- मिलन सिन्हा
सुनना एक कला है और एक लोकतांत्रिक सोच भी - यह हमने अनेकों बार सुना है । कहा जाता है कि खुली आंख, खुला कान और खुले दिमाग वाले लोग अपेक्षाकृत ज्यादा संतुलित, मर्यादित एवं संयमित होते हैं । अच्छे श्रोता का अच्छा वक्ता होना स्वाभाविक माना गया है । ऐसे भी, आम लोगों की यह धारणा गलत नहीं है कि जो नेता -प्रतिनिधि जनता की बात ठीक से सुनते तक नहीं हैं उनसे काम करने -करवाने की उम्मीद करना बेकार है । आप भी जानते हैं कि मरीज एवं उनके परिजन ऐसे डॉक्टरों से परेशान व पीड़ित रहते हैं जो रोगी की पूरी बात अच्छी तरह सुनने से पहले ही उपचार पर्ची (प्रिस्क्रिप्शन) लिख देते हैं । अनेक अभिभावकों और शिक्षकों का अपने बच्चों तथा विद्यार्थियों से पेश आने का यही तरीका है । ज्ञातव्य है कि अधिकारियों विशेषकर प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों में आम तौर पर श्रवण संयम की कमी पाई जाती है । दरअसल, अच्छी तरह सुनना न केवल बोलनेवाले के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता है, बल्कि किसी भी सफल संवाद प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त भी होती है । अधूरा सुनने एवं उस आधार पर मत बनाने का परिणाम सामान्यतः बहुत घातक और नुकसानदेह होता है । सच पूछिये तो हममें से अधिकांश लोग शरीर से तो वक्ता के साथ दिखाई देते हैं, लेकिन दिमाग से कहीं और होते हैं । दूसरे, बहुधा हम बोलनेवाले की बातों को समझने, जानने तथा सीखने के लिये नहीं, अपितु सवाल -जवाब करने की मंशा से सुनते हैं । यही हमारे लिये विषय वस्तु से भटकने और जवाब में ऊलजलूल बोलने का कारण बनता है । आजकल के टीवी बहसों में शामिल लोगों के साथ -साथ एंकरों के भी लगातार चीखते रहने और अंततः बहस को अर्थहीन बनाने का सबब भी यही है । महान व्यक्तियों की जीवनी पढ़ने तथा अपने आसपास के अच्छे लोगों का व्यवहार आदि को देखने से साफ़ हो जाता है कि वे किस तन्मयता से छोटे-बड़े सबकी बात या समस्या सुनते हैं और उन्हीं बातचीत में से समाधान का सूत्र तलाशने में कामयाब होते हैं ।
सुनना एक कला है और एक लोकतांत्रिक सोच भी - यह हमने अनेकों बार सुना है । कहा जाता है कि खुली आंख, खुला कान और खुले दिमाग वाले लोग अपेक्षाकृत ज्यादा संतुलित, मर्यादित एवं संयमित होते हैं । अच्छे श्रोता का अच्छा वक्ता होना स्वाभाविक माना गया है । ऐसे भी, आम लोगों की यह धारणा गलत नहीं है कि जो नेता -प्रतिनिधि जनता की बात ठीक से सुनते तक नहीं हैं उनसे काम करने -करवाने की उम्मीद करना बेकार है । आप भी जानते हैं कि मरीज एवं उनके परिजन ऐसे डॉक्टरों से परेशान व पीड़ित रहते हैं जो रोगी की पूरी बात अच्छी तरह सुनने से पहले ही उपचार पर्ची (प्रिस्क्रिप्शन) लिख देते हैं । अनेक अभिभावकों और शिक्षकों का अपने बच्चों तथा विद्यार्थियों से पेश आने का यही तरीका है । ज्ञातव्य है कि अधिकारियों विशेषकर प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों में आम तौर पर श्रवण संयम की कमी पाई जाती है । दरअसल, अच्छी तरह सुनना न केवल बोलनेवाले के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता है, बल्कि किसी भी सफल संवाद प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त भी होती है । अधूरा सुनने एवं उस आधार पर मत बनाने का परिणाम सामान्यतः बहुत घातक और नुकसानदेह होता है । सच पूछिये तो हममें से अधिकांश लोग शरीर से तो वक्ता के साथ दिखाई देते हैं, लेकिन दिमाग से कहीं और होते हैं । दूसरे, बहुधा हम बोलनेवाले की बातों को समझने, जानने तथा सीखने के लिये नहीं, अपितु सवाल -जवाब करने की मंशा से सुनते हैं । यही हमारे लिये विषय वस्तु से भटकने और जवाब में ऊलजलूल बोलने का कारण बनता है । आजकल के टीवी बहसों में शामिल लोगों के साथ -साथ एंकरों के भी लगातार चीखते रहने और अंततः बहस को अर्थहीन बनाने का सबब भी यही है । महान व्यक्तियों की जीवनी पढ़ने तथा अपने आसपास के अच्छे लोगों का व्यवहार आदि को देखने से साफ़ हो जाता है कि वे किस तन्मयता से छोटे-बड़े सबकी बात या समस्या सुनते हैं और उन्हीं बातचीत में से समाधान का सूत्र तलाशने में कामयाब होते हैं ।
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