- मिलन सिन्हा
पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें या हाल में सम्पन्न हुए बिहार विधान सभा के उपचुनाव की बात करें, वाम दलों की मौजूदा स्थिति पर कोई चर्चा तक नहीं होना कुछ अटपटा लगता है। गरीबी, बीमारी, बेकारी, शोषण ,कुपोषण, अशिक्षा , भूमि विवाद , बाल विवाह, आर्थिक -सामाजिक असमानता, बाढ़ ,सूखा, भ्रष्टाचार आदि के मामले में बिहार देश के चंद पिछड़े राज्यों में से एक बड़ा और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य रहा है। गौर करें तो देश -प्रदेश में दशकों से यही वामपंथी राजनीति के प्रमुख सैद्धान्तिक मुद्दे रहे हैं। शायद इन्हीं बातों के चलते अब तक राजधानी पटना की सड़कें और मैदान उनके द्वारा आहूत धरना -प्रदर्शन में सर्वहारा वर्ग के लोगों से भरा दिखता है। बिहार के मतदाताओं में आजादी के 67 साल बाद भी इन्हीं दबे -पिछड़े और जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से जूझते लोगों की संख्या ज्यादा है। फिर ऐसा क्या है जो इन वाम दलों - सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई(एमएल) को भारतीय लोकतंत्र के चुनावी समर में विजयश्री से वंचित रख रहा है ? क्या धरना -प्रदर्शन में दिखने वाली भीड़ चुनाव में भाग लेनेवाली भीड़ नहीं है ? क्या बिहार में इन दलों खासकर सीपीआई और सीपीएम द्वारा अपनायी जाने वाली बदलती रणनीति से इनके समर्थक भी कन्फ्यूज्ड हो गए हैं जिसका फायदा राजद और जदयू जैसे दल उठा रहे हैं ? ये प्रश्न अहम एवं विचारणीय हैं।
सच पूछिये तो एक लम्बे अरसे से सीपीआई और सीपीएम जैसे अखिल भारतीय पहचान वाले दल बिहार की राजनीति में साम्प्रदायिकता को मुख्य मुद्दा बता कर राजद और कांग्रेस के छोटे पार्टनर की भूमिका, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप, से निभाते रहे हैं। परिणाम स्वरुप ये दल खुद अपनी आंतरिक व वैचारिक ताकत को कम करते गए और अपनी राजनीतिक जमीन से बेदखल हो कर हाशिये पर चले गए। 1990 के पहले सूबे में भाकपा काफी मजबूत थी, लेकिन बाद में राजद से नजदीकियों के कारण वह कमजोर होती गई।
कहना न होगा, अगर बदली हुई राजनीतिक, सामजिक व आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर आज भी वामपंथी विचारधारा वाले प्रमुख दल एकजुट हो कर चलने का फैसला कर लें तो कोई कारण नहीं कि वे अगले कुछ वर्षों में एक मजबूत वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति बनकर न उभर सकें।
कई जाने -पहचाने कारणों से बिहार की राजनीति को सार्थक, सशक्त व जीवंत बनाये रखने के लिए यह अनिवार्य भी है। वाम दलों के मजबूत होने से सूबे की राजनीति में गरीब तबकों को आवाज मिलेगी।
कहना न होगा, अगर बदली हुई राजनीतिक, सामजिक व आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर आज भी वामपंथी विचारधारा वाले प्रमुख दल एकजुट हो कर चलने का फैसला कर लें तो कोई कारण नहीं कि वे अगले कुछ वर्षों में एक मजबूत वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति बनकर न उभर सकें।
कई जाने -पहचाने कारणों से बिहार की राजनीति को सार्थक, सशक्त व जीवंत बनाये रखने के लिए यह अनिवार्य भी है। वाम दलों के मजबूत होने से सूबे की राजनीति में गरीब तबकों को आवाज मिलेगी।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं ।
# लोकप्रिय हिंदी दैनिक, 'दैनिक भास्कर' में प्रकाशित दिनांक :02.09.2014
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