Tuesday, September 24, 2019

अपेक्षा प्रबंधन के लाभ अनेक

                                                        - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
विलियम शेक्सपियर कहते हैं कि अपेक्षा दिल टूटने का बड़ा कारण है. सही है. दूसरे से अपेक्षा कम तो निराशा भी कम, कुछ विद्यार्थी ऐसा भी कहते व मानते हैं. लेकिन अनेक विद्यार्थी दूसरों से अपेक्षा रखते हैं कि वे उनकी मदद करें; उनके काम आएं, बेशक वे खुद दोस्तों-सहपाठियों की मदद करें या नहीं करें. फिर भी जब अपेक्षा के अनुरूप कोई उनको हेल्प करता है तो अच्छा लगता है. लेकिन अनेक मामलों में ऐसा नहीं होता है. तब उनको बहुत बुरा लगता है. ऐसा तब होता है जब हर विद्यार्थी को बचपन से ही घर-बाहर हर जगह  यह बताया और सिखाया जाता है कि हमेशा जरुरतमंदों की मदद करें, लेकिन बदले में उनसे कुछ भी अपेक्षा न करें. मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो भी ठीक. संस्कार युक्त परिवारों में यह सीख भी दी जाती है कि जीवन की सार्थकता पाने से ज्यादा देने में है.  कई विद्यार्थियों के लिए तो देने का सिलसिला ज्ञान दान के रूप में स्कूल से ही शुरू हो जाता है. अपने आसपास आपने भी कई विद्यार्थियों को घर-बाहर के बच्चों को पढ़ाते देखा होगा.

मानव जीवन को गौर से देखें तो बचपन से विद्यार्थी जीवन तक हम सभी  मोटे तौर पर माता-पिता, बड़े-बुजुर्ग, शिक्षकगण और समाज से बहुत कुछ सिर्फ प्राप्त  ही करते हैं. सो, हमें पाने की एक आदत-सी लग जाती है. आगे भी अपेक्षा करने और पाने का यह सिलसिला जारी रहता है, जब कि होना यह चाहिए कि जब विद्यार्थी पढ़-लिखकर अपने पांव पर खड़ा हो जाए; स्वावलंबी, समर्थ और समृद्ध हो जाए, तब वह समाज को यथासाध्य देना-लौटना शुरू कर दे. पाने की अपेक्षा को कम करके देने की भावना को तीव्र करे.

बहरहाल, काबिलेगौर बात यह है कि बाजारवाद की आज की दुनिया में जब रिश्ते लेनदेन यानी गिव एंड टेक पर आधारित होते जा रहे  हैं, तब विद्यार्थियों के लिए यह और भी जरुरी हो जाता है कि वे अपने दोस्तों -रिश्तेदारों के साथ के संबंधों  को अपेक्षा की तराजू पर न तौलें. वास्तविक जीवन जीने का सतत प्रयास करें. ऐसा इसलिए कि अपेक्षा और उपेक्षा का भाव साथ-साथ चलते हैं. हम दूसरों से जितनी ज्यादा अपेक्षा रखते हैं, उतनी ज्यादा उपेक्षा की संभावना भी रहती है. मसलन आप अगर किसी दोस्त से बहुत अपेक्षा रखते हैं, उससे वह नहीं मिलने पर आपको उपेक्षा का गहरा एहसास होता है. परिणामतः आपसी समझबूझ में कमी आती है; मनमुटाव बढ़ता है और अंततः वर्षों के रिश्ते बेवजह टूट जाते हैं. इससे आप भी दुष्प्रभावित होते हैं. इसके विपरीत जिनसे आप कोई अपेक्षा नहीं रखते, वह आपके काम के बदले कुछ करे-न-करे आपको कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

हां, हर विद्यार्थी को खुद से बहुत अपेक्षा होती है जो बहुत स्वाभाविक है. ज्ञानीजन कहते हैं कि  वे सभी  विद्यार्थी जो ज्यादा स्वाभिमानी होते हैं, वे खुद से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा रखते हैं, क्यों कि उन्हें अपनी क्षमता पर पूरा यकीन होता है. उन्हें किसी बैसाखी के सहारे चलना मंजूर नहीं. वे आंख खोलकर सपने देखने और उन्हें साकार करने में दृढ विश्वास रखते हैं. कड़ा परिश्रम करते हैं. लेकिन यहां भी विद्यार्थियों को कुछ बातों का ध्यान रखने की जरुरत है. 

हर विद्यार्थी को परीक्षा में अच्छा अंक लाने की अपेक्षा रहती है जो कि वास्तव में परीक्षा पूर्व उनकी तैयारी और परीक्षा में उनके वास्तविक प्रदर्शन पर निर्भर करता है. इस सच्चाई के इतर अगर  कोई विद्यार्थी ठीक से अध्ययन न करे और सिर्फ यह अपेक्षा करे कि परिणाम अच्छे होंगे तो उसे निराशा तो होगी ही. प्रतियोगिता परीक्षा में आपको तो यह मालूम होता है कि आपकी  तैयारी  कैसी है, लेकिन आप यह  नहीं जानते कि बाकी हजारों-लाखों प्रतिभागी कितनी तैयारी के साथ परीक्षा में शामिल हो रहे हैं. ऐसे में सेलेक्शन के प्रति आपकी  अपेक्षा यथार्थ पर आधारित होनी चाहिए. ऐसा नहीं होने की स्थिति में आप अनावश्यक निराशा और अवसाद से ग्रस्त हो सकते हैं. जिन प्रतियोगिता परीक्षाओं में लिखित परीक्षा के अलावा इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन भी रहता है, वहां तो आपका अपेक्षा प्रबंधन बहुत ही यथार्थवादी होना जरुरी है. दूसरे शब्दों में कहें तो आप दूसरों से न्यूनतम अपेक्षा रखें, खुद से जो अपेक्षा हो उसके अनुरूप तैयारी और परफॉर्म करें और हमेशा यथार्थवादी दृष्टिकोण से परिणाम का आकलन और विश्लेषण करें. इससे आपकी उत्पादकता बेहतर होगी और रिजल्ट भी. इसी वर्ष जनवरी में परीक्षा पर चर्चा विषय पर छात्र-छात्राओं से बात करते हुए देश के प्रधान मंत्री ने अपेक्षा प्रबंधन के महत्व को भी रेखांकित किया था. आपने वह कार्यक्रम तो देखा ही होगा, क्यों?
(hellomilansinha@gmail.com)

                 
                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं  
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