Friday, May 15, 2020

सप्तरंग: कभी कमजोर न हो मनोबल

                                    - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, वेलनेस कंसलटेंट ... ...
इस समय पूरा विश्व एक वैश्विक महामारी के मुश्किल दौर से गुजर रहा है. यह अभूतपूर्व स्थिति है. विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित हर देश की सरकार इससे मुकाबला करने और अपने लोगों को इस महामारी से सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे हैं. विश्व इतिहास गवाह है कि किसी भी विपदा के समय हर व्यक्ति, परिवार और समाज सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाए तो उससे पार पाना आसान हो जाता है और देश-समाज  में सामान्य स्थिति जल्द लौट आती है. ऐसे देखा जाए तो हर व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के लिए हर वक्त एक जैसा नहीं होता. परिवर्तनशील दुनिया में उतार-चढ़ाव से होकर गुजरना हमारी नियति है. लेकिन कहते हैं कि नीयत ठीक हो तो नियति भी ठीक-ठाक होती है और अगर "सर्वे भवन्तु सुखिनः और सर्वे सन्तु निरामया" से प्रेरित नीति का समावेश हो जाय तो अनेक समस्याएं स्वतः सुलझ जाती हैं.

दरअसल, सर्वे भवन्तु सुखिनः और सर्वे सन्तु निरामया की भावना स्वयं से यानी अपने अंदर से उत्पन्न होकर सबके कल्याण की कामना और उस कामना के फलीभूत होने के लिए किए जानेवाले कर्म से जुड़ा है. एक इकाई के रूप में अगर हम तन-मन से स्वस्थ और आनंदित रह पाते हैं, स्थिति-परिस्थिति अनुकूल या प्रतिकूल जैसी भी हो, तभी हम मम से आगे ममेतर के कल्याण के लायक बन पाते हैं और तभी कुछ सार्थक कर भी पाते हैं. प्रख्यात उद्द्योगपति और समाजसेवी जे.आर.डी टाटा का यह विचार काबिले गौर है कि जब आप कोई काम करें तो इस जिम्मेदारी से करें कि सब कुछ आप पर निर्भर है और जब भी आप भगवान की प्रार्थना करें तब यह सोचें कि सब कुछ उनपर निर्भर है. कहने का अभिप्राय यह कि हम अपना काम पूरी निष्ठा और तन्मयता से  करें और ईश्वर की कार्ययोजना पर हमेशा विश्वास बनाए रखें. अर्थात आत्मा और परमात्मा के बीच अदृश्य लेकिन प्रगाढ़ और शाश्वत  रिश्ते को जानकार और मानकर कर्मपथ पर ख़ुशी-ख़ुशी आगे बढ़ते रहें. सब ठीक होगा. आइए, इस अदभुत रिश्ते को एक बोध कथा  के माध्यम से समझते हैं. 

एक गांव में एक छोटा मंदिर था. मंदिर में एक व्यक्ति रहता था जो पूजा-अर्चना के साथ-साथ  मंदिर की सफाई आदि सब काम खुद ही करता था. लोगों की भलाई के लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते. भगवान पर उनकी अटूट आस्था थी. उनके विचार, रहन-सहन और व्यवहार से उस गांव और आसपास के अनेक गांवों के लोग बहुत प्रभावित थे और उनका बहुत सम्मान करते थे. सब लोग उन्हें संत जी कहकर ही बुलाते थे. एक दिन वे एक सत्संग के सिलसिले में बगल के गांव में अकेले ही जा रहे थे. अचानक उन्होंने यह गौर किया कि गांव के उस कच्चे रास्ते पर पैरों के चार निशान हैं जब कि उनके दो पैरों के निशान ही रहने चाहिए. उन्हें पहले तो विश्वास नहीं हुआ, पर दुबारा देखने पर अचरज हुआ कि वाकई दो के स्थान पर चार पदचिन्ह हैं. मन में सवाल उठा कि आखिर मेरे साथ दो पदचिन्ह किसके हैं. सोच-विचार चलता रहा. सत्संग के समापन पर वे अपने गांव लौट आए. आने-जाने के इस क्रम में उनके साथ दो और पदचिन्ह मार्ग में अंकित होते रहे. शाम की प्रार्थना में संत जी ने अपने इष्ट देव  के सामने यह जिज्ञासा व्यक्त की. भगवान ने उनकी जिज्ञासा का निवारण करते हुए कहा, "तुम मेरे सच्चे भक्त हो जो अच्छे कर्म में सदा संलिप्त रहता है और साथ ही दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित भाव से यथासाध्य लगा रहता है. मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और इसी कारण बराबर तुम्हारे साथ रहता हूँ. तुम्हें जो दो अतिरिक्त पदचिन्ह दिखाई पड़े वे मेरे थे." अपने इष्ट देव के स्नेहवचन से संत जी  धन्य हो गए. भक्त और भगवान के बीच यह अदभुत सिलसिला कुछ दिनों तक इसी तरह चलता रहा. संत जी को निर्मल आनंद की अनुभूति  हो रही थी. समय ने करवट बदली और संत जी के जीवन में कुछ समस्या आई. संत जी  ने सोचा शायद उनके किसी बुरे कर्म का फल अब मिल रहा हो. कई बार हमें पता नहीं होता कि जो कुछ हम रोजाना कर रहे हैं उनमे से कितने का कौन-सा फल अभी आना बाकी है. बहरहाल, संत जी ने संयम और आस्था को कमजोर नहीं होने दिया. भगवान के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण पूर्ववत बनी हुई थी. लेकिन आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस दौरान  संत जी  को कहीं भी आते-जाते अब सिर्फ दो ही पैरों के निशान दिख रहे थे. एक क्षण के लिए वे विचलित हुए और सोचने लगे कि इस मुश्किल  वक्त में क्या भगवान ने भी उनका साथ छोड़ दिया. मन में तुरत विचार आया कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता. शाम की प्रार्थना में संत जी ने  भगवान से पूछ ही लिया,  "हे  देव, मैं मुश्किल वक्त से गुजर रहा हूँ. मेरे प्रियजन मुझसे मुंह मोड़ रहे हैं. क्या अब आपने भी मेरे साथ चलना छोड़ दिया? आपके पदचिन्ह मुझे क्यों नहीं दिखाई पड़ रहे हैं? भगवान ने संत जी से कहा, "नहीं, ऐसा नहीं है. मैं अपने सच्चे भक्तों को कभी नहीं छोड़ता. उनसे कभी दूर नहीं रहता. इस समय तुम्हे जो दो पदचिन्ह दिखाई पड़ते हैं, वे मेरे पदचिन्ह हैं, तुम्हारे नहीं, क्यों कि इस संकट की घड़ी में मैं तुम्हें अपने बाहों में उठा कर चल रहा हूँ. तुम्हें इस संकट से बचाकर ले जा रहा हूँ." भगवान की बातें सुनकर संत जी नतमस्तक होकर ख़ुशी से रोने लगे.

सार-संक्षेप-सीख यह है कि अपनी जीवन यात्रा में किसी भी स्थिति-परिस्थिति में अपना मनोबल कभी कमजोर मत होने दें. किसी भी समस्या से घबराए नहीं. बस सकारात्मक सोच के साथ यथाशक्ति और यथाबुद्धि सही काम को सही समय पर सही तरीके से करने की कोशिश करते रहें. समाधान-सफलता साथ चलते रहेंगे. हां, आप अपने आसपास के गरीबों और बेसहारा लोगों की जितनी मदद कर सकते हैं, जरुर करें. निर्मल आनंद की अनुभूति होगी. ज्ञानीजन कहते हैं कि जो व्यक्ति सहर्ष दूसरों का कल्याण  करता है और इस कार्य हेतु समाज के अन्य लोगों को प्रेरित भी करता है, उसे भगवान खुद मदद करने को तत्पर रहते हैं, बेशक अपने नायाब तरीके से. अपने आसपास नजर दौड़ाएंगे तो इस बात के कई प्रमाण मिल जायेंगे.  
 (hellomilansinha@gmail.com)

     
                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 

# लोकप्रिय अखबार "दैनिक जागरण" के सभी संस्करणों में 14.04.2020 को प्रकाशित
#For Motivational Articles in English, pl. visit my site : www.milanksinha.com  

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