- मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर... ....
सुनना एक कला है और एक लोकतांत्रिक सोच भी - यह हमने अनेकों बार सुना है. नोबेल पुरस्कार विजेता विख्यात अमेरिकी लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे कहते हैं, "मैं सुनना पसंद करता हूँ. ध्यान से सुनने के परिणामस्वरूप मैंने बहुत कुछ सीखा है." अन्य अनेक नामचीन लोगों ने भी इस बात को किसी-न-किसी सन्दर्भ में रेखांकित किया है. लेकिन क्या ज्यादातर लोग, खासकर विद्यार्थीगण इस बात से इत्तफाक रखते हैं ?
मौजूदा दौर में अधिकांश विद्यार्थी बोलना पसंद करते हैं. सुनने में उनकी रूचि कम होती है, जब कि अच्छा वक्ता होने के लिए अच्छा श्रोता होना जरुरी माना गया है. एक दिलचस्प तथ्य यह भी कि हमारे पास सुनने के लिए दो कान हैं तो बोलने के लिए केवल एक मुंह. शायद इसलिए कि हम ज्यादा सुनें और कम बोलें. कहते हैं कि जब हम बोलते हैं तो सामान्यतः केवल वही दोहराते हैं जो हम पहले से जानते हैं, लेकिन जब हम सुनते हैं तो कुछ-न-कुछ नया सीखते हैं.
कई जॉब कम्पटीशन में जीडी यानी ग्रुप डिस्कशन भी होता है जिसमें अलग-अलग ग्रुप में प्रतिभागी अलग-अलग विषयों पर चर्चा करते हैं. इस दौरान एक्सपर्ट पैनल के सदस्य प्रतिभागियों के कई व्यक्तिगत गुणों का मूल्यांकन करते हैं. वहां कई बार विद्यार्थियों को एक साथ बोलते -चिल्लाते देखा जा सकता है, जैसा कि आजकल प्राइम टाइम टीवी शो में आमतौर पर देखने को मिलता है. ऐसे टीवी शो को देखना छोड़ कर दर्शक जैसे चैनेल बदल लेते हैं, वैसे ही जीडी में साथी प्रतिभागी को पूरा न सुनकर जबरन अपनी बात रखनेवाले प्रतिभागी से एक्सपर्ट किनारा कर लेते हैं यानी उन्हें पसंद नहीं करते हैं. सर्वसत्य है कि अच्छी तरह सुनना न केवल बोलनेवाले के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता है, बल्कि किसी भी सफल संवाद प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त भी होती है. "दि मोंक हू सोल्ड हिज फेरारी' जैसे कई बेस्ट सेलर पुस्तकों के लेखक और प्रेरक वक्ता रोबिन शर्मा का कहना है, "सुनना पर्सनल और प्रोफेशनल उत्कृष्टता का एक मास्टर स्किल है."
वास्तव में जो विद्यार्थी अपने टीचर -प्रोफेसर की बात, क्लास में हो या कोचिंग या ट्यूशन क्लासेज में, अच्छी तरह सुनते हैं, विषय की उनकी समझ अच्छी होती है. इसके विपरीत कई विद्यार्थी शरीर से टीचर-प्रोफेसर या किसी और वक्ता के साथ दिखाई तो देते हैं, लेकिन दिमाग से कहीं और होते हैं, जब कि वे भलीभांति जानते हैं कि आधा-अधूरा सुनेंगे तो ज्ञान भी आधा-अधूरा ही तो रहेगा. दूसरे, बहुधा कुछ विद्यार्थी बोलनेवाले की बातों को समझने, जानने तथा सीखने के लिए नहीं, अपितु केवल सवाल-जवाब करने की मंशा से उन्हें सुनते हैं. यही उनके लिए विषयवस्तु से भटकने और फिर अप्रासंगिक सवाल पूछने का कारण बनता है. एक काबिलेगौर बात और. अधूरा सुनने एवं उस आधार पर मत बनाने का परिणाम सामान्यतः बहुत घातक और नुकसानदेह होता है, जिससे विद्यार्थियों को बचना चाहिए.
सभी विद्यार्थियों के लिए यह ठीक से जानने और समझने योग्य बात है कि सुनने से अधिकतम फायदा उठाने के लिए यह जरुरी है कि वे एकाग्रचित्त रहें और विषय के साथ सच्ची संलग्नता बनाए रखें. इस प्रक्रिया में डर, घबराहट, चिंता आदि से मुक्त रहना बेहतर परिणाम देता है. जो विद्यार्थी ऐसा करते हैं वे अपेक्षाकृत ज्यादा संतुलित, मर्यादित एवं संयमित होते हैं.
विश्वविख्यात प्रबंधन गुरु डेल कार्नेगी कहते हैं कि दूसरों की बात सुनने के दो बहुत अच्छे कारण हैं. एक तो यह कि इससे आप नयी बात सीखते हैं और दूसरा यह कि लोग अपनी बात सुननेवाले लोगों से खुश होते हैं. जाहिर है, सुनना सिर्फ प्रोफेशनल इंटरव्यू लेनेवालों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं होता है. यह संवाद करनेवाले हर व्यक्ति के लिए हर जगह और हर वक्त महत्वपूर्ण है. लिहाजा, सुनना सबसे महत्वपूर्ण संवाद कौशल है. प्रेरक संभाषण की कला से भी ज्यादा महत्वपूर्ण; बुलंद आवाज से भी ज्यादा महत्वपूर्ण; कई भाषा बोलने की योग्यता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण; लिखने की प्रतिभा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण. और-तो-और अच्छे से सुनना ही वह मोड़ है जहां से असरदार संवाद शुरू होता है. हैरानी की बात है कि बहुत कम लोग सचमुच अच्छी तरह सुनते हैं. लेकिन सफल लीडर्स अक्सर वही होते हैं, जो सुनने का महत्व अच्छी तरह समझते हैं.
एकदम सही. महान व्यक्तियों की जीवनी पढ़ने तथा अपने आसपास के अच्छे व सफल लोगों का व्यवहार आदि को देखने से साफ़ हो जाता है कि वे सुनने की कला में माहिर हैं. वे तन्मयता से छोटे-बड़े सबकी बात या समस्या सुनते हैं और अनेकों बार आसानी से समाधान का सूत्र भी तलाशने में कामयाब होते हैं.
(hellomilansinha@gmail.com)
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 13.10.2019 अंक में प्रकाशित
# लोकप्रिय साप्ताहिक "युगवार्ता" के 13.10.2019 अंक में प्रकाशित
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