-मिलन सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर...
( hellomilansinha@gmail.com)
आज सुबह से ही मुझे कुछ अच्छा होने का आभास हो रहा था. इसी वजह से बालकनी में बैठा प्रकृति के इस खूबसूरत एहसास को खुद में समेटने की कोशिश कर रहा था. प्रकृति विज्ञानी तो पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की हरकतों से जान जाते हैं कि प्रकृति आज कौन-सा नया रंग दिखाने वाली है. अचानक तेज हवा चलने लगी. बादल उमड़-घुमड़ आने-जाने लगे और बस बारिश शुरू हो गयी. एकदम झमाझम. बालकनी से घर के सामने और बगल में फैले आम, नीम, यूकलिप्ट्स, सहजन, अमरुद आदि के पेड़ों को बारिश में बेख़ौफ़ हंसते-झूमते देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा था. सामने की भीड़ वाली सड़क पर अभी इक्के-दुक्के लोग छाता सहित या रहित आ-जा रहे थे. सड़क किनारे नाले में पानी का बहाव तेज हो गया था, पर सड़क पर कहीं बच्चे नजर नहीं आ रहे थे. यही सब देखते-सोचते पता नहीं कब अतीत ने घेर लिया.
बचपन में बारिश हो और हम जैसे बच्चे घर में बैठे रहें, नामुमकिन था. किसी न किसी बहाने बाहर जाना था, बारिश की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते हुए न जाने क्या-क्या करना था. हां, पहले से बना कर रखे विभिन्न साइज के कागज़ के नाव को बारिश के बहते पानी में चलाना और पानी में छप-छपाक करना सभी बच्चों का पसंदीदा शगल था. नाव को तेजी से भागते हुए देखने के लिए उसे नाले में तेज गति से बहते पानी में डालने में भी हमें कोई गुरेज नहीं होता था. फिर उस नाव के साथ-साथ घर से कितनी दूर चलते जाते, अक्सर इसका होश भी नहीं होता और न ही रहती यह फ़िक्र कि घर लौटने पर मां कितना बिगड़ेंगी .... अनायास ही गुनगुना उठता हूँ, ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे ... ... ...’
आकाश में बिजली चमकी और गड़गड़ाहट हुई तो वर्तमान में लौट आया. यहाँ तो कोई भी बच्चा बारिश का आनंद लेते नहीं दिख रहा है, न कोई कागज़ के नाव को बहते पानी में तैराते हुए. क्या आजकल बच्चे बारिश का आनंद नहीं लेना चाहते या हम इस या उस आशंका से उन्हें इस अपूर्व अनुभव से वंचित कर रहे हैं या आधुनिक दिखने-दिखाने के चक्कर में बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं. शायद किसी सर्वे से पता चले कि महानगर और बड़े शहरों में सम्पन्नता में पलनेवाले और बड़े स्कूल में पढ़नेवाले बच्चों के लिए कहीं उनके अभिभावकों ने इसे अवांछनीय तो घोषित नहीं कर रखा है. खैर, अच्छी बात है कि अब तक गांवों तथा कस्बों के आम बच्चे प्रकृति से जुड़े हुए हैं और इसका बहुआयामी फायदा पा रहे हैं. इस सन्दर्भ में मुझे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं :
कहने का तात्पर्य बस यह कि बच्चों को अपना बचपन जीने दें, उन्हें उसका मजा लेने दें और उन्हें स्वभाविक ढंग से प्रकृति से जुड़ने दें क्यों कि हम सभी जानते और मानते हैं कि हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत समय बचपन ही होता है और प्रकृति से बेहतर कोई शिक्षक नहीं होता.
मेरा तो मानना है कि गर्मी के मौसम के बाद नीले आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों में संग्रहित जल-बूंदों का वर्षा की शीतल फुहार के रूप में धरती पर आने के पीछे के मौसम विज्ञान के विषय में बड़े-बुजुर्ग बच्चों को बताएं. बारिश के इस मौसम का खान-पान से लेकर गाँव, खेत-खलिहान, कृषि कार्य, अन्न उत्पादन, अर्थ व्यवस्था आदि पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव के बारे में हमारे अनुभव व वैज्ञानिक जानकारी से उन्हें लाभान्वित करें. आम, जामुन, कटहल, नाशपाती, अमरुद जैसे मौसमी फलों का हमारे स्वास्थ्य पर होने वाले लाभकारी असर की जानकारी बच्चों को दें.
बच्चे जो देखते हैं उससे बहुत कुछ सीखते हैं. लिहाजा यह बेहतर होगा कि हम उन्हें बाहर जाने दें, खुद भी ले जाएं - अपने या आसपास के गांव-क़स्बा में और जमीनी हकीकत से रूबरू होने दें, प्रकृति के इस मनमोहक इन्द्रधनुषी रंग-रूप को बढ़िया से देखने, पढ़ने और एन्जॉय करने दें. दिलचस्प बात है कि उन्हें इस मौसम में कई जगह लड़कियों और महिलाओं को लोकगीत गा कर वर्षा के मौसम का स्वागत करते और पीपल, बरगद, आम, कटहल, नीम आदि के पेड़ों की टहनियों में झूला डालकर इस मौसम का आनन्द उठाते देखने और उसमें शिरकत करने का मौका भी मिलेगा. इस तरह वे अपनी संस्कृति व परम्परा से जुड़ते भी जायेंगे.
एक बात और. सभी जानते हैं, जल नहीं तो कल नहीं; जल ही जीवन है. ऐसे में अगर बच्चे बचपन से ही जल चक्र की पूरी प्रक्रिया को आत्मसात करेंगे और वर्षा के पानी का हमारे जीवन चक्र पर जो बहुआयामी प्रभाव होता है उसे भी जानेंगे और महसूस करेंगे, तभी वे जल की महत्ता को ठीक से समझेंगे. इस प्रक्रिया में उनका मन-मानस भी परिष्कृत एवं समृद्ध होगा और वे स्वतः "सर्वे भवन्तु सुखिनं" के विचार को जीना सीखेंगे.
कुल मिलाकर देखें तो नभ से झरते बारिश की बूंदों को सन्दर्भ में रखकर हम अपने बच्चों, जो भविष्य के नागरिक भी हैं, को स्वभाविक ढंग से प्रकृति से जुड़ने और जीवन को समग्रता में जीने व एन्जॉय करने का स्वर्णिम अवसर दे सकते हैं. बूंद-बूंद करके ही सही बहुत अच्छी चीजों से उन्हें लैस कर सकते हैं.
बचपन में बारिश हो और हम जैसे बच्चे घर में बैठे रहें, नामुमकिन था. किसी न किसी बहाने बाहर जाना था, बारिश की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते हुए न जाने क्या-क्या करना था. हां, पहले से बना कर रखे विभिन्न साइज के कागज़ के नाव को बारिश के बहते पानी में चलाना और पानी में छप-छपाक करना सभी बच्चों का पसंदीदा शगल था. नाव को तेजी से भागते हुए देखने के लिए उसे नाले में तेज गति से बहते पानी में डालने में भी हमें कोई गुरेज नहीं होता था. फिर उस नाव के साथ-साथ घर से कितनी दूर चलते जाते, अक्सर इसका होश भी नहीं होता और न ही रहती यह फ़िक्र कि घर लौटने पर मां कितना बिगड़ेंगी .... अनायास ही गुनगुना उठता हूँ, ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे ... ... ...’
आकाश में बिजली चमकी और गड़गड़ाहट हुई तो वर्तमान में लौट आया. यहाँ तो कोई भी बच्चा बारिश का आनंद लेते नहीं दिख रहा है, न कोई कागज़ के नाव को बहते पानी में तैराते हुए. क्या आजकल बच्चे बारिश का आनंद नहीं लेना चाहते या हम इस या उस आशंका से उन्हें इस अपूर्व अनुभव से वंचित कर रहे हैं या आधुनिक दिखने-दिखाने के चक्कर में बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं. शायद किसी सर्वे से पता चले कि महानगर और बड़े शहरों में सम्पन्नता में पलनेवाले और बड़े स्कूल में पढ़नेवाले बच्चों के लिए कहीं उनके अभिभावकों ने इसे अवांछनीय तो घोषित नहीं कर रखा है. खैर, अच्छी बात है कि अब तक गांवों तथा कस्बों के आम बच्चे प्रकृति से जुड़े हुए हैं और इसका बहुआयामी फायदा पा रहे हैं. इस सन्दर्भ में मुझे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं :
"मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के.
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के. ... ..."
विचारणीय प्रश्न है कि हम कहीं जाने-अनजाने अपने बच्चों को प्रकृति के अप्रतिम रूपों को देखने-महसूसने से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, उन्हें कृत्रिमता के आगोश में तो नहीं धकेल रहे हैं? कहने का तात्पर्य बस यह कि बच्चों को अपना बचपन जीने दें, उन्हें उसका मजा लेने दें और उन्हें स्वभाविक ढंग से प्रकृति से जुड़ने दें क्यों कि हम सभी जानते और मानते हैं कि हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत समय बचपन ही होता है और प्रकृति से बेहतर कोई शिक्षक नहीं होता.
मेरा तो मानना है कि गर्मी के मौसम के बाद नीले आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों में संग्रहित जल-बूंदों का वर्षा की शीतल फुहार के रूप में धरती पर आने के पीछे के मौसम विज्ञान के विषय में बड़े-बुजुर्ग बच्चों को बताएं. बारिश के इस मौसम का खान-पान से लेकर गाँव, खेत-खलिहान, कृषि कार्य, अन्न उत्पादन, अर्थ व्यवस्था आदि पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव के बारे में हमारे अनुभव व वैज्ञानिक जानकारी से उन्हें लाभान्वित करें. आम, जामुन, कटहल, नाशपाती, अमरुद जैसे मौसमी फलों का हमारे स्वास्थ्य पर होने वाले लाभकारी असर की जानकारी बच्चों को दें.
बच्चे जो देखते हैं उससे बहुत कुछ सीखते हैं. लिहाजा यह बेहतर होगा कि हम उन्हें बाहर जाने दें, खुद भी ले जाएं - अपने या आसपास के गांव-क़स्बा में और जमीनी हकीकत से रूबरू होने दें, प्रकृति के इस मनमोहक इन्द्रधनुषी रंग-रूप को बढ़िया से देखने, पढ़ने और एन्जॉय करने दें. दिलचस्प बात है कि उन्हें इस मौसम में कई जगह लड़कियों और महिलाओं को लोकगीत गा कर वर्षा के मौसम का स्वागत करते और पीपल, बरगद, आम, कटहल, नीम आदि के पेड़ों की टहनियों में झूला डालकर इस मौसम का आनन्द उठाते देखने और उसमें शिरकत करने का मौका भी मिलेगा. इस तरह वे अपनी संस्कृति व परम्परा से जुड़ते भी जायेंगे.
एक बात और. सभी जानते हैं, जल नहीं तो कल नहीं; जल ही जीवन है. ऐसे में अगर बच्चे बचपन से ही जल चक्र की पूरी प्रक्रिया को आत्मसात करेंगे और वर्षा के पानी का हमारे जीवन चक्र पर जो बहुआयामी प्रभाव होता है उसे भी जानेंगे और महसूस करेंगे, तभी वे जल की महत्ता को ठीक से समझेंगे. इस प्रक्रिया में उनका मन-मानस भी परिष्कृत एवं समृद्ध होगा और वे स्वतः "सर्वे भवन्तु सुखिनं" के विचार को जीना सीखेंगे.
कुल मिलाकर देखें तो नभ से झरते बारिश की बूंदों को सन्दर्भ में रखकर हम अपने बच्चों, जो भविष्य के नागरिक भी हैं, को स्वभाविक ढंग से प्रकृति से जुड़ने और जीवन को समग्रता में जीने व एन्जॉय करने का स्वर्णिम अवसर दे सकते हैं. बूंद-बूंद करके ही सही बहुत अच्छी चीजों से उन्हें लैस कर सकते हैं.
हां, एक और बात. कहा जाता है कि बारिश में स्नान करने से घमौरियां ख़त्म हो जाती हैं, किसी तरह के कूल-कूल पाउडर की जरुरत नहीं होती. हमने तो ऐसा पाया है. क्या आपने भी ?
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
#For Motivational Articles in English, pl. visit my site : www.milanksinha.com
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