Saturday, December 30, 2017

आज की बात : दुष्यन्त कुमार को याद करते हुए




आज दुष्यन्त कुमार की पुण्य तिथि है. मात्र 42 साल की छोटी-सी जिंदगी जीनेवाले वही कवि- गजलकार जिनकी ये पंक्तियां हम लोग संसद से सड़क तक समय-समय पर सुनते रहे हैं:

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए.

01 सितम्बर,1933 को उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद के राजपुर नवादा गाँव में दुष्यन्त कुमार त्यागी का जन्म हुआ. इलाहाबाद विश्वविद्द्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे आकाशवाणी के भोपाल केन्द्र से जुड़े. दुष्यन्त कुमार के नाम से प्रसिद्ध होने से पहले अपने लेखन के शुरूआती दौर में वे दुष्यन्त कुमार परदेशी नाम से लिखा करते थे. 30 दिसम्बर,1975 को वे दुनिया से विदा हो गए, अपने परिजनों, मित्रों और लाखों-करोड़ों पाठकों-प्रशंसकों को छोड़ कर.

दुष्यन्त ने  गज़ल, कवितागीतकाव्य नाटक आदि कई विधाओं में लिखा, किन्तु उन्हें अपने गजलों के कारण ही साहित्य में वह मुकाम मिला जो विरले कलमकारों को मिलता है. सच कहें तो दुष्यन्त की अपार लोकप्रियता और प्रसिद्धि का मुख्य सबब उनकी बेमिसाल रचनाएं रहीं. लीजिये प्रस्तुत है कुछ और पंक्तियां:

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो.

अपने बेहद लोकप्रिय गजल संग्रह, 'साए में धूप' के प्रस्तावना में वे लिखते हैं : "मैं स्वीकार करता हूँ कि उर्दू और हिन्दी अपने-अपने सिंहासन से उतर कर जब आम आदमी के पास आती है तो उनमें फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओँ को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूं. इसलिए ये गजलें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूँ." 

दुष्यन्त ने प्रशासन, राजनीति, भ्रष्टाचार, सामाजिक-आर्थिक  विसंगतियों आदि पर अपने तरीके से खुलकर लिखा. आपात काल पर उनकी प्रतिक्रिया देखिए:

मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलनेवाले "सम्पूर्ण क्रांति" आन्दोलन के वे समर्थक थे और लोकनायक से प्रभावित भी. ये पंक्तियां जेपी के लिए ही तो लिखे गए:

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अंधेरी  कोठरी में एक  रोशनदान है. 

निजी जीवन में दुष्यन्त सहज, सरल, स्वाभिमानी और बेहद संवेदनशील इंसान थे. उनके अभिन्न मित्रों में नामचीन संपादक एवं लेखक कमलेश्वर सहित कई बड़े रचनाकार थे. उनके लेखन के मुरीद तो असंख्य लोग रहे हैं और रहेंगे. जाने-माने कवि-शायर निदा फाजली ने उनके बारे में लिखा है, "दुष्यन्त की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी बनी है... ..." 
तभी तो वे ऐसा लिख सकते थे:

जिन आंसुओं का सीधा तआल्लुक था पेट से,
उन आंसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया. 

....मौका मिले तो दुष्यन्त को जरुर पढ़ें. मेरे तो ये पसंदीदा रचनाकार रहे हैं.
                   
                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
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Sunday, December 24, 2017

आज की बात : किसी को जेल, किसी को बेल और कुछ मासूम सवाल

                                                                                             - मिलन सिन्हा 

पिछले दो-तीन दिनों से  रांची में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई थी. कारण, बहुचर्चित चारा घोटाले के एक मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव एवं जगन्नाथ मिश्र सहित कुल 22 अभियुक्तों को सीबीआई कोर्ट के फैसले का इन्तजार था. किन्तु -परन्तु और ऐसा फैसला होगा तो वैसा होगा जैसे अनुमान- अपेक्षा पर गर्मागर्म बहस जारी था. 

अमूमन ऐसी राजनीतिक चर्चाओं में लोग दलगत एवं व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से चालित होते पाए जाते हैं. ऐसे में, उसमें  तर्क, तथ्य और तारतम्य का अभाव स्वभाविक होता है. तथापि ऐसे तर्क-वितर्क में लोग समय न बिताएं, ऐसा राजनीतिक रूप से अति जागरूक हमारे समाज में कहाँ मुमकिन है ?  

ऐसे आजकल जहाँ भी 10-20 स्कार्पियो -बोलेरो- फार्चुनर गाड़ियां सड़क पर मनचाहे तरीके से खड़ी दिखे, तो समझने में कोई दिक्कत नहीं होती कि पॉलिटिकल लोग आसपास किसी कार्यक्रम के निमित्त जमा हुए हैं. ऊपर से अगर पुलिस बंदोबस्त भी हो तो पॉलिटिकल वीआईपी के शामिल होने का संदेश स्वतः मिल जाता है. 

खैर, एक संगोष्ठी में कल सुबह मुझे भी शामिल होना था. उसी सिलसिले में सुबह करीब 10.40 बजे जब रांची रेलवे स्टेशन के पास अवस्थित आयोजन स्थल 'होटल बीएनआर चाणक्य' के निकट पहुंचा तो पुलिसवाले ने गाड़ी रोक दी. कारण यह था कि लालू जी उक्त होटल के पास ही रेलवे के गेस्ट हाउस में ठहरे हुए थे और उस समय अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ सीबीआई कोर्ट के लिए निकल रहे थे. दर्जनों बड़ी-बड़ी गाड़ियां और हजारों की संख्या में वहां मौजूद राजनीतिक लोगों को सम्हालने में अनेक पुलिस अधिकारी और जवान लगे हुए थे. फिर भी, जबतक उनके साथ चल रहे पचासों गाड़ियों का काफिला नहीं निकल गया, हमारी गाड़ी सहित अनेक गाड़ियां रुकी रही - करीब 20 मिनट तक. बहरहाल, इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि रांची की सड़कों पर सामन्यतः रोज जाम का दंश झेलने को अभिशप्त आम शहरी को कल रांची रेलवे स्टेशन से  सीबीआई कोर्ट तक उनके (लालू जी) काफिले के गुजरने के क्रम में क्या कुछ झेलना पड़ा होगा. कोर्ट परिसर में क्या-क्या हुआ और किसके पक्ष या विपक्ष में फैसला आया, इसका व्यापक विवरण तो टीवी चैनलों और आज के अखबार के रिपोर्ट से सबको मालूम हो चुका है, लिहाजा उस पर और कुछ कहने की यहाँ कोई जरुरत नहीं.  

बस चलते-चलते कुछ  मासूम एवं स्वभाविक सवाल :
  • राजनीतिक नेताओं के खिलाफ चलने वाले सभी क्रिमनल केसों के स्पीडी ट्रायल की औपचारिक कानूनी व्यवस्था क्यों नहीं की जाती, जब कि  इसके एकाधिक फायदे हैं - समाज और सरकार के साथ-साथ आरोपी नेताओं के लिए भी ? 
  • रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड जैसे ज्यादा भीड़-भाड़ वाले स्थानों के बिल्कुल निकट नेताओं के ठहरने और उनके हजारों समर्थकों के जमा होने से जुड़े जोखिम और संभावित उपद्रव को कम करके आंकना क्या उचित है?
  • आम जनता, बड़े नेता और उनके समर्थकों के लिए क्या यह बेहतर नहीं होता कि लालू जी जैसे  नेता को कोर्ट के नजदीक किसी स्थान पर ठहराया जाता या उनसे किसी ऐसे स्थान पर ठहरने का आग्रह प्रशासन द्वारा किया जाता ? 
  • क्या किसी भी नेता- राजनीतिक या धार्मिक,  के पक्ष में कथित समर्थकों की असीमित भीड़ को किसी भी शहर की रोजमर्रा की जिंदगी को दुष्प्रभावित करने की छूट प्रशासन को देनी चाहिए, खासकर ऐसे ही एक प्रकरण में हाल ही में चंडीगढ़-पंचकुला में हुए व्यापक उपद्रव-तोड़फोड़ के मद्देनजर ?  
  • क्या ऐसे अवसरों पर स्थानीय पुलिस प्रशासन को अपने सबसे अच्छे कर्मियों को भीड़ प्रबंधन एवं कानून - व्यवस्था सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी नहीं देनी चाहिए, जिससे वे बिना भय और पक्षपात के निष्पक्ष होकर कानून सम्मत कार्य कर सकें ?  
  • क्या मीडिया के लिए, खासकर ऐसे मामलों में स्व-निर्धारित मानदंड के तहत संतुलित एवं तथ्यपरक समाचार संप्रेषित करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए ?
आशा है, ऐसे और कई सवाल आपके मन में भी हैं. तो साझा करें जिससे कि हम सब मिलकर उनका सही उत्तर और समाधान निकालने का प्रयास कर सकें. 

                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Saturday, December 23, 2017

आज की कविता : आकलन

                                                                                                           - मिलन सिन्हा 

कोई चारा अब नहीं.
गलत तो आखिर गलत है
कैसे कहें उसे सही.
हर काम का आकलन
होना है बस यहीं.
मानें - न - मानें
हर ख़ुशी, हर गम  के लिए
जिम्मेदार बस हम ही !

और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

आज की बात : ऊर्जा संवाद और हम

                                                                                                  - मिलन सिन्हा 
इधर कई दिनों से प्रसिद्ध न्यूज़ एजेंसी 'हिन्दुस्थान समाचार' द्वारा आज के दिन रांची में आयोजित होनेवाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय 'ऊर्जा संवाद' में झारखण्ड के मुख्यमंत्री सहित भाजपा के कई बड़े नेताओं के भाग लेने की चर्चा  चल रही थी. ऊर्जा संवाद कार्यक्रम में मुझे भी शामिल होना था. कार्यक्रम स्थल में पुलिस गेट से लेकर पूरे परिसर में मुस्तैद थी. कारण स्पष्ट था. 

खैर, 'ऊर्जा संवाद' संगोष्ठी में जब मैं पहुंचा, तब तक कुर्सियां लगभग भर चुकीं थी, लेकिन मुख्यमंत्री के आगमन की प्रतीक्षा में कार्यक्रम प्रारंभ होना बाकी था. पंजीकरण की औपचारिकता के बाद हॉल में बाकी आगंतुक भी अपना-अपना स्थान ग्रहण करते जा रहे थे. एकाएक बाहर हलचल बढ़ी तो पता चला कि मुख्यमंत्री आ रहे हैं. वे आ गए तो फटाफट कार्यक्रम शुरू हो गया. 'हिन्दुस्थान समाचार' के अध्यक्ष रवीन्द्र किशोर सिन्हा के स्वागत भाषण के बाद पद्मश्री बलबीर दत्त ने विषय प्रवेश का कार्य किया और फिर झारखण्ड सरकार के विकास आयुक्त द्वारा ऊर्जा, खासकर प्रदेश में बिजली की स्थिति का संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत किया गया. झारखण्ड के मुख्यमंत्री, कोल इंडिया के अध्यक्ष, पॉवर ग्रिड के पूर्व अध्यक्ष सहित बाद के वक्ताओं ने जो बताया उससे निम्नलिखित अहम बातें सामने आई:
  1.  देश में आजादी के वक्त बिजली का कुल उत्पादन 1368 मेगा वाट था जो अभी बढ़कर 3,38,000 मेगा वाट हो गया है. 
  2.  सौर ऊर्जा ही हमारे गांवों के लिए सर्वथा उपयोगी है, जिसके लिए हमें अपना पारम्परिक नजरिया बदलना होगा.
  3.  दिसम्बर,2014 में झारखण्ड के कुल 68 लाख परिवारों में से 30 लाख परिवार को बिजली उपलब्ध नहीं थी. पिछले तीन वर्षों में इसमें बहुत सुधार हुआ है और 2018 के अंत से पहले सभी घरों तक बिजली जरुर पहुंचाई जायेगी. ऐसा झारखण्ड सरकार का दृढ़ विश्वास है और प्रधानमंत्री का निर्देश भी.
  4. प्रधानमंत्री का तो कहना यह है कि देश के हर परिवार को 2018 की समाप्ति से पूर्व विश्वसनीय (reliable) और खर्च वहन करने योग्य (affordable) बिजली मिलने लगे.
  5. ऐसे, आंकड़े बताते हैं कि देश में  प्रति व्यक्ति बिजली खपत विश्व औसत से मात्र एक तिहाई है, और चीनी औसत से भी. 
  6. वर्ल्ड रिज़र्व के मुकाबले देश में गैस रिज़र्व मात्र 0.6 %, तेल रिज़र्व 0.4 % और कोल रिज़र्व 7% है.
  7. ताजा आंकड़ों के मुताबिक़ देश में सम्प्रति 300 बिलियन टन कोल रिज़र्व है. 
  8. वर्तमान में देश में सालाना कोल उत्पादन 660  मिलियन टन होता है.
  9. अभी भी देश में कुल बिजली उत्पादन का करीब 60 % कोयले पर निर्भर है.
  10. बिजली के उत्पादन, संचरण एवं वितरण में जो तमाम तरह की  कमियां और अनियमिततायें हैं, उन पर गंभीरता से ध्यान देने की जरुरत है.
  11. हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत तो है, लेकिन साथ ही ऊर्जा के संरक्षण पर भी उतना ही ध्यान देना आवश्यक  है. 
  12.  झारखण्ड के मुख्यमंत्री के अनुसार झारखण्ड राज्य 'पॉवर हब' बनने की ओर अग्रसर है. 
आशा है, समय - समय पर ऐसे संवाद आयोजित होते रहेंगे, क्यों कि जनसंवाद से समस्या समाधान की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया समावेशी विकास और लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरुरी है. आप क्या कहते हैं? 
                                                                       (hellomilansinha@gmail.com)
                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, December 19, 2017

आज की बात : ठण्ड में संबंधों की गर्माहट

                                                          - मिलन सिन्हा 
प्याज-लहसुन-अदरख-नींबू आदि बेचनेवाले कलीम की दुकान में आज भीड़ कम है. जाड़े का शुरूआती दौर है. सुबह हल्की बूंदा-बांदी हुई है, सो ठण्ड थोड़ी ज्यादा है. बेशक प्याज का भाव गर्म है, 60 रूपये प्रति किलोग्राम. बाएं हथेली में खैनी (देशी तम्बाकू) दबाये उसने छोटी टोकरी आगे बढ़ा दिया, प्याज चुनकर रखने के लिए. 

प्याज चुनते हुए मैंने पूछा कि आखिर इस मौसम में इतनी मेहनत करने की क्या जरुरत है?

बच्चों -परिवार के भले के लिए, उनके भविष्य के लिए - कलीम ने झट उत्तर दिया.

लेकिन वे लोग तो जल्दी ही सड़क पर आ जायेंगे, आप कितना भी कुछ कर लो - मैंने उसकी आँख में आँख  डालकर कहा.

सुबह-सुबह ऐसा क्यों बोल रहे हैं आप ? ऐसा क्यों होगा ? - कलीम ने नाराज होते हुए पूछा.

कैंसर का नाम सुना है? आज नहीं तो कल तुम कैंसर के शिकार होगे और फिर सोचो तुम्हारा क्या होगा? न कमाने लायक रहोगे और न ही तुम्हारी थोड़ी-बहुत बचत से बहुत कुछ हो पायेगा? बस इस खैनी खाने के कारण! क्यों खाते हो इस जहर को ?- मैंने एक सांस में सब कुछ कह दिया.

आदत हो गयी है, क्या करें? आप बिलकुल ठीक कहते हैं. लीजिये, आज से, अभी से इसे छोड़ता हूँ -  इतना कह कर कलीम ने खैनी को दूर फेंका. फिर मेरे लिए प्याज तौलने लगा.

इस दौरान  मैंने कैंसर के विषय में उसे और कुछ बताया. स्वास्थ्य पर खैनी- तम्बाकू आदि के विभिन्न गंभीर दुष्प्रभावों के बारे में बताया और यह भी कहा कि मैं दो-तीन दिन बाद फिर देखूंगा कि उसने खैनी खाना फिर शुरू तो नहीं कर दिया. 

न जाने मेरी बातों का क्या असर हुआ कि कलीम ने मुझसे न केवल यह वादा किया कि वह अब कभी खैनी नहीं खायेगा बल्कि हमारे सामने ही खैनी के चुनौटी ( छोटा डब्बा) को बहुत दूर फेंक दिया. 
    
सच कहूँ आपलोगों से, तब से मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.

कलीम आप स्वस्थ रहो, बहुत उन्नति करो. तुम्हारे पूरे परिवार को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं. और हाँ, अपने आसपास किसी को खैनी खाते देखो, तो उसे भी बताना, टोकना... ....            (hellomilansinha@gmail.com)

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Tuesday, November 21, 2017

आज की कविता : बोझ

                                                                                                   - मिलन सिन्हा 

हाथ पसारे आते हैं
हाथ पसारे जाते हैं
जीवन के इस कटु सत्य को
फिर क्यों भूल जाते हैं ?
लूट-खसोट में लग जाते हैं
धरती पर बस
एक बोझ बनकर रह जाते हैं.

और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, November 14, 2017

आज की बात : आलू -प्याजवाला रिश्ता

                                                                                         - मिलन सिन्हा 
आलू सभी सब्जी का साथी है. हर मौसम में मिलता है, हर जगह मिलता है. गरीब-अमीर सबका पसंदीदा है. कारण-अकारण न जाने कितने तरह के व्यंजन में आलू की उपस्थिति अहम होती है. घर में और कोई सब्जी नहीं हो तब भी आलू का भरता, भुजिया, आलू दम जैसे तुरत तैयार होने वाले व्यंजन से गृहणियां भोजन करनेवाले छोटे-बड़े सबको संतुष्ट कर पाती है. 

आलू -प्याज के चिरंतन दोस्ती से भी हम सब वाकिफ हैं. शायद ही कोई दुकान हो जहाँ दोनों चीजें साथ-साथ बिकती न हों? स्थानीय सब्जी बाजार के ऐसे ही एक दुकान में आज आलू खरीदने के क्रम में मोहन जी का गुस्सेवाला रूप देखा, हँसता हुआ चेहरा तो कई बार देखा है.  

मोहन जी बिहार के भोजपुरी इलाके महाराजगंज के मूल निवासी हैं, पर अब काफी अरसे से रांची में रहकर आलू-प्याज  आदि बेचते हैं. उनकी दुकान में साथ काम करते हैं एक बुजुर्ग व्यक्ति जो अलग-अलग साइज और क्वालिटी के आलू-प्याज  को ग्राहकों के लिए बीन-चुन कर विभिन्न खाने या बड़ी-बड़ी टोकरी में रखते हैं. मोहन जी का काम ग्राहकों को सामान  बेचना और गल्ला मैनेज करने का है. दोनों के बीच मोटे तौर पर श्रम का बंटवारा ऐसा ही है. सामान्यतः मोहन जी मृदुभाषी और हंसमुख हैं, व्यवहारकुशल भी. भोजपुरी में 'का हाल बा' कहते ही उनका चेहरा खिल जाता है. महराजगंज की चर्चा कर दें तो फिर क्या कहना! 

आज सुबह जब मैं पहुंचा तो मोहन जी उन बुजुर्ग सहकर्मी पर बिगड़ रहे थे- 'क्यों नहीं मेरी बात सुनते हैं; कितनी बार एक ही बात कहें; ऐसे दुकानदारी कैसे चलेगी.....'

बुजुर्ग व्यक्ति चुपचाप अपना काम करते रहे, लेकिन उनके चेहरे पर नाराजगी दिख रही थी. मोहन जी के बार-बार वही बात कहने पर धीरे से सिर्फ इतना कहा कि कर ही तो रहे हैं काम जैसे आप कहते हो. 

मैंने मोहन जी को शांत होने को कहा और पूछा कि यह बुजुर्ग कौन है.  वो मेरे सगे बड़े भाई सोहन हैं. इस पर मैंने जब यह कहा कि मोहन जी बचपन में बड़े भाई के डांट-फटकार का हिसाब चुकता कर रहे हो क्या,  तो मोहन हंस पड़े और सोहन भी. 

'कहा, न बाबू वो बात नहीं है. हम लोग में अब बड़ा-छोटा कोई नहीं है. अब तो हम यहाँ घर से दूर दोस्त के तरह रहते हैं. जिससे जब कोई गलती होती है, तब दूसरा उस पर थोड़ा बिगड़ जाता है. फिर तो वही दोस्ती- मस्ती.  बस समझिये तो आलू-प्याज वाला रिश्ता, और क्या?'

आलू -प्याज लेकर लौटते हुए मैं अच्छा महसूस कर रहा था, कारण तनाव प्रबंधन और रिश्तों की गर्माहट के एक छोटे सत्र का हिस्सा जो बन पाया था.
                                                                           (hellomilansinha@gmail.com)
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Thursday, October 19, 2017

आज की कविता : एक दीया अन्दर जलाएंगे

                                                                                                                - मिलन सिन्हा


जेब बेशक खाली
फिर भी मनेगी दिवाली
दिवाली का है
दिल से रिश्ता
दिल को मनाएंगे
मानस को समझायेंगे
किसी रोते को हंसाएंगे 
एक दीया अन्दर जलाएंगे
दिवाली तो हम बस
ऐसे ही मनाएंगे !


                                                                              (hellomilansinha@gmail.com)

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Thursday, October 12, 2017

प्रेरक प्रसंग : कैसे पहुंचे लोहिया मद्रास से कलकत्ता ?

                                                                                      - मिलन सिन्हा
ब्रिटिश हुकूमत का दौर था. पूरे देश में स्वतंत्रता आन्दोलन का जोर था. ऐसे ही समय डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित लोहिया जी जब बर्लिन से पानी के जहाज द्वारा मद्रास पहुंचे तो उस समय उनके पास एक भी पैसा नहीं था. ऊपर से किताबों सहित उनका सारा सामान न जाने क्यों, रास्ते में ही जब्त कर लिया गया था. अब समस्या यह थी कि मद्रास से कलकत्ता कैसे पहुंचा जाय. जाने अचानक उनके दिमाग में क्या आया कि वे जहाज से उतर कर सीधे मद्रास से प्रकाशित अखबार ‘हिन्दू’ के दफ्तर में पहुंच गए. संपादक के पास पहुंच कर फर्राटे की अंग्रेजी में बोले, ‘मैं अभी-अभी बर्लिन से आ रहा हूँ और आपके उपयोग हेतु एक-दो लेख देने की इच्छा रखता हूँ. 

संपादक ने अपरिचित नौजवान को एक पल ठीक से देखा और पूछा, 'कहां है लेख? दीजिए.’

‘कृपया कागज़-कलम दें, मैं अभी तुरन्त लिख देता हूँ ’ – लोहिया जी ने कहा.

संपादक जी अवाक. कारण पूछा तो मालूम हुआ कि कलकत्ता जाने के लिए पैसे चाहिए. कागज़-कलम मिलते ही लोहिया जी वहीं बैठकर लिखने लगे, बिना किसी रुकावट के जैसे कि लेख लिखने के लिए वे पहले से ही तैयार बैठे हों. संपादक जी के लिए यह बिलकुल नया अनुभव था. 

कुछ ही देर में दो लेख लिखकर उन्होंने संपादक जी को दे दिए. दोनों लेख पढ़कर संपादक जी ने  लोहिया जी की विद्वता एवं प्रतिभा का प्रमाण पा लिया. संपादक जी ने तुरन्त पारिश्रमिक के रूप में उन्हें पच्चीस रूपये दिए और साथ ही शाम को अपने घर साथ खाने का निमंत्रण भी.
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# डॉ. राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि के अवसर पर 
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प्रेरक प्रसंग : इतिहास का अध्येता

                                                                                                 - मिलन सिन्हा 
राममनोहर लोहिया काशी के एक कॉलेज में इंटर की पढ़ाई  कर रहे थे. सभी विषयों में उन्हें इतिहास ही सबसे प्रिय था. अतएव अपने पाठ्यक्रम की इतिहास की पुस्तकों के अलावा जो भी इतिहास की पुस्तकें उनके हाथ लग जाती उन्हें वे जल्दी ही पढ़  जाते. इतिहास की पुस्तकों के इस व्यापक अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि उनकी दृष्टि समालोचक की हो गई. अब जहां भी  वे कोई तथ्यहीन बात पढ़ते तो तुरन्त उसे गलत साबित करने में जुट जाते.

उनके अपने पाठ्यक्रम में इतिहास की एक पुस्तक थी - 'ईसाई शक्ति का उदय'. इस किताब में एक स्थान पर कलकत्ते की एक काल कोठरी का वर्णन करते हुए भारतवासियों पर यह आरोप लगाया गया था कि उस काल कोठरी में एक सौ चालीस अंग्रेजों को एक साथ बंद कर उनकी हत्या की गयी थी. लोहिया जी को ये सब पढ़ते ही ऐसा लगा कि सारा वाकया तथ्य से परे है और इस तरह के प्रचार के पीछे भारत के लोगों को एन-केन-प्रकारेण बदनाम करने का उद्देश्य है. फिर क्या था, लोहिया जी ने इस मुद्दे को बहस के लिए सबके सामने रखा. बहस का लम्बा दौर चला और अंत में लोहिया जी ने यह साबित कर दिया कि उक्त पुस्तक में जिन एक सौ चालीस अंग्रेजों का जिक्र है, वे कभी इंग्लैंड से भारत आये ही नहीं. और तो और, जिस काल कोठरी का उस किताब में उल्लेख है उस कोठरी में किसी भी तरह एक सौ चालीस आदमी समा ही नहीं सकते. इतना ही नहीं, लोहिया जी ने उसी पुस्तक में छत्रपति शिवाजी को 'लुटेरा सरदार' लिखे जाने की बात को भी ठोस प्रमाणों द्वारा बेबुनियाद और झूठा साबित कर दिया.
                                                                                   (hellomilansinha@gmail.com)
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Sunday, October 1, 2017

यात्रा के रंग : गंगटोक और आसपास -5- अब शान्ति व्यू पॉइंट और ...

                                                                                          -मिलन सिन्हा
...गतांक से आगे... हल्का नाश्ता करने के बाद हम नीचे उतरने लगे तो राजू ने बताया कि इसी रास्ते में थोड़ी  दूर पर विख्यात ‘जवाहरलाल नेहरु बोटानिकल  गार्डन’ है. जल्द ही हम वहां पहुंच गए. यह गार्डन एक बड़े से परिसर में है, जिसका देखरेख सरकार का वन विभाग करता है. इस परिसर का माहौल खुशनुमा है. यहां आप अनेक प्रकार के आर्किड का आनंद ले सकते हैं. ओक सहित अन्य अनेक दुर्लभ प्रजाति के पेड़-पौधों के बीच वक्त कैसे गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. 

रोचक तथ्य ये भी कि इतना पैदल चलने पर भी आप ज्यादा नहीं थकते, कारण रोजमर्रा की भागदौड़ की जिंदगी से इतर आपको प्रकृति के साथ वक्त गुजरना अच्छा लगता है और आप ऑक्सीजन अर्थात प्राण-वायु से भरे भी तो रहते हैं. 

आगे हमारी गाड़ी “शान्ति व्यू पॉइंट” पर आ कर रुकी. इस स्थान से आप पूरे गंगटोक का एक बेहद खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं. पहाड़ों के विस्तारित श्रृंखला में पूरे गंगटोक शहर और उसके आसपास फैले छोटे-बड़े इलाके का ऐसा विहंगम दृश्य शायद शान्ति व्यू पॉइंट  से ही शान्ति और सकून से आप देख सकते हैं. सच कहें तो आप चाय की चुस्की लेते हुए घंटों यहाँ समय बिता सकते हैं. सो, हमने भी थोड़ा ज्यादा समय इस जगह के नाम किया, बेशक बीच-बीच में राजू की  दिलचस्प आपबीती सुनते हुए. 

सचमुच, यात्रा हमें बहुत कुछ दिखाती है, बहुत कुछ सिखाती-समझाती है. तभी तो कई बड़े लोगों ने अलग-अलग तरीके से  कहा है : दुनिया एक बड़ी किताब है और वे जो यात्रा नहीं करते सिर्फ कुछ पेज पढ़ कर ही रह जाते हैं.

शाम हो चली थी. सड़क के दोनों ओर फैले प्रकृति के विभिन्न रूपों को निहारते हुए हम आ गए थे गंगटोक की ह्रदय स्थली महात्मा गांधी रोड के पास. हमने राजू से विदा ली, उसे गले लगाया, शुक्रिया कहा. राजू ने भी थैंक्स कहा और मुस्कुराते हुए बढ़ गया, कल फिर किसी और सैलानी को गंगटोक घुमाने की इच्छा के साथ – एक अच्छे गाइड की तरह. जीते रहो राजू....असीम शुभकामनाएं.  ....आगे जारी...
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                     और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 
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Wednesday, September 6, 2017

यात्रा के रंग : गंगटोक और आसपास -4 - आज प्रसिद्ध 'रूमटेक मठ'

                                                                               -मिलन सिन्हा
...गतांक से आगे... आपको जानकर अच्छा लगेगा कि गंगटोक के आसपास कई प्राचीन धार्मिक मठ हैं, जो पर्यटकों एवं अनुयायियों के आकर्षण के केन्द्र रहे हैं . लेकिन किसी कारण से आप इन सभी मठों का दर्शन न भी कर सकें तो कम-से-कम प्रसिद्ध रूमटेक मठ जरुर जाएं, क्यों कि यह सिक्किम का सबसे बड़ा और चर्चित मठ है. यह भी एक कारण था कि हमारे दूसरे दिन के कार्यक्रम में रूमटेक मठ देखना शामिल था, साथ ही  उसके आसपास के दर्शनीय स्थानों को देखना भी. ड्राईवर और गाइड राजू समय पर आ गया था. सो, सुबह–सुबह ही हम गंगटोक शहर से करीब 25 किलोमीटर दूर अवस्थित इस मठ को देखने निकल पड़े. बताते चलें कि धर्मचक्र केन्द्र के रूप में विख्यात  रूमटेक मठ करीब 300 साल पुराना है और तिब्बती वास्तुकला की बेहतरीन मिसाल है. यह करमापा लामा का मुख्य कार्य स्थान रहा है. यह मठ समुद्र तल से 5800 फीट की ऊंचाई पर है. कहा जाता है कि यह मठ तिब्बत स्थित मूल तिब्बती बौद्ध मठ का प्रतिरूप है, जिसका पुनर्निर्माण  1960 के दशक में 16 वें करमापा द्वारा करवाया गया. 

पहाड़ी रास्ते से होते हुए हम करीब घंटे भर में रूमटेक मठ के मेन गेट के पास पहुंच गए. गाड़ी वहीं छोड़नी पड़ी. अन्दर जाने के लिए हम सबको अपना-अपना परिचय कार्ड दिखाना पड़ा, सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ा. पता चला कि सुरक्षा कारणों से यहाँ सुरक्षा कर्मी पूरे परिसर की चौबीसों घंटे कड़ी चौकसी करते हैं.  मेन गेट से थोड़ी चढ़ाई करते हुए और एक कतार में लगे प्रार्थना चक्रों ( प्रेयर व्हील्स ) को घुमाते हुए हम मठ के मुख्य द्वार पर पहुंच गए. वहां सुरक्षा कर्मी हर श्रद्धालु की जांच कर उन्हें मठ में प्रवेश की अनुमति दे रहे थे. अन्दर का माहौल भक्तिमय था और पूरा दृश्य अभिभूत कर रहा था. सुबह का समय होने के कारण हमें बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पूरे अनुष्ठानपूर्वक एवं परंपरागत तरीके से की जा रही प्रार्थना का गवाह बनने का सौभाग्य मिला. यह हमारे लिए एक अपूर्व अनुभव था. इस प्रार्थना में शामिल छोटे-बड़े करीब 30-35 भिक्षुओं  की तन्मयता और अनुशासन देखने लायक थी.  

प्रार्थना का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम परिसर के अन्य भागों को देखने चले. मठ के दाहिने हिस्से से हम पीछे की ओर गए जहाँ  ‘करमा श्री नालंदा इंस्टिट्यूट ऑफ़ हायर बुद्धिस्ट स्टडीज’ का खूबसूरत परिसर है. यह अनूठा शिक्षण संस्थान वाराणसी स्थित संस्कृत विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है और यहाँ युवा भिक्षुओं को बौद्ध दर्शन व इतिहास, तिब्बती साहित्य व कला के अलावे अंग्रेजी, हिन्दी, पाली, संस्कृत आदि भाषाओँ  की  शिक्षा दी जाती है. इस इंस्टिट्यूट में दुनिया भर से छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते हैं. अध्ययनरत सभी भिक्षु यहीं छात्रावास में रहते हैं.  इस परिसर के एक छोटे से हॉल में प्रसिद्ध स्वर्ण स्तूप भी है. कहा जाता है कि इसी स्थान पर 16 वें करमापा की पवित्र अस्थियां रक्खी गई हैं.  

परिसर में आते-जाते कई भिक्षुओं से हमें रोचक वार्तालाप का अवसर भी मिला. जानकारी मिली कि यहां से शिक्षित-प्रशिक्षित बौद्ध भिक्षु जीवनभर धार्मिक-सामाजिक-शैक्षणिक  कार्य में खुद को समर्पित कर देते हैं. सच मानिए, शहर के कोलाहल एवं प्रदूषण से परे पहाड़ पर बसे एवं मनोरम प्राकृतिक परिवेश में समर्पित धर्म गुरुओं एवं विद्वानों  से शिक्षित होना भिक्षुओं के लिए निश्चय ही सौभाग्य की बात है. 

लौटने के क्रम में हमने मठ के निकट कुछ श्रद्धालुओं को शान्ति के प्रतीक ‘कबूतर’ को दाना खिलाते देखा. सैकड़ों की संख्या में कबूतरों को बेख़ौफ़ कई श्रद्धालुओं के हाथ से दाना चुगते देखा, शायद पास खड़े सुरक्षा कर्मी के कारण वे भी आश्वस्त थे, आशंका मुक्त थे. सचमुच, यह दृश्य हमें मंत्र-मुग्ध कर गया. इसी हर्षातिरेक में हम प्रार्थना चक्रों को घुमाते हुए रूमटेक मठ के गेट से बाहर आ गए.  ...आगे जारी...
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Friday, September 1, 2017

यात्रा के रंग : गंगटोक और आसपास -3- अब बक्थांग वॉटरफॉल और ....

                                                                                          -मिलन सिन्हा
...गतांक से आगे... आप घूमने जाएं, वह भी घरवालों के साथ और फिर वहां कुछ खरीदारी न करें, यह नामुमकिन है. वह भी तब जब आप गंगटोक हस्तशिल्प एवं हैंडलूम प्रतिष्ठान  में आ गए हों. यहाँ हैंडलूम के महिला कारीगरों को पूरी तन्मयता से काम करते हुए एवं कलात्मक चीजों का निर्माण करते हुए देख सकते हैं. देखने पर ही पता चलता है कि यह सब कितनी मेहनत एवं एकाग्रता की मांग करता है. इसके दूसरे हिस्से में एक तरफ हस्तशिल्प प्रदर्शनी लगी है तो दूसरे तरफ चीजें बिक्री के लिए उपलब्ध हैं. मेक इन इंडिया का अच्छा उदहारण. कलाप्रेमी एवं मानव श्रम को महत्व देने वाले लोगों के लिए यहाँ कुछ समय गुजारना एक अच्छा अनुभव साबित होगा. 

यहाँ से बनझकरी जलप्रपात, ताशी व्यू पॉइंट, एंची मठ एवं  लिंग्दुम मठ  का भ्रमण करते हुए और बीच में मुसलाधार बारिश का लुफ्त उठाते हुए हम अब पहुंच गए हैं प्रसिद्ध बक्थांग वॉटरफॉल. यह खूबसूरत वॉटरफॉल वस्तुतः एकाधिक वाटर फॉल का एक समूह है. इस स्थान पर आप ‘रोप स्लाइडिंग’ का भी मजा ले सकते हैं. यहाँ सैलानियों की बहुत भीड़ होती है, कारण यह शहर के नजदीक है; मुख्य सड़क के बिलकुल पास अवस्थित है और बहुत आकर्षक भी है. सही है, पेड़ों से आच्छादित ऊँचे पहाड़ से एक साथ कई जल-प्रपात को नीचे आते देखना किसे विस्मत एवं मंत्र-मुग्ध नहीं करेगा. लिहाजा, यहाँ के प्राकृतिक दृश्यों को कैमरे में कैद करने में लोगों को मशगूल देखना बहुत ही स्वभाविक है. हाँ, कुछ राशि खर्च करके यहाँ आप सिक्किम के पारंपरिक लिबास में फोटो खिचवाने का आनंद उठा सकते हैं. बहरहाल, यहाँ से चलते वक्त स्वतः ही गुनगुना उठा मनोज कुमार एवं जया भादुड़ी अभिनीत चर्चित हिन्दी फिल्म ’शोर’ का वह कर्णप्रिय गाना – पानी रे पानी तेरा रंग कैसा....  

यहाँ से हम आगे बढ़े प्रसिद्ध नामग्याल इंस्टिट्यूट ऑफ़ तिब्ब्तोलाजी  की ओर. यह स्थान  देवराली टैक्सी स्टैंड जो कि राष्ट्रीय उच्च मार्ग-31ए पर अवस्थित है, के निकट है. तिब्बती सभ्यता व संस्कृति का प्रमाणिक परिचय प्राप्त करना हो तो यहाँ आना सार्थक होगा. अपने स्थापना वर्ष 1958 से यह संस्था लगातार तिब्बत के लोगों के धर्म, भाषा, कला, इतिहास आदि से संबंधित अध्ययन तथा शोध-अनुसंधान में जुटा है. इसके पुस्तकालय एवं म्यूजियम  में तिब्बती जन-जीवन से जुड़ी तमाम कलाकृतियों और पुस्तकों-पांडुलिपियों का विराट संग्रह है. शायद यही कारण है कि बड़ी संख्या में शोधार्थी, विद्यार्थी एवं पर्यटक इस संस्थान में आते रहते हैं. 

सुबह से शाम तक के इस लोकल टूर का एक  दिलचस्प पहलू यह रहा कि हमें राजू नामक एक खुश-मिजाज ड्राईवर –सह-गाइड मिला, अन्यथा इन महत्वपूर्ण दस पॉइंट का भ्रमण शायद ही यादगार बन पाता. दरअसल, राजू एक पढ़ा-लिखा नौजवान है जिसकी रूचि हर सम-सामयिक विषयों में है. राजनीति से लेकर फिल्म तक उसकी एक समझ है जिसे व्यक्त  करने में उसे कोई झिझक नहीं, जैसा कि हम सामान्यतः अनेक संभ्रांत लोगों में पाते हैं. लिहाजा, जब राजू ने पूर्व मुख्यमंत्री की चर्चा की तो उसके साथ उनके समय की अच्छी-बुरी दोनों बातों का जिक्र किया, आम सिक्किमवासी  के आशा-आकंक्षा के बारे में बताया. गंगटोक में बेरोजगारी की स्थिति पर जब मैंने उसके विचार जानने चाहे तो बेशक राजू थोड़ा गुस्से में आ गया. उसने शिक्षित बेरोजगारों की बात की और कहा कि उनके लिए स्व-रोजगार के अलावे रोजगार के विकल्प बहुत ही सीमित हैं. स्व-रोजगार भी पर्यटन से जुड़ा है, लेकिन पर्यटन को एक उद्योग के रूप में विकसित करने में सरकार अबतक सफल नहीं हो पाई है. पर्वतीय पर्यटन का एक अलग  मिजाज होता है और एक सीमित अवधि. मसलन, गंगटोक में जाड़े के मौसम में पर्यटन से जुड़े सारे व्यवसाय बिलकुल सुस्त पड़ जाते हैं. नतीजतन, इन पर निर्भर एक बड़ी आबादी ठण्ड और बेरोजगारी के दोहरे मार को झेलने को मजबूर हो जाती है. एक और बात. यहाँ के युवा  सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों में जाना चाहते  हैं, लेकिन वहां भी अनजाने कारणों से कुछ ही लोगों की बहाली हो पाती है. बड़े व्यवसाय में गैर-सिक्कमी लोगों, खासकर राजस्थानी, बंगाली एवं बिहारी लोगों के निरंतर बढ़ते वर्चस्व के प्रति भी उसने अपना रोष नहीं छिपाया. राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढ़ाने में इन बाहरी लोगों की भूमिका को भी राजू ने रेखांकित किया. 

सूर्यास्त हो गया था. हम अपने होटल लौट आए. राजू से हाथ मिलाया, उसे थैंक्स कहा और उससे अगले दिन सुबह समय पर पहुंचने का आग्रह किया. वह हंसा और ओके कहकर बढ़ गया अपनी गाड़ी के साथ. ...आगे जारी...
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Wednesday, August 30, 2017

यात्रा के रंग : गंगटोक और आसपास -2 - अब हनुमान टोक और ...

                                                                              -मिलन सिन्हा
...गतांक से आगे... गाड़ी बढ़ चली अब अगले पॉइंट- हनुमान टोक यानी हनुमान मंदिर की ओर. गंगटोक शहर से करीब 10 किलोमीटर की दूरी एवं  समुद्र तल से करीब 7200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है यह खूबसूरत मंदिर. पार्किंग स्थल से मंदिर तक जाने के लिए सीढियां बनी है, जिसमें बीच-बीच में बैठने-सुस्ताने की व्यवस्था है. मंदिर के रास्ते में लगातार घंटियां लगी हैं, जिन्हें बजाते जाने पर ध्वनि की अदभुत गूंज-अनुगूंज से आप अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते. सारा परिसर इतना साफ़-सुथरा एवं सुरुचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित है कि आप स्वतः पूछ बैठेंगे कि ऐसा रख-रखाव तो सेना के देखरेख में ही संभव है. बिलकुल ठीक सोचा है आपने. 

वर्ष 1968 से भारतीय सेना के माउंटेन डिवीज़न के जवान इस हनुमान मंदिर का रख-रखाव करते रहे हैं. इस स्थान से कंचनजंघा पर्वतमाला के अप्रतिम सौन्दर्य का आप आनन्द उठा सकते हैं. कहने की जरुरत नहीँ कि यहाँ आने पर आपको थोड़ा और रुकने का मन जरुर करेगा. लेकिन आगे और भी तो बहुत कुछ देखना है और घड़ी कहाँ तक आपको रुकने देगी. हाँ, एक और जानने योग्य बात. वर्षों से प्रचलित लोकमत के अनुसार राम-रावण युद्ध के दौरान आहत पड़े लक्ष्मण के लिए हिमालय से संजीवनी बुटी ले जाने के क्रम में हनुमान जी कुछ देर  के लिए इस स्थान पर रुके थे. 

पेड़ों से भरे पहाड़ी रास्ते से होकर अब हम हनुमान टोक से करीब 1200 फीट नीचे गणेश टोक के पास आ गए हैं. घुमावदार सीढ़ियों से चढ़ कर इस मंदिर तक पहुँचते हुए आप प्रकृति के विविध रूपों का गवाह बनेंगे, साथ ही मौका मिलेगा गंगटोक शहर के एक  कुछ हिस्सों के विहंगम दृश्य से रूबरू होने का. इस गणेश मंदिर के पार्किंग स्थल के बिलकुल पास में आपको खाने-पीने की सामग्री मिल जायेगी और हस्तशिल्प की कुछ खूबसूरत वस्तुएं भी. कई सीनियर सिटीजन जो शारीरिक कारण से ऊपर मंदिर  तक नहीं जा पाते हैं, नीचे पार्किंग स्थल से भगवान गणेश को प्रणाम कर लेते हैं और ईश्वर का आशीर्वाद  पाने की अनुभूति से खुश हो जाते हैं. चाय-पानी और अन्य खरीदारी बाद में करते रहते हैं. ...आगे जारी...
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Monday, August 28, 2017

यात्रा के रंग : गंगटोक और आसपास -1

                                                                                                         -मिलन सिन्हा
...गतांक से आगे... ऐसे, आप गंगटोक तक आएं और उसके आसपास के दर्शनीय स्थानों को देखे बिना लौट जाएं, यह मुनासिब नहीं. वह भी तब जब कि इस शहर के आसपास के पर्यटक स्थलों को देखने के लिए आप अपने समय एवं बजट के हिसाब से पांच, सात या दस पॉइंट्स में से कोई भी ‘पैकज टूर’ चुन सकते हैं.  इसमें पर्यटन सूचना केन्द्र एवं महात्मा गाँधी मार्ग  स्थित एकाधिक ट्रेवल एजेंसी आपके लिए मददगार साबित होंगे. सच कहें तो हमने इन्ही सूत्रों से पूछताछ करके पिछले दिन ही आज के घूमने के कुल दस स्थानों को तय कर लिया था. इसके बाद इन स्थानों पर जाने के लिए हमने एक छोटी गाड़ी भी दिनभर के लिए बुक कर ली. गाड़ी पहले बुक करना अच्छा रहता है, क्यों कि टूरिस्ट सीजन में कई बार आपको गाड़ी न मिलने के कारण अपना प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ जाता है. 

सुबह गाड़ी समय पर आ गयी. ड्राईवर ने मोबाइल पर सूचित किया. होटल से हम निकले तो बाहर झमाझम बारिश हो रही थी. पहाड़ों पर कब घटायें घिर आयें, बारिश होने लगे और कब अचानक धूप खिल उठे, अनुमान लगाना कठिन होता है, खासकर बाहर से आये लोगों के लिए. बहरहाल, कुछ मिनटों के बाद बारिश थमते ही हम चल पड़े गंगटोक शहर के आसपास स्थित दर्शनीय जगहों का आनंद उठाने. 

पहाड़ी जगह होने के कारण बारिश का पानी सड़क पर जमा होने की गुंजाइश कम थी. पुलिस मुख्यालय से पहले ही ड्राईवर ने एक ढलानवाली सड़क पर गाड़ी को मोड़ दिया. यह सड़क कम चौड़ी थी, फिर भी दोनों ओर से वाहनों का आना –जाना लगा था. अगल-बगल होटल एवं गेस्ट हाउस होने के कारण गाड़ियां सुस्त गति से चल रही थी. कुछ दूर आगे जाकर हमारी गाड़ी अचानक रुक गयी. सामने और भी गाड़ियां खड़ी थी. तभी ड्राईवर ने थोड़ी दूर पर सड़क के किनारे खड़े एक सज्जन को दिखा कर कहा, ‘सर देखिए, ये हैं सिक्किम के पूर्व चीफ मिनिस्टर श्री नरबहादुर भण्डारी ’. कोट-पेंट-टाई पहने भण्डारी साहब एक आम शहरी के तरह खड़े थे और किसी को इशारे से बुला रहे थे. कोई तामझाम नहीं, कोई दिखावा नहीं, आसपास कोई सुरक्षा कर्मी भी नहीं. जब तक मै गाड़ी से निकलता और उनसे मिलकर कुछ बातें कर पाता, गाड़ी चल पड़ी. गाड़ी रोक कर बात करना संभव नहीं था, कारण पीछे भी गाड़ियां कतार से चल रही थीं. हां, गाड़ी तो चल रही थी, पर मैं मानसिक रूप से रुका हुआ था भण्डारी साहब के आसपास. बता दें कि नर बहादुर भण्डारी ने 1977 में सिक्किम जनता परिषद् का गठन किया और उसके संस्थापक के रूप में 1979 में चुनाव लड़ा. वे अक्टूबर 1979 से जून 1994 के बीच तीन बार सिक्किम के मुख्य मंत्री रहे और सिक्किम के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय भी, बेशक उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे. बहरहाल, चलती गाड़ी और चलती घड़ी ने हमें फ्लावर शो सेंटर  पहुंचा दिया. 

एक छोटे से स्थान में संचालित इस सेंटर में अनेक तरह के फूल खूबसूरत तरीके से प्रदर्शित किये गए हैं. रंग –बिरंगे फूलों के साथ अपने प्रियजनों का फोटो खींचने और फोटो खींचवाने में पर्यटकों की बड़ी भीड़ व्यस्त थी. दिन चढ़ते ही सैलानियों से भरी बसें आने लगी एवं यहाँ भीड़ बढ़ने लगी. 

बाहर निकला तो देखा खीरा बिक रहा है. पिताजी की बात याद आ गयी. वे कहा करते  थे कि सेहत के लिए सुबह का खीरा हीरा, रात का खीरा पीड़ा. बस, दो खीरा खरीदा और खाते-खिलाते हुए गाड़ी में बैठ गए. गाड़ी चली तो ड्राईवर ने बताया  कि वो सामने वर्तमान मुख्य मंत्री श्री पवन कुमार चामलिंग  का सरकारी आवास है. श्री चामलिंग पिछले 23 वर्षों से सिक्किम के मुख्यमंत्री हैं.  अगर गाड़ी के चालक ने न बताया होता तो देख कर अनुमान लगाना मुश्किल था कि यह प्रदेश के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति का निवासस्थान है. कारण, न कोई आडम्बर, न बेरिकेडिंग  और न ही पुलिसिया तामझाम. आवागमन बिलकुल सामान्य. .... ....आगे जारी...                                                                                   (hellomilansinha@gmail.com)
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