- मिलन सिन्हा
जीवन जीना विज्ञान नहीं, एक कला है, आज के इस वैज्ञानिक युग में भी। हमारे जीवन में कई पड़ाव, कई मोड़ आते हैं जो हमें एक मौका देते हैं समीक्षा का, आगे की योजना बनाने का। कामकाजी लोगों, वो भी संगठित क्षेत्र में नौकरी करनेवाले लाखों लोगों के लिए जीवन में एक ऐसा ही महत्वपूर्ण मोड़ आता है, रिटायरमेंट का। नौकरी को अलविदा कहने का - चाहे -अनचाहे, अनेक मामलों में अनचाहे। कई लोगों के लिए यह समय अत्यधिक पीड़ादायक तो कभी -कभी डरावना और जानलेवा तक हो जाता है। 'टायर्ड' हुए नहीं, पर 'री-टायर्ड' मानकर विदाई दे दी गई। ऐसे में जब कोई उन्हें रिटायर्ड कहता है तो लगता है कि जैसे वे अब थके -हारे, अशक्त, चुके हुए, किसी काम के व्यक्ति नहीं रहे।
कहते हैं न, आदत बुरी बला। बीस - तीस साल तक नौकरी में रहते हुए हम एक आदत विशेष के शिकार हो जाते हैं। फिर एक दिन उस आदत के दायरे से बिलकुल बाहर निकल कर एक सामान्य आदमी की तरह जीना बहुत कठिन लगता है, और वो भी तब जब वह कोई सरकारी या अन्य उच्च पद पर आसीन व्यक्ति रहा हो। लगता है सब शान -सुविधाएं छिन गई, अपनी अब कोई पहचान नहीं रही। उस परिस्थिति में यह प्रतीत होना स्वभाविक है कि विपत्ति अकेली नहीं आती, जैसे घर -बाहर सबकी समस्याएं, एक साथ सामने आ खड़ी हो गई ।
बुद्धिमान लोगों का मत है कि आर्ट ऑफ लिविंग का ही एक महत्पूर्ण अध्य़ाय है 'आर्ट ऑफ रिटायरिंग'। सो, रिटायरमेंट को प्लान करना अनिवार्य है जिससे भविष्य में होनेवाले बदलावों को सहज अंगीकार किया जा सके। दरअसल, रिटायरमेंट के उस संक्रांति पल को और उसके बाद शुरू होनेवाली जिंदगी को बिल्कुल नए ढंग से जीना अपने -आप में चुनौतीपूर्ण तो है, लेकिन है एक कला - कहीं ज्यादा रोमांचक और मजेदार। कारण, नौकरी के सारे बंधनों से मुक्त, अपने ज्ञान तथा अनुभव के बल पर - स्वयं एवं समाज दोनों के हित में कुछ नया व ज्यादा सार्थक करने के लिए अब खुद को समर्पित कर सकते हैं। हां, जरुरत है तो सिर्फ पारम्परिक सोच के दायरे से बाहर निकल कर सोचने और क्रियाशील होने की।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते। असीम शुभकामनाएं।
# 'प्रभात खबर' के मेरे संडे कॉलम, 'गुड लाइफ' में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment