Wednesday, June 1, 2016

लघु कथा : प्रहरी

                                                      -मिलन सिन्हा 
काम रुक गया था. पांचों मिस्त्री ठेकेदार के पास ही खड़े थे. कालू मिस्त्री  ठेकेदार से बोल रहा था, ‘गांव तो हम लोगों को परसों जाना ही है. हमारे भविष्य का सवाल है ....हम लोगों ने तो आपको पहले भी कहा था.’ अन्य मिस्त्री कालू के समर्थन में अपनी –अपनी गर्दन हिला रहे थे.

ठेकेदार ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘देखो, यह काम जब तक पूरा नहीं होता, तब तक तुमलोगों को कैसे जाने दें ? आखिर अगले एक महीने में इतना बड़ा काम पूरा भी तो करना है ? तुम लोग इस तरह चले जाओगे तो.... फिर इस मालिक को क्या जवाब देंगे ?’

‘हमलोगों को तीन दिनों के लिए जाने दीजिये. हमलोग नहीं जायेंगे  तो बहुत अनिष्ट हो जायेगा. ठेकेदार जी, आप सब जानते हैं, फिर भी हमें क्यों रोकना चाहते हैं ? हम तो कहते हैं कि आप भी हमारे साथ चलिये. अपने बीवी–बच्चों से मिल भी आयेंगे और वह काम भी हो जायेगा’ – कालू ने विनती की.

‘कालू, तुम इतने समझदार हो फिर भी मेरी कठिनाई नहीं समझते हो. तुम तो इस मालिक को अच्छी तरह जानते हो. समय पर अगर काम नहीं होगा तो मुझे बहुत नुकसान हो जायेगा. यह मालिक आगे हमें फिर कोई काम का ठेका नहीं देगा.’- ठेकेदार ने कालू को अपनी विवशता समझाने के उद्देश्य से कहा.

कालू एवं उसके अन्य साथियों की अपनी विवशता थी तो ठेकेदार की अपनी. दोनों पक्ष एक दूसरे को समझाने के लिए अलग–अलग तर्क दे रहे थे. काम रुका हुआ था. असहमति कायम थी. इसी समय मालिक जगत जी अचानक वहां आ पहुंचे. कालू पुनः ठेकेदार से रोष भरे स्वर में कुछ कह रहा था. सारे मिस्त्री एवं ठेकेदार को एक स्थान पर बहस करते देख पहले तो वे नाराज हुए, फिर ठेकेदार की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा. ठेकेदार ने पहले तो बात को टालना चाहा, परन्तु जगत जी द्वारा दुबारा पूछने पर कहा, ‘ये सारे मिस्त्री परसों अपने –अपने गांव जाना चाहते हैं तीन दिनों के लिए. और मैं इन्हें समझा रहा हूँ कि इस वक्त काम अधूरा छोड़कर घर न जायें.’

‘आखिर ये लोग इसी समय घर क्यों जाना चाहते हैं ‘ – जगत जी ने प्रश्न किया.

‘ इनके गांव में दो दिन बाद पंचायत चुनाव है. ये सभी उसी चुनाव में अपने –अपने गांव जाकर अपना वोट डालना चाहते हैं’ – ठेकेदार ने सहमते हुए उत्तर दिया.

मालिक ने पहले तो सारे मिस्त्री को एक बार गौर से देखा, विशेषकर कालू को और फिर ठेकेदार की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘भाई, इन्हें इनके गांव जरुर जाने दो. मेरा काम तीन दिन विलम्ब से ही ख़त्म होगा, तब भी ठीक है, लेकिन इन्हें मत रोको. ठेकेदार, तुम जानते हो, लोकतंत्र के असली प्रहरी ये ही हैं, तुम और हम नहीं.’

                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तानमें 6 अगस्त, 1998 को प्रकाशित 

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