- मिलन सिन्हा
'जो वादा किया है, निभाना पड़ेगा; प्राण जाये, पर वचन न जाये ' - ऐसे जुमलों से हम दो-चार होते रहे हैं और किसी -न -किसी रूप में ये हमारे मानवीय संस्कारों के साथ घुलमिल गए हैं। यही कारण है कि वादाखिलाफी हमें पसंद नहीं, यह हमें बुरी लगती है। लगे भी क्यों नहीं। वादा एक प्रकार का अलिखित आपसी अनुबंध है, जिसे पूरा करना कानूनन आवश्यक न भी हो, तथापि नैतिक रूप से अनिवार्य होता है । कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि वादा करना, उसे निभाने का दावा करना और फिर खुद ही उस वादे के दावे की हवा निकाल देना, भारतीय राजनीति के चरित्र का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है, जो निश्चय ही गांधी, तिलक, सुभाष जैसे लोगों की राजनीति से बिल्कुल अलग है। ऐसे, अब तो वादाखिलाफी समाज के हर क्षेत्र में किसी-न-किसी रूप में दिखने लगा है। बहरहाल, जानकार ख़ुशी होती है कि इस बदलते हुए राजनीतिक -सामजिक परिवेश में अभी भी देश-विदेश के कई हिस्सों में व्यवसाय के साथ-साथ सामजिक जीवन में वादा निभाने की गौरवशाली परंपरा न केवल बरकरार व अप्रभावित है, बल्कि आधुनिकता एवं तेज रफ़्तार जिन्दगी के बावजूद सुदृढ़ हो रही है । बिज़नेस मार्केटिंग में अनेकानेक अच्छी और बड़ी कंपनियां अब भी 'वादा कम, पूर्ति ज्यादा' यानि 'प्रॉमिस लेस, डिलीवर मोर' के सिद्धांत को सख्ती से अमल में लाते हैं। इससे ग्राहकों को अतिशय संतुष्टि मिलती है और अनायास ही कंपनी के उत्पादों के प्रति ग्राहकों का विश्वास अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है। और हम सब जानते हैं कि 'संतुष्ट ग्राहक चलता-फिरता विज्ञापन होता है '। मार्केट विशेषज्ञ सच ही कहते हैं कि कंपनी के ब्रांड इमेज में निरन्तर मजबूती के पीछे ये अहम कारण होते हैं। इन सबका गहरा सकारात्मक असर बिज़नेस पर पड़ना लाजिमी है । तभी तो ऐसी कई कंपनियां साल-दर-साल मार्केट में अच्छा प्रदर्शन के लिये जानी जाती हैं । जाहिर है, इसका बहुआयामी फायदा ऐसी कंपनियों के कर्मचारियों को भी मिलता है ।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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