Tuesday, October 20, 2020

सोचने और करने में रहे संतुलन

                          - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर, स्ट्रेस मैनेजमेंट कंसलटेंट ... ...

बचपन से लेकर बुढ़ापे तक सोचने का सिलसिला चलता रहता है. दिनभर में हजारों बातें हर विद्यार्थी के दिमाग में आती हैं और अधिकांश बाहर निकल भी जाती है. हां, छात्र जीवन में  अध्ययन, कोर्स, रिजल्ट, खेलकूद, खानपान, साथी, घर-परिवार, मनोरंजन जैसी कुछ बातों पर सभी प्रायः रोज सोचते है. यह सामान्य बात है. सोचना मानव स्वभाव है. दिलचस्प बात है कि सोचने और करने के बीच गहरा रिश्ता होता है जो हमारे कार्यकलाप और उसके परिणाम में साफ़ परिलक्षित होता है. इसके असंख्य उदाहरण हमारे आसपास अनायास ही मिल जायेंगे.
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि "हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो  कि तुम  क्या सोचते हो. जो तुम सोचते हो वो हो जाओगे. यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे." 


दरअसल, सोचना और करना दोनों बहुत अहम है. इस  मामले में विद्यार्थियों को मोटे तौर पर तीन केटेगरी में रखकर इस चर्चा को आगे बढ़ाना बेहतर होगा. पहले केटेगरी  में वे विद्यार्थी आते हैं जो सोचने में बहुत समय गुजारते हैं. उनके रूटीन में सोचना और सोचते रहना एक बड़ा काम होता है. मसलन अगर केमिस्ट्री की एक किताब खरीदनी है जो उनके लिए बिलकुल जरुरी है, तो अब किस राइटर की या किस पब्लिकेशन की किताब कहां से खरीदें,  ऑनलाइन या ऑफलाइन खरीदें, ऑफलाइन खरीदना हो तो उसके लिए कब और कहां जाएं, ऑनलाइन हो तो कैसे मंगवाएं आदि न जाने कितनी बातों पर सोचते हैं और कन्फ्यूज्ड होकर उस विषय को  वहीँ  छोड़कर फिर किसी दूसरे विषय पर सोचने लगते हैं. सोचने का यह क्रम कई बार कई दिनों तक चलता है, फिर भी वह फैसला नहीं कर पाते हैं. इस श्रेणी के विद्यार्थी ईगो या हीन भावना के कारण दूसरे से सलाह नहीं लेते हैं या अगर किसी कारणवश सलाह लेने के लिए जाते हैं तो इस क्रम में साथी-सहपाठी को भी अपनी सलाह और सोच से परेशान और कंफ्यूज कर देते हैं.
दरअसल, ऐसे विद्यार्थी सोचने में अपना ज्यादातर समय व्यय कर देते हैं. लिहाजा, जो काम करना है उसे नहीं कर पाते हैं. ज्ञानीजन सही कहते हैं कि जब सोच को कार्यान्वित नहीं करेंगे तो परिणाम शून्य ही होगा. 


दूसरे केटेगरी में वैसे विद्यार्थी हैं जो किसी भी विषय में खुद बहुत कम सोचते हैं. वे या तो बिना ज्यादा सोचे कोई भी फैसला कर लेते हैं या किसी दूसरे की सलाह को आंख बंद कर अपना लेते हैं. माना जाता है कि ऐसे विद्यार्थी हड़बड़ी में रहते हैं और किसी भी तरह अपना काम निबटाने की कोशिश करते हैं. काम के क्वालिटी से उंनका खास लेना-देना नहीं रहता. वे केमिस्ट्री की वही किताब जो पहले श्रेणी के विद्यार्थी सोच-सोच कर भी नहीं खरीद पाए, उसे  एक दिन में कहीं से भी किसी भी मूल्य में खरीद कर ले आते हैं. वह किताब उनके लिए वाकई उपयुक्त और उपयोगी है या नहीं, इसके विषय में भी वे  नहीं सोचते. नतीजतन, उसे एक-दो घंटे उलट-पुलट कर रख देते हैं और फिर हड़बड़ी में किसी दूसरे विषय पर जम्प कर जाते हैं.
सोचने और करने में  कुछ सही नहीं होता है. हां, धीरे-धीरे  सब कुछ  इसी तरह जैसे-तैसे निबटाने की उनकी एक आदत जरुर बन जाती है. परिणामस्वरूप, बराबर औसत या बुरे परिणाम के भागी बनते हैं.  


तीसरे केटेगरी के विद्यार्थी वे होते हैं जो हर विषय पर यथाबुद्धि सोच-विचार करते हैं. जरुरी होने पर अपने अभिभावक, शिक्षक या किसी जानकार व्यक्ति से सलाह लेते हैं या परामर्श करते हैं. इस प्रक्रिया में वे अनावश्यक समय नहीं लगाते. निर्णय  वे खुद ही लेते हैं और उसकी जिम्मेदारी  भी. निर्णय हो जाने पर उसे फिर  बढ़िया से कार्यान्वित करते हैं.
वे स्वामी विवेकानंद के ऊपर बताए गए विचार को मानते हुए उनकी इस बात को भी गंभीरता से अमल में लाने की कोशिश करते हैं कि "एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ." कहने का अर्थ यह कि वे अच्छा सोचने और अच्छा करने पर पूरा फोकस करते हैं. किताब खरीदने को ही यदि  उदाहरण के रूप में लें तो इस श्रेणी के विद्यार्थी अच्छी तरह सोचकर सबसे उपयुक्त किताब, सबसे वाजिब मूल्य पर जहां से भी सबसे जल्दी प्राप्त हो सके, इसका पता लगाकर उसे हासिल करते हैं. फिर उस विषय की अपनी पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने का काम करते हैं. निसंदेह, ऐसे सभी विद्यार्थी सोचने और करने में बेहतर संतुलन बनाकर चलते हैं और जीवन में बराबर अच्छे परिणाम हासिल करते हैं. शिक्षा का मूल उद्देश्य भी तो यही है. 

  (hellomilansinha@gmail.com) 


            और भी बातें करेंगे, चलते-चलते. असीम शुभकामनाएं.               
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