Saturday, June 4, 2016

मोटिवेशन : सिर्फ सोचें नहीं, करें भी

                                                            -मिलन  सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर...

सोचना एक मानवीय गुण है, लेकिन सोच में पड़े रहना – इसे क्या कहेंगे ? प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में जुटे कई प्रतिभागियों से पर्सनल काउंसलिंग के दौरान यह बात उभर कर आती रही है. ऐसे देखने पर हमारे–आपके आसपास भी कई लोग अनायास ही मिल जायेंगे जिन्हें आप हमेशा  सोचने की मुद्रा में पायेंगे. ऐसे लोगों के पास कारण –अकारण सोचने के असंख्य विषय होते हैं – आईपीएल से लेकर शराब बंदी तक; शौचालय से लेकर देश की परमाणु नीति तक. घर से लेकर ऑफिस तक वे गंभीरतापूर्वक इस कार्य में मशरूफ पाए जाते हैं. सर्वदा  सोच की मुद्रा में दिखने के कारण कई लोग तो उन्हें चिंतक-विचारक तक समझने लगते हैं,  जब कि उनके  करीबी लोग  जानते हैं कि वे किसी एक विषय पर घंटों सोचने के बाद भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाते, कोई निर्णय नहीं ले पाते. और चूँकि ऐसे लोग कोई निष्कर्ष या निर्णय पर नहीं पहुंच पाते, तो उन विषयों पर आगे उनके कुछ करने  की बात ही नहीं उठती. कहने का सीधा अभिप्राय यह कि ऐसे श्रेणी के लोग सोचते बहुत हैं, पर करते बहुत कम हैं. लिहाजा घर में उनके अभिभावक और ऑफिस में उनके वरीय अधिकारी उन्हें अक्षम एवं बेकार  की संज्ञा देते हैं और गाहे –बगाहे खरी –खोटी सुनाते रहते हैं. दुर्भाग्यवश,  इससे  वे और भी सोच में पड़ जाते हैं.

बहरहाल, आप सबने भी कई मंत्रियों को सरकारी  अधिकारियों से यह कहते सुना होगा कि सोचिये, सोचिये, जरा बढ़िया से सोचिये, तब तक हम भी बाहर जाकर (अमूमन देश से बाहर) सोचते हैं. इस सोचने में कई हफ़्तों का समय यूँ  ही चला जाता है, पर होता नहीं कुछ.  कोई अगर पूछ ही बैठे तो बड़े गर्व से कहते हैं कि देखिए न कितना सोच रहे हैं; सरकार और जनता का मामला है, आखिर सोचना तो पड़ेगा न ? आम तौर पर यह भी देखा जाता है कि जब  हमारे नेतागण जनता की समस्याओं से रूबरू होते हैं, तो यह कह कर निकलने की कोशिश करते हैं कि अच्छा इस विषय पर सोचेंगे. शायद वे बहुत सोचते भी हों, पर  जनता को समाधान नहीं मिलता.

सोच में पड़े रहने और काम न करने की इस बीमारी से करोड़ों व्यक्ति, हजारों संस्थायें एवं  सरकार के अनेक अंग बुरी तरह प्रभावित हैं. सरकारी दफ्तरों में फाइलों का अम्बार इसका एक ज्वलंत कारण और उदहारण है. इससे घर -बाहर नकारात्मकता बढ़ती है और उत्पादकता घटती है.

ऐसे सोचना कोई बुरी बात नहीं है, अपितु किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले उसके विषय में सोचना तो अच्छी बात है. यूँ कहें कि सोचना  किसी कार्य को ठीक से संपन्न करने के लिए एक जरुरी प्रक्रिया  है. लेकिन अनिवार्य व वांछनीय यह है कि सोचने, निर्णय लेने और उसे कार्यान्वित करने में एक परिभाषित संबंध व सामंजस्य हो. विश्व इतिहास के महान विजेताओं में से एक एवं फ्रांस के महान सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट जो ‘असंभव’ शब्द को अपने शब्दकोष का हिस्सा नहीं मानते थे, ने इसी सिद्धांत  को व्यवहार में उतारा और कई उल्लेखनीय कार्य किये. इतिहास के पन्ने महान व्यक्तियों के ऐसे नजीरों से भरे पड़े हैं. देखिए, इस विषय पर प्रसिद्ध मार्शल आर्ट कलाकार एवं फ़िल्म अभिनेता ब्रूस ली क्या कहते हैं : ‘अगर आप किसी चीज के बारे में सोचने में बहुत अधिक वक्त लगाते हैं, तो फिर आप उस काम को कभी नहीं कर पायेंगे.’ 

तो क्यों न हम सब भी  सोचने और करने के बीच बेहतर तारतम्य बिठाकर उसे अपने जीवन में उतारने की हरसंभव कोशिश करें, जिससे हम अपने लक्ष्यों को अपेक्षाकृत आसानी से हासिल कर सकें; पूरी जीवंतता के साथ अपनी जीवन यात्रा में अग्रसर होते रहें.                                                                                                                                                                                         (hellomilansinha@gmail.com)

               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

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