- मिलन सिन्हा
जो भी करना, मन लगा कर करना - मन लगाकर पढ़ना , मन लगाकर काम करना - इस तरह की नसीहत बचपन से लेकर बड़े होने तक, घर-स्कूल से लेकर ऑफिस तक बड़े -बुजुर्ग व वरिष्ठ अधिकारी -सहयोगी हमें हमारी बेहतरी के लिये देते रहे हैं। लेकिन क्या हमने कभी गंभीरता से इस सवाल पर विचार किया है कि काम करने और मन लगाकर काम करने में वाकई कोई बुनियादी फर्क है ? सच मानिए, छोटा -मोटा फर्क नहीं, जमीन -आसमान का फर्क है ! आखिर कैसे ? कुछ वैसे ही जैसे क्लास में शिक्षक पूरा चैप्टर पढ़ा गए और अंत में जब हमसे उन्होंने एक छोटा-सा प्रश्न पूछा तो हम उत्तर नहीं दे सके, जब कि अन्य कई सहपाठियों ने न केवल उस सवाल का बल्कि उक्त क्लास में पढ़ाये गए और कई सवालों का जवाब आसानी से दे दिया। ऐसा कैसे सम्भव हुआ ? दरअसल, तन से तो हम वहां मौजूद थे और शिक्षक महोदय द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय के प्रति तन्मय भी दिख रहे थे, लेकिन क्या हमारा मन वहां था ? शर्तिया नहीं ! पढ़ने, काम करने आदि की बात छोड़ें, बहुत लोग तो क्या खा रहे हैं, कितना खा रहे हैं - उसकी बाबत पूछने पर कि क्या -क्या चीजें घंटे भर पहले खाईं, बताने में असमर्थ रहते हैं। किसी भी कार्य में बस यूँ ही लगे रहने और मन से उसे करने में यही मूलभूत अंतर होता है। जब हम किसी काम को मन से करते हैं तो न केवल उसमें अपेक्षित रूचि लेते हैं, पूरी तन्मयता से उसे अंजाम देने की भरपूर कोशिश करते हैं, बल्कि उस काम को संपन्न करने का पूरा आनंद भी महसूस करते हैं । इसके विपरीत जब हम उसी काम को बेमन से करते हैं, बोझ समझकर करते हैं तो उस कार्य की गुणवत्ता तो प्रभावित होती ही है, कार्य पूरा होने के बाद भी आनंद की अनुभूति नहीं होती है, सिर्फ यह लगता है कि सिर से बोझ उतर गया। काबिलेगौर बात यह भी है कि मन से काम करने से हमारी कार्यक्षमता बढ़ती है, आत्मविश्वास में इजाफा होता है, समय का पूरा सदुपयोग होता है और साथ में उक्त कार्यक्षेत्र में हमारी एक अच्छी पहचान भी बनती है ।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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