Monday, October 8, 2012

आज की कविता : अंतहीन तलाश

                                                                                 -- मिलन सिन्हा
 अंतहीन तलाश 
चारों  ओर  है 
भीड़ ही भीड़
आने  जाने  में भी 
छिल  रहा है शरीर .
मची है भागम भाग 
किसे पड़ी है 
अगर कहीं 
लगी भी हो आग . 
एक दूसरे को धकेलते 
पीछे छोड़ते 
पीछे छूटते भी .
कई बार गिराते 
कई बार गिरते  भी . 
कभी कुचलते 
कभी कुचले जाते भी . 
भाग रहे हैं हम सब 
आसपास के चीजों से, लोगों से 
नहीं कोई मतलब .
चाहे अनचाहे 
और बड़े भीड़ में 
शामिल होने को अभिशप्त .
ऐसे में, 
अपना वजूद तलाशने की बात 
टलती  रहती है 
हर न आनेवाले कल तक 
कौन जाने कब तक ?

# प्रवासी दुनिया .कॉम पर प्रकाशित

                          और भी बातें करेंगे, चलते चलते। असीम शुभकामनाएं।

6 comments:

  1. Nice poem.Bahut achha laga.Aaj ke sandarbh me bilkul sahi hai.SG

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    1. आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। आपको मेरी आसीम शुभकामनाएं।

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  2. Nice poem.Bahut achha laga.Aaj ke sandarbh me bilkul sahi hai.SG

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    1. आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। आपको मेरी आसीम शुभकामनाएं।

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  3. A marvelous poem.We are rushing towards unknown destination,why,nobody knows and during race ,we do not bother if someone dies.We are self concentred.We take birth.We live.We die one day ,but nobody knows why.G.P.Tripathi.

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    1. आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। आपको मेरी आसीम शुभकामनाएं।

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