- मिलन सिन्हा
प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती - छोटे -बड़े , गरीब -अमीर, अपने -पराये सबको। कहते हैं आलोचना के लिये साहस की जरुरत नहीं होती है, पर प्रशंसा के लिये होती है। दीगर बात तो यह है कि सच्ची एवं समय पर प्रशंसा सबके बस की बात नहीं होती है। इसके लिये साफ़ दिल और खुले दिमाग के साथ -साथ आत्मिक बल की आवश्यकता होती है। इतना ही नहीं, प्रशंसा हमेशा सबके सामने करनी चाहिए जिससे उस व्यक्ति के साथ -साथ वहां उपस्थित लोगों को भी अच्छा लगे, प्रोत्साहन मिले । लेकिन क्या ऐसा होता है ? सामान्यतः हम देखते हैं कि लोग किसी को मात्र खुश करने के मकसद से उनकी तारीफ़ करते हैं जो थोड़े समय के बाद अंततः चापलूसी का रूप ले लेता है। ऐसा तब और भी स्पष्ट साफ़ हो जाता है जब हम किसी के अच्छे काम की तारीफ़ करने के बजाय उस व्यक्ति की यूँ ही तारीफ़ करने लगते हैं। जैसे कि आप जैसा दिलदार आदमी तो हमने अब तक नहीं देखा, आप इतने स्मार्ट कैसे हैं, आपके अंदाज तो वाकई बेमिसाल हैं आदि, आदि। राजनीति में ऐसी चापलूसी आम है। जाहिर है,ऐसा स्वार्थवश किया जाता है। हाँ, कई बार अच्छी मंशा से की जाने वाली प्रशंसा भी खुशामद प्रतीत होती है क्योंकि उस प्रक्रिया में अतिरेक का तत्व अनायास ही शामिल हो जाता है। लिहाजा किसी की तारीफ़ करते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
दरअसल प्रशंसा सुनना आम आदमी की फितरत में शुमार है। और सही प्रशंसा तो किसी भी मनुष्य को और बेहतर कार्य करने के लिये उत्प्रेरित करता है। देखिये, जो भी जब भी कोई अच्छा काम करे और उसे उसके लिये वाहवाही मिले, प्रशंसा मिले तो निश्चय ही वह और अच्छे काम करने को प्रेरित होगा जिसका सकारात्मक असर उसके परिवार के साथ -साथ पूरे समाज पर पड़ना लाजिमी है । कहना न होगा, प्रशंसा जैसे सरल पर बेहद प्रभावी मनोवैज्ञानिक औजार से अच्छे काम करनेवालों की तादाद में अप्रत्याशित बढ़ोतरी करके किसी भी समाज और देश को बहुत मजबूत बनाया जा सकता है।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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