-मिलन सिन्हा
लहूलुहान सड़कें
लहूलुहान सड़कें
कारों में भीड़ नहीं,
कारों की भीड़ है
पक्षी सब सहमे से
सहमे से नीड़ हैं
सूखते उजड़ते पेड़ हैं
लहूलुहान सड़कें हैं
सूख रही धरती है
फटी फटी परती है
सूखे नदी ताल हैं
घर घर अस्पताल है
गाँव नगर सोये से
जागता श्मशान है !
( 'अक्षर पर्व' के अक्टूबर, 2005 अंक में प्रकाशित)
और भी बातें करेंगे, चलते चलते। असीम शुभकामनाएं।
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