- मिलन सिन्हा
सिर्फ फ़िल्म अभिनेता, निर्देशक फरहान अख्तर ही नहीं, हम सभी बखूबी जानते हैं, 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' । फिर भी हमें अखबारों में आत्महत्या के समाचार रोज दिखते हैं। हाल ही में कानपुर आइआइटी के एक छात्र के आत्महत्या की खबर आपने भी पढ़ी होगी। सवाल है, आखिर मरना कौन चाहता है और कोई मरे भी क्यों जब कि हमारा जन्म जीने के लिए हुआ है। मृत्यु तो ऐसे भी हमारी जिंदगी की लम्बी यात्रा का अंतिम पड़ाव है। तो फिर बात-बेबात हम अवसाद ग्रस्त क्यों हो जाते हैं, क्यों आत्महत्या का विचार मन में लाते हैं ?
यह जानना दिलचस्प है कि मनुष्य बिना खाये 40 दिनों तक, बिना पानी के 3 दिनों तक और बिना ऑक्सीजन के 8 मिनट तक जिन्दा रह सकता है, परन्तु बिना उम्मीद के शायद दो पल भी नहीं। तभी तो होश सम्हालने के बाद से ही हम सुनते, जानते और समझते रहे हैं कि दुनिया उम्मीद पर ही टिकी है। तब क्यों और कैसे हम ऐसी नाउम्मीदी के चंगुल में फंसते हैं जो हममें से अधिकांश लोगों का जीवन बेमजा कर देता है और तो और कई कमजोर दिल-दिमाग वालों को आत्महत्या की ओर धकेलता है ?
सोचिये जरा, हम खुद को आहत कब महसूस करते हैं ? सामान्यतः जब हमारी चाहत पूरी नहीं होती है। मतलब, अगर आप चाहत को कंट्रोल करने की क्षमता विकसित कर लें, तो आहत होने की संभावना भी कम हो जायेगी। दूसरे, चाहत की व्यवहारिकता को भी जांच लेनी चाहिए। ऐसा नहीं कि जो प्रथम दृष्ट्या ही नामुमकिन लगे, बिना सोचे समझे उसे भी हासिल करने की जिद पकड़ लें। तीसरे, चाहत के अनुरूप जो भी उपक्रम हमें करने चाहिए, उसे पूरी शिद्दत से करेंगे, तभी तो फलाफल अपेक्षित होगा।
क्या आपने एक भी ऐसा व्यक्ति देखा है जिनके जीवन में सिर्फ मजा ही मजा है , कोई सजा, गम या समस्या नहीं ? नहीं न ! तो फिर क्यों न इस बेशकीमती जीवन को उसकी सम्पूर्णता - चुनौती, ख़ुशी, गम, उतार-चढ़ाव, सफलता-असफलता आदि में जीने का संकल्प लेकर एक नए अंदाज में फिर से जीना शुरू करें और जीवन का भरपूर आनंद लें।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते। असीम शुभकामनाएं।
# 'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित
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