Friday, November 23, 2018

मोटिवेशन : सफलता की सीढ़ी है लक्ष्य के प्रति समर्पण

                                                                - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर...
ऐसे देखा जाए तो हर कोई अपने जीवन में सफल होना चाहता है, परन्तु सबको अपेक्षित सफलता मिलती है क्या ? इसके एकाधिक कारण हो सकते हैं, किन्तु एक महत्वपूर्ण कारण एक स्पष्ट लक्ष्य न तय कर पाना होता है. सोचिये जरा, अगर फुटबॉल के मैदान में कोई गोल पोस्ट ही न हो या  क्रिकेट के खेल में विकेट न हो तो क्या होगा? तभी तो ए. एच. ग्लासगो कहते हैं, ‘फुटबाल की तरह ज़िन्दगी में भी आप तब-तक आगे नहीं बढ़ सकते जब तक आपको अपने लक्ष्य का पता ना हो.’ कहने का अभिप्राय यह कि अगर लक्ष्य को सामने से हटा दिया जाय तो फिर न तो खेल के कोई मायने होते हैं और न ही जीवन के.

कुछ दिनों पूर्व प्रदर्शित केतन मेहता निर्देशित फिल्म, ‘मांझी – दि माउंटेन मैन’ की खूब चर्चा हुई. यह अकारण नहीं है. इस फिल्म में बिहार के गरीब -शोषित  समाज के एक ऐसे इंसान के वास्तविक जीवन  को फिल्माने का प्रयास किया गया जिसने गरीबी और सामाजिक विरोध के बावजूद सिर्फ अपने दम पर एक विशाल पहाड़ को चीरकर सड़क बनाने का लक्ष्य अपने सामने रखा. दशरथ मांझी ने इसके निमित्त अनथक परिश्रम किया और रास्ते में आने वाले  तमाम अवरोधों को चीरते हुए  सफलता हासिल की.

सभी जानते हैं कि महाभारत में लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता के मिसाल के तौर पर पांडव पुत्र अर्जुन का नाम उभर कर आता है. ऐसा इसलिए कि अर्जुन ने एकाग्र हो कर केवल अपने लक्ष्य पर फोकस किया था और परिणामस्वरूप चिड़िया की आँख पर तीर से निशाना साधने में वही सफल रहे थे.

तभी  तो स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "लक्ष्य को ही अपना जीवन कार्य समझो. हर समय उसका चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी के सहारे जीवित रहो ." खुद स्वामी जी का जीवन इसका ज्वलंत उदाहरण है.

भारतीय आई टी  उद्द्योग के एक बड़े नामचीन व्यक्ति के रूप में हम सब नारायण मूर्ति का नाम लेते हैं. दरअसल इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने किन-किन पड़ावों से होकर अपनी यात्रा जारी रखी, उसे जानना –समझना जरुरी भी है और  प्रेरणादायक भी. मध्यम वर्ग परिवार के  युवा नारायण मूर्ति  को 1981 में इन्फोसिस की शुरुआत से पहले साइबेरिया –बुल्गारिया  की  रेल यात्रा के दौरान किसी भ्रमवश गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया,  जहाँ उन्हें करीब तीन दिनों तक भूखा रहना पड़ा और यातनाएं भी झेलनी पड़ी. उस समय उन्हें एक बार ऐसा भी लगा कि शायद  वे अब वहां से निकल भी पायें, लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और सच्चाई का दामन थामे रखा. सौभाग्य  से उन्हें चौथे दिन जेल से निकाल कर इस्ताम्बुल की ट्रेन में बिठा कर मुक्ति दी गई. वह उनकी जिंदगी का कठिनतम दौर था. कहते है न कि हर सफल  व्यक्ति अपने जीवन के उतार –चढ़ाव से बहुत कुछ सीखता रहता है और अपने लक्ष्य की  ओर अग्रसर होता रहता है. अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध  नारायण मूर्ति के साथ भी ऐसा ही हुआ और आज देश –विदेश के करोड़ों लोग उनके  प्रशंसक हैं.

                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# दैनिक जागरण में 23.11.18 को प्रकाशित

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