Thursday, May 29, 2014

आज की कविता : पुराने शहर में

                                            - मिलन सिन्हा 
चेहरे से नहीं 
अब 
चाल से पहचानता हूँ 
नाम से नहीं 
अब 
आवाज से जानता हूँ 
काम बहुत मुश्किल है 
लेकिन 
कोशिश करता हूँ 
पुराने शहर में 
लौटा हूँ 
एक बड़े अन्तराल के बाद 
यहाँ -वहाँ  जाता हूँ
निगाहें ढूँढ़ती है 
अपने स्कूल के सहपाठी को 
मुहल्ले के साथी खिलाड़ी को 
पहचाने जो मुझे 
ऐसे अपने को 
निस्वार्थ जो मिले 
गले लगे 
ऐसे संगी-साथी को 
देखता हूँ 
इसी बीच 
हर तरफ 
भीड़ का एक रेला है 
घर पीछे हो गए हैं 
दुकानें सामने 
एक नई पीढ़ी 
अनबुझ लिबासों में 
आ गई है सड़कों पे 
गुम हो गई है जैसे 
पुरानी सूरतें 
मूंछ, दाढ़ी, झुर्रियों 
स्नो, पाउडर, क्रीम, चश्मे. ... में 
अथवा 
जीवन के संघर्ष 
तनाव, अनिश्चतता .....ने 
खंडहर बना दिए हैं 
घूमता हूँ सुबह -शाम 
आँखें थक जाती हैं 
बढ़ती भीड़ में 
अपनों को तलाशते हुए 
अपना शहर 
कभी - कभी 
पराया-सा लगने लगता है 
पर 
बाकी है अब भी आस 
बुझी नहीं है 
प्यार की प्यास 
तभी तो 
नाम से न सही 
चेहरे से न सही 
चाल, आवाज ...... से   
पहचानने में लगा हूँ मैं 
अपने अपनों को 
अपने पुराने शहर में !

              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

# अक्षर पर्व के अक्टूबर'05 अंक में प्रकाशित 

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