- मिलन सिन्हा
कहते हैं न, आदत बुरी बला। बीस - तीस साल तक नौकरी में रहते हुए हम एक आदत विशेष के शिकार हो जाते हैं। फिर एक दिन उस आदत के दायरे से बिलकुल बाहर निकल कर एक सामान्य आदमी की तरह जीना बहुत कठिन लगता है, और वो भी तब जब वह कोई सरकारी या अन्य उच्च पद पर आसीन व्यक्ति रहा हो। लगता है सब शान -सुविधाएं छिन गई, अपनी अब कोई पहचान नहीं रही। उस परिस्थिति में यह प्रतीत होना स्वभाविक है कि विपत्ति अकेली नहीं आती, जैसे घर -बाहर सबकी समस्याएं, एक साथ सामने आ खड़ी हो गई ।
बुद्धिमान लोगों का मत है कि आर्ट ऑफ लिविंग का ही एक महत्पूर्ण अध्य़ाय है 'आर्ट ऑफ रिटायरिंग'। सो, रिटायरमेंट को प्लान करना अनिवार्य है जिससे भविष्य में होनेवाले बदलावों को सहज अंगीकार किया जा सके। दरअसल, रिटायरमेंट के उस संक्रांति पल को और उसके बाद शुरू होनेवाली जिंदगी को बिल्कुल नए ढंग से जीना अपने -आप में चुनौतीपूर्ण तो है, लेकिन है एक कला - कहीं ज्यादा रोमांचक और मजेदार। कारण, नौकरी के सारे बंधनों से मुक्त, अपने ज्ञान तथा अनुभव के बल पर - स्वयं एवं समाज दोनों के हित में कुछ नया व ज्यादा सार्थक करने के लिए अब खुद को समर्पित कर सकते हैं। हां, जरुरत है तो सिर्फ पारम्परिक सोच के दायरे से बाहर निकल कर सोचने और क्रियाशील होने की।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते। असीम शुभकामनाएं।
# 'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित
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