- मिलन सिन्हा
उस दिन
प्लेटफार्म पर बहुत भीड़ थी . शाम हो चली थी. लड़के एक प्रतियोगिता परीक्षा देकर लौट
रहे थे. दैनिक मजदूरों की संख्या भी कम न थी. ट्रेन आने की घोषणा हो चुकी थी.
प्लेटफार्म पर अफरा –तफरी मची थी.
ट्रेन प्लेटफार्म
पर लगी तो लड़कों ने लपक कर सीट पर कब्ज़ा जमाया. मजदूरों एवं अन्य यात्रियों को
नीचे बैठकर या खड़े रहकर संतोष करना पड़ा.
गाड़ी चली तो आपसी
बातचीत का सिलसिला भी जोर पकड़ा. राजनीति से लेकर फिल्मों तक की चर्चा चल पड़ी. तभी रमेश
की नजर टी .टी बाबू पर पड़ी जो थोड़ी दूर पर टिकट चेक कर रहे थे. रमेश ने अन्य दो
लड़कों को साथ लिया और उल्टी दिशा में चल पड़ा. भीड़ काफी थी. लोग खड़े भी थे, नीचे
बैठे भी थे. रमेश एवं उसके साथियों को वहां से जल्दी खिसक जाने में दिक्कत हो रही
थी. वे लोग नीचे बैठे यात्रियों पर झल्लाते हुए चले गये.
इस बीच दूसरा स्टेशन आ गया. रमेश व उसके साथी नीचे
उतर गये. गाड़ी जब फिर खुली वे लोग फिर उसी
डिब्बे में चढ़ गये. तब तक टी .टी बाबू दूसरे डिब्बे में प्रवेश कर गये थे . अपने सीट
तक जाने में उन्हें फिर असुविधा हो रही थी.
रमेश ने अपने
साथियों से कहा, ‘पता नहीं, आज यह टी .टी इस भीड़ में भी इस डिब्बे में क्यों आ गया
? बेमतलब की परेशानी हो गई.’ तभी रमेश का पांव एक मजदूर कमलू से टकरा गया
और वह लड़खड़ा गया. कमलू की ओर रमेश ने गुस्से से देखा और कहा, ‘यह भी कोई
बैठने की जगह है ? क्यों बैठ जाते हो यहां
तुम लोग ? उठो यहां से, शर्म भी नहीं
.....’
कमलू अपनी जगह से नहीं हटा, अपितु बड़ी दृढ़ता के साथ उसने उत्तर
दिया, ‘भाई, जैसे तुम लोग बिना टिकट शान से सीट पर बैठे हो, उसी तरह हमलोग टिकट
खरीदकर इत्मीनान से यहां जमीन पर बैठे हैं. शर्म किसे आनी चाहिए, तुम खुद समझ लो.’
कुछ क्षण के लिए चुप्पी छा गयी. रमेश और उसके साथी वहां से चुपचाप चले गए.
कुछ क्षण के लिए चुप्पी छा गयी. रमेश और उसके साथी वहां से चुपचाप चले गए.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# लोकप्रिय अखबार , 'हिन्दुस्तान'
में 14 मई , 1998 को प्रकाशित
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