- मिलन सिन्हा
पिछले दो-तीन दिनों से रांची में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई थी. कारण, बहुचर्चित चारा घोटाले के एक मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव एवं जगन्नाथ मिश्र सहित कुल 22 अभियुक्तों को सीबीआई कोर्ट के फैसले का इन्तजार था. किन्तु -परन्तु और ऐसा फैसला होगा तो वैसा होगा जैसे अनुमान- अपेक्षा पर गर्मागर्म बहस जारी था.
अमूमन ऐसी राजनीतिक चर्चाओं में लोग दलगत एवं व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से चालित होते पाए जाते हैं. ऐसे में, उसमें तर्क, तथ्य और तारतम्य का अभाव स्वभाविक होता है. तथापि ऐसे तर्क-वितर्क में लोग समय न बिताएं, ऐसा राजनीतिक रूप से अति जागरूक हमारे समाज में कहाँ मुमकिन है ?
अमूमन ऐसी राजनीतिक चर्चाओं में लोग दलगत एवं व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से चालित होते पाए जाते हैं. ऐसे में, उसमें तर्क, तथ्य और तारतम्य का अभाव स्वभाविक होता है. तथापि ऐसे तर्क-वितर्क में लोग समय न बिताएं, ऐसा राजनीतिक रूप से अति जागरूक हमारे समाज में कहाँ मुमकिन है ?
ऐसे आजकल जहाँ भी 10-20 स्कार्पियो -बोलेरो- फार्चुनर गाड़ियां सड़क पर मनचाहे तरीके से खड़ी दिखे, तो समझने में कोई दिक्कत नहीं होती कि पॉलिटिकल लोग आसपास किसी कार्यक्रम के निमित्त जमा हुए हैं. ऊपर से अगर पुलिस बंदोबस्त भी हो तो पॉलिटिकल वीआईपी के शामिल होने का संदेश स्वतः मिल जाता है.
खैर, एक संगोष्ठी में कल सुबह मुझे भी शामिल होना था. उसी सिलसिले में सुबह करीब 10.40 बजे जब रांची रेलवे स्टेशन के पास अवस्थित आयोजन स्थल 'होटल बीएनआर चाणक्य' के निकट पहुंचा तो पुलिसवाले ने गाड़ी रोक दी. कारण यह था कि लालू जी उक्त होटल के पास ही रेलवे के गेस्ट हाउस में ठहरे हुए थे और उस समय अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ सीबीआई कोर्ट के लिए निकल रहे थे. दर्जनों बड़ी-बड़ी गाड़ियां और हजारों की संख्या में वहां मौजूद राजनीतिक लोगों को सम्हालने में अनेक पुलिस अधिकारी और जवान लगे हुए थे. फिर भी, जबतक उनके साथ चल रहे पचासों गाड़ियों का काफिला नहीं निकल गया, हमारी गाड़ी सहित अनेक गाड़ियां रुकी रही - करीब 20 मिनट तक. बहरहाल, इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि रांची की सड़कों पर सामन्यतः रोज जाम का दंश झेलने को अभिशप्त आम शहरी को कल रांची रेलवे स्टेशन से सीबीआई कोर्ट तक उनके (लालू जी) काफिले के गुजरने के क्रम में क्या कुछ झेलना पड़ा होगा. कोर्ट परिसर में क्या-क्या हुआ और किसके पक्ष या विपक्ष में फैसला आया, इसका व्यापक विवरण तो टीवी चैनलों और आज के अखबार के रिपोर्ट से सबको मालूम हो चुका है, लिहाजा उस पर और कुछ कहने की यहाँ कोई जरुरत नहीं.
बस चलते-चलते कुछ मासूम एवं स्वभाविक सवाल :
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
बस चलते-चलते कुछ मासूम एवं स्वभाविक सवाल :
- राजनीतिक नेताओं के खिलाफ चलने वाले सभी क्रिमनल केसों के स्पीडी ट्रायल की औपचारिक कानूनी व्यवस्था क्यों नहीं की जाती, जब कि इसके एकाधिक फायदे हैं - समाज और सरकार के साथ-साथ आरोपी नेताओं के लिए भी ?
- रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड जैसे ज्यादा भीड़-भाड़ वाले स्थानों के बिल्कुल निकट नेताओं के ठहरने और उनके हजारों समर्थकों के जमा होने से जुड़े जोखिम और संभावित उपद्रव को कम करके आंकना क्या उचित है?
- आम जनता, बड़े नेता और उनके समर्थकों के लिए क्या यह बेहतर नहीं होता कि लालू जी जैसे नेता को कोर्ट के नजदीक किसी स्थान पर ठहराया जाता या उनसे किसी ऐसे स्थान पर ठहरने का आग्रह प्रशासन द्वारा किया जाता ?
- क्या किसी भी नेता- राजनीतिक या धार्मिक, के पक्ष में कथित समर्थकों की असीमित भीड़ को किसी भी शहर की रोजमर्रा की जिंदगी को दुष्प्रभावित करने की छूट प्रशासन को देनी चाहिए, खासकर ऐसे ही एक प्रकरण में हाल ही में चंडीगढ़-पंचकुला में हुए व्यापक उपद्रव-तोड़फोड़ के मद्देनजर ?
- क्या ऐसे अवसरों पर स्थानीय पुलिस प्रशासन को अपने सबसे अच्छे कर्मियों को भीड़ प्रबंधन एवं कानून - व्यवस्था सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी नहीं देनी चाहिए, जिससे वे बिना भय और पक्षपात के निष्पक्ष होकर कानून सम्मत कार्य कर सकें ?
- क्या मीडिया के लिए, खासकर ऐसे मामलों में स्व-निर्धारित मानदंड के तहत संतुलित एवं तथ्यपरक समाचार संप्रेषित करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए ?
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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