, शोषितों के लिए अलग क़ानून है तो अमीर, शक्तिशाली, ओहदेदार, रंगदार के लिए अलग क़ानून । हिंसा के बढ़ते जाने का यह एक प्रमुख कारण है । ऐसे में,  निष्पक्षता से कानून का पालन करवाना कानून के रखवालों के लिए एक बड़ी चुनौती तो है, लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती है खुद भी कानून का पालन करने की  नैतिक व प्रशासनिक  जिम्मेदारी का निर्वहन ।  ऐसा किये बगैर क़ानून पर लोगों का विश्वास बहाल करना प्रशासन के लिए बहुत मुश्किल तो है, पर असंभव कतई नहीं । इसके लिए प्रशासन में पूरी पारदर्शिता रखते हुए आम लोगों के सक्रिय सहयोग व भागीदारी से राज्य सरकार को आम जन से जुड़ी सभी समस्याओं का समयबद्ध तरीके से दीर्घकालिक समाधान  ढूंढ़ने का पूर्ण ईमानदारी से प्रयास करना  होगा ।  

हाँ, अंत में एक और बात । अगर हम गत आठ साल के शासन काल की तुलना उससे पूर्व के शासन काल से करें तो स्पष्ट रूप से नीतीश सरकार का पलड़ा काफी भारी है, तथापि यह तो  मानना पड़ेगा कि पिछले चुनाव में जितना बड़ा जनादेश मिला था, जितनी अपेक्षाएं इस सरकार ने जगायी थी  और जितने मौके उनके पास थे, उस दृष्टि से बिहार की  मौजूदा सरकार हर क्षेत्र में  और भी बहुत कुछ कर सकती थी । कारण अनेक हैं- हर समय -काल में होते हैं, कुछ अच्छा करने या ना करने के लिए । आप भी मानेंगे, कोई भी सरकार कितने अच्छे विचार रखती है लोकहित में काम करने की, वह तो काबिलेगौर है, लेकिन तमाम जाने - पहचाने  अवरोधों के बावजूद वह वाकई उन्हें कितना जमीन पर उतार पाती है, अंततः उसी आधार पर उसका मूल्यांकन होता है ।  

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
'प्रवासी दुनिया' में  प्रकाशित 

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