Tuesday, May 31, 2016

यात्रा के रंग : अब पहाड़ के संग

                                                                                                       - मिलन सिन्हा
...गतांक से आगे ... कोलकाता से करीब एक घंटे की हवाई यात्रा के बाद पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग सिलीगुड़ी के बागडोगरा एयरपोर्ट से बाहर निकला, तो बेहतर लगा –कारण उमस, गर्मी  और प्रदूषण कम था, कोलकाता की तुलना में. यहाँ का एयरपोर्ट छोटा है, लेकिन जानकार बताते हैं कि सैन्य दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण है. हो भी क्यों नहीं. सिलीगुड़ी  उत्तर पूर्व का गेट-वे जो रहा है. लिहाजा इस एयरपोर्ट का विस्तार करके इसे बड़ा बनाया जाना चाहिए, जिससे सैन्य सुरक्षा के अलावे पर्यटन और व्यवसाय में बेहतरी दर्ज हो और पश्चिम बंगाल के इस महत्वपूर्ण भाग के लोगों के साथ -साथ उत्तर–पूर्व के प्रदेशों के आम जन को भी इसका ज्यादा-से-ज्यादा लाभ मिल सके.

बागडोगरा एयरपोर्ट से निकलते ही दायीं ओर चाय बागान दिख गया और झट लगने लगा ऐसा कि चाय का कैफीन असर करने लगा, कारण मन –मानस उत्साह और उमंग से अनायास ही जैसे भरने लगा. हरियाली से मन प्रसन्न हो गया. चालक ने कार को चौड़े से बायपास रोड पर डाल दिया. कार की रफ़्तार तेज हो गयी. थोड़ी ही देर में शहर के  भीड़-भाड़, धूल व स्वभाविक रूप से जहाँ-तहां फैले गंदगी को पीछे छोड़ते हुए हम पहाड़  पर चढ़ने  लगे और साथ ही धीरे–धीरे ठण्ड का सुखद अनुभव करने लगे. एक बात और. पहाड़ों के बीच से तेज रफ़्तार में  बहती-हंसती–कलकलाती प्रसिद्ध ‘तीस्ता’ नदी को उसके किनारे–किनारे चलती गाड़ी में से देखते जाना हमारे लिए एक अपूर्व अनुभव  था. 

शाम होने से पहले पं. बंगाल के एक दर्शनीय पर्वतीय स्थल ‘कलिंपोंग’ पहुंचना था. देर हो रही थी, क्यों कि पहाड़ी सड़क कई जगह ख़राब हालत में थे; धूल उड़ रहे थे. लगा ऐसा कि कई दिनों से ऐसा ही आलम था. कोई वैकल्पिक मार्ग शायद न हो, सो गाड़ियों को रुकते, रेंगते, धूल उड़ाते आगे बढ़ना था. यात्रा में ऐसे व्यवधान आनंद में खलल डालते तो हैं ही. हाँ, एक अनुरोध  ममता दीदी ( मुख्य मंत्री, पं .बंगाल) से. वे सड़क मार्ग से इस क्षेत्र का औचक दौरा-निरीक्षण करें. खुद देखेंगी, तो कुछ तो अच्छा हो ही जाएगा. क्यों ? बहरहाल हम सूर्यास्त से पहले कलिंपोंग पहुंच गए. इस बीच हाफ स्वेटर  निकल चुका था.


मुख्य चौक के बिलकुल पास ही रुकने की व्यवस्था थी. अभी अँधेरा नहीं हुआ था. जल्दी से सामान रखकर निकल आया बाहर. दूर–दूर तक पहाड़ और हरियाली. ठंडी हवा चल रही थी. चाय की तलब और फैलते अँधेरे ने बाजार की ओर रुख करने को कहा. बाजार छोटा-सा; सड़कें भी ज्यादा चौड़ी नहीं, लेकिन ट्रैफिक कमोबेश व्यवस्थित. स्थानीय लोगों ने बताया कि बाजार 8 बजे तक बंद हो जाता है. मोटे तौर पर खाने–पीने की सब चीजें उपलब्ध थी. मोमो, चाउमीन आदि लोगों की पसंद है, ऐसा पता चला. चलते -चलाते कुछ स्थानीय युवकों से बातचीत में पढ़े -लिखे युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या स्पष्ट रूप से उभर कर आई. 

कहा जाता है कि कलिंपोंग, जो कि समुद्र तल से 4100 फीट की ऊंचाई पर अवस्थित है, पहले भूटान साम्राज्य का हिस्सा था, सन 1865 में ब्रिटिश प्रशासन के अधीन आ गया. यहाँ के सदाबहार मौसम और आसपास के मोहक परिवेश को ध्यान में रख कर अच्छी संख्या में अंग्रेज यहाँ आकर रहने लगे. लिहाजा,  ब्रिटिश प्रशासन ने यहाँ कई अच्छे स्कूल  खुलवाये जिनमें से कुछ अच्छे स्कूल अब भी मौजूद हैं. इन स्कूलों में अब तो अन्य शहरों के बच्चे भी अच्छी संख्या में पढ़ते हैं. यहाँ अनेक आर्किड गार्डन और फूलों के नर्सरी हैं, जहाँ सैकड़ों प्रकार के फूल के पौधे हैं. कहना न होगा, यहाँ बड़े पैमाने पर विभिन्न प्रकार के फूलों का उत्पादन होता है. कलिंपोंग के पूर्व और पश्चिम भाग में बंटे दर्शनीय स्थलों (साईट सीइंग पाइंट्स ) में मोनेस्ट्री, मंदिर, पार्क, हेरिटेज बिल्डिंग  आदि भी शामिल हैं. यहाँ से दार्जीलिंग और गंगटोक दोनों ही दर्शनीय स्थानों तक करीब तीन घंटे में पहुंचा जा सकता है.

यात्रा की थोड़ी थकान तो थी और ठण्ड भी. जल्दी सो गया. सुबह आँख खुली तो खिड़की से बाहर देखा. झमाझम बारिश हो रही थी. सड़कों पर इक्का-दुक्का लोग आ–जा रहे थे. धीरे–धीरे चहल-पहल बढ़ी – स्कूल जाते बच्चों के साथ. बारिश अब भी हो रही थी, लेकिन छोटी –बड़ी छतरी में अकेले या अभिभावक के साथ बच्चे मस्ती करते हुए स्कूल जा रहे थे, बारिश से बेपरवाह, जैसे यह उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी का खुशनुमा हिस्सा हो. एक क्षण के लिए अपने बचपन के दिन याद आ गए, अनायास ही गुनगुना उठा : बचपन के दिन भी क्या दिन थे ...... कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ....   

उसी मनःस्थिति में कुछ पल बीते. फिर एक सवाल सामने आया कि क्या कोई आपका बचपन लौटा सकता है या बीते हुए वे अच्छे दिन. शायद नहीं. हाँ, अगर हम खुद यह तय कर लें कि वर्तमान को खूब एन्जॉय करेंगे, तो हम उन बीते हुए पलों को किसी न किसी रूप में थोड़ा–बहुत तो जी ही लेंगे, क्यों ? तो फिर हम भी इसी भाव का दामन थामे निकल पड़े उसी बारिश में स्थानीय दर्शनीय स्थलों का आनंद लेने.

झमाझम  बारिश के बीच पहाड़ी सड़कों पर  गाड़ी का  अपनी रफ़्तार में आगे बढ़ना जोखिम भरा तो था, लेकिन ड्राईवर बड़े  आत्मविश्वास से गाड़ी चला रहा था और आगे छोटे–बड़े पर्वतों के बीच तैरते सफ़ेद-काले बादलों को देखने का रोमांच भी कम नहीं था. ऐसे ही नजारों को देखते-निहारते हुए हम पहुंच गए प्रसिद्ध डेलो हिल्स और डेलो लेक. यह कलिंपोंग के उत्तर-पूर्व  में 5590 फीट की ऊंचाई पर  स्थित है, जो कलिंपोंग शहर का सबसे ऊँचा स्पॉट है. इस पर्वत पर अवस्थित गार्डन –पार्क बहुत ही खूबसूरत है. हम जब वहां पहुंचे, बादल के छोटे टुकड़े इधर से उधर आ–जा रहे थे; रिमझिम बारिश हो रही थी जो वहां के वातावरण को और भी आकर्षक बना रहा था. कहते है कि मुख्यतः डेलो लेक से कलिंपोंग शहर को जल आपूर्ति की जाती है. 


वहां से लौटते हुए साइंस सेंटर, हनुमान पार्क और कुछ अन्य दर्शनीय स्पॉट होते हुए हम केशिंग के रास्ते बढ़ चले सिक्किम की राजधानी गंगटोक की ओर. यह पर्वतीय रास्ता वहां के गांवों से होते हुए सिलीगुड़ी –गंगटोक मुख्य मार्ग पर रंगपो से थोड़ा  पहले जाकर मिलता है. फलतः हमें वहां के गांवों में रहनेवालों के रहन-सहन की एक झलक मिली. एक सुव्यवस्थित सामुदायिक भवन भी दिखा जहाँ स्थानीय लोगों की अच्छी चहल-पहल थी. कहते हैं प्रकृति के गोद में रहने वाले लोगों का तन, मन, मिजाज, परिधान आदि कुछ भिन्न ही होता है, अमूमन कुछ बेहतर भी. हमें यह खूब दिखा. पहाड़ पर यहाँ-वहां बसे घरों के आसपास सफाई थी; लोगबाग साफ़ सुथरे वेशभूषा में नजर आये. मुर्गी के छोटे बच्चे छोटे-मोटे कीड़े आदि को  ढूंढने व खाने में मशगूल थे. चारों ओर हरियाली तो खूब थी ही. सब कुछ गुड -गुड लग रहा था, फिर भी कलिंपोंग को गुडबाय कह कर हम आगे बढ़ चले. ...जीवन चलने का नाम....   ...आगे  जारी ...  

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित

Monday, May 30, 2016

यात्रा के रंग : रोमांच और अनुभव

                                                                                  - मिलन सिन्हा 
कहते हैं यात्रा में जाने का एक अलग रोमांच होता है; और यात्रा में जिज्ञासा का साथ हो, फिर तो अनेक अदभुत अनुभव व जानकारी हमें स्वतः मिल जाती है. चलते-चलाते  हमें कितने ही ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिलता है; प्रकृति के कितने ही  अनजाने, अप्रतिम रूपों से रूबरू होने का सौभाग्य मिलता है, इसका पूर्वानुमान शायद ही कोई लगा सकता है. लेकिन न जाने क्यों और कैसे इस बार मेरे साथ यात्रा आरम्भ करने के साथ ही ये सब घटित होने लगा. निदा फाजली साहब ने यूँ ही तो नहीं लिखा :

धूप में निकलो, घटाओं में नहाकर देखो 
जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो .

एक लम्बे अंतराल के पश्चात्  रात में ट्रेन से यात्रा का योग बना. 'क्रिया योग एक्सप्रेस' चल पड़ी नियत समय पर रांची से हावड़ा (कोलकाता) की ओर. आरक्षित डिब्बे में यात्री अपने–अपने बर्थ पर जमने लगे. हमारे डिब्बे में 30-40 वर्ष के लोगों का एक ग्रुप चल रहा  था, जिनमे से दो सदस्यों का बर्थ हमारे आसपास था. उनके दो और साथी आ गए और उनके बीच रांची प्रवास की चर्चा चल पड़ी. बातों से पता चला कि वे लोग जिनमें कुछ महिलायें भी थी, एक सामाजिक समारोह में आये थे और अब कोलकाता लौट रहे थे. चर्चा के दौरान यह भी बात आई कि अगले कुछ दिनों में इस ग्रुप का रायपुर, गौहाटी आदि स्थानों में जाने का प्रोग्राम है. उनके बीच की प्रगाढ़ता और आसन्न प्रोग्राम के प्रति उनके उत्साह को देखते हुए उत्सुकतावश मैंने पूछा तो बगल में बैठे महेश जी ने बताया कि वे लोग राजस्थान के लक्ष्मणगढ़ के मूल निवासी हैं और अब कोलकाता में रहकर व्यवसाय आदि में सक्रिय हैं.  वे 'लक्ष्मणगढ़  नागरिक परिषद् ' के सक्रिय सदस्य है, जिसकी स्थापना 1987 में हुई और जिसका एक बड़ा मकसद लक्ष्मणगढ़ के प्रवासी लोगों को एक मंच पर लाना है तथा अपने सामाजिक कार्यों का विस्तार करना है. उन्होंने बताया कि उनके दो दिनों के प्रवास में उनको रांची में रहनेवाले करीब एक सौ परिवारों से जुड़ने का अवसर मिला. सच मानिए, उनसे बातचीत  करते हुए मुझे अच्छा लग रहा था क्यों कि समाज  में एकजुटता और भाईचारे को बढ़ाने का उनके इस प्रयास से मैं प्रभावित था. 

ट्रेन रफ़्तार में थी. घड़ी की सुई भी अपने रफ़्तार पर. आसपास के लोग सोने लगे, एक –दो लोगों ने बत्ती  बुझाने का आग्रह भी किया. लिहाजा बातचीत को विराम लगा. 

सुबह आंख खुली तो ट्रेन तेज गति से गंतव्य की ओर भागी जा रही थी और पीछे छूटते जा रहे थे हरे–भरे गांव, जहां पानी की कोई किल्लत नहीं दिखी. दस-बीस घर के साथ एक पोखर दिख जाता और दिख जाते उनमें तैरते बत्तख; उसके किनारे कुछेक पेड़-पौधे. जानकार कहते हैं कि पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में आपको आम तौर पर ऐसे दृश्य दिखेंगे. 

हावड़ा स्टेशन आने से पूर्व रेल पटरी के दोनों ओर  गन्दगी का दीदार करते हुए हम स्टेशन पर समय से पहुंच गए. हाँ, ट्रेन के एसी -3 बोगी के रख-रखाव में कुछेक कमियों के अलावे कोई बड़ी असुविधा नहीं हुई. हावड़ा स्टेशन के प्लेटफार्मों की मरम्मत की जरुरत महसूस हुई. हजारों यात्री रोज इन प्लेटफार्मों से होकर गुजरते हैं; छोटी परेशानी कब बड़ी दुर्धटना का सबब बन जाय, किसे पता. बहरहाल, वर्तमान रेल मंत्री के सत्प्रयासों का असर तो कई मामलों में दिखा, आगे और दिखेगा इसकी उम्मीद है. ऐसे भी, इतने सालों में लगे मजबूत जंग से जंग के स्तर पर निबटना पड़ेगा, प्रभु जी. 

हावड़ा स्टेशन से बाहर निकलने पर देखा कि टैक्सी की प्री –पेड लाइन बहुत लम्बी थी, सुबह का वक्त जो था. ठहरने के स्थान पर जल्दी पहुंचने के दवाब में आरा (बिहार) निवासी  एक टैक्सी चालक की चालाकी का शिकार हुआ, जिसका सही –सही पता तब चला जब वह दोगुना किराया लेकर जा चुका था. दुःख कम था ये सोच कर कि चलो घी गिरा तो दाल में ही. नहीं समझे ? चलिए, कोई बात नहीं. हाँ, संतोष इस बात का था कि यादवपुर में रवि शंकर के आवास पर समय से ही पहुंच गया था, क्यों कि अगले दो घंटे में आगे की यात्रा के लिए कोलकाता एयरपोर्ट नियत समय से पहले पहुंचना था. जानकार कहते हैं कि कोलकाता में कब कहाँ जाम लग जाय, इसका पूर्वानुमान कोई नहीं लगा सकता. लिहाजा, थोड़ा फ्रेश होकर और रवि के परिवार वालों के साथ सुबह का क्वालिटी टाइम बिता कर निकल पड़ा एयरपोर्ट की ओर.


उमस, गर्मी एवं वायु प्रदूषण से हाल बेहाल था. अब भी टैक्सी के रूप में एम्बेसडर कार ही कोलकाता की पहचान है. पुरानी  डीजल एम्बेसडर गाड़ियाँ 30-35 किलोमीटर की रफ़्तार से  चली जा रही थी, भरपूर धुआं छोड़ते हुए. चौड़ी सड़क के दोनों ओर वही बेतरतीब कस्बानुमा रहन-सहन; बड़ी इमारत और झुग्गी झोपड़ी का साथ भी कहीं- कहीं. यह सब देखते –समझते आखिर पहुंच गए कोलकाता के नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर. यहाँ का नजारा बिलकुल ही अलग. आइये, देखें अन्दर क्या चल रहा है. ... आगे जारी ...

                                                                                        

               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
                                                                                                  (hellomilansinha@gmail.com)
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित

Monday, May 16, 2016

मोटिवेशन : प्लानिंग एवं परफॉरमेंस के बीच गहरा रिश्ता

                                                                                   -मिलन  सिन्हा 

हमारे देश में यह समय ‘रिजल्ट टाइम’ होता है. स्कूल की वार्षिक परीक्षा हो या सीबीएसई, आईसीएसई, इंजीनियरिंग, मेडिकल या यूपीएससी की परीक्षाएं, सभी के रिजल्ट आगे-पीछे आते रहते हैं. और इसी के साथ शुरू हो जाता है रिजल्ट के विश्लेषण का एक चाहा-अनचाहा दौर, खासकर असफल परीक्षार्थियों के स्तर पर और साथ ही उनके अभिभावकों, शिक्षकों एवं दोस्तों के स्तर पर भी. ऐसे सभी विश्लेषणों में एक बात पर सभी एक मत होते है कि कहीं–न–कहीं योजनागत कमी रही है. इसे बेंजामिन फ्रैंकलिन इन शब्दों में कहते हैं, ‘अगर आप योजना बनाने में असफल रहते हैं तो आप वाकई असफल होने की योजना बना रहे हैं.’

हम यह सब जानते और मानते हैं कि जहां भी संसाधनों की किल्लत रहती है, चाहे वह समय, उर्जा, घन राशि, मशीन, श्रमिक आदि  ही क्यों न हो, वहां प्रोजेक्ट प्रबंधन में योजना की भूमिका निर्विवाद है. दूसरे शब्दों में कहें तो जब भी, जहाँ भी सीमित संसाधनों से एक नियत समयावधि में किसी भी कार्य को संपन्न करने की चुनौती होती है, तब-तब योजना की अनिवार्यता और स्पष्ट होती है. बिलकुल सही. लेस्टर  राबर्ट बिटल तो  कहते हैं, ‘अच्छी योजना अच्छे निर्णय का द्योतक है, जिससे सपनों को साकार करना आसान हो जाता है.’ 

यह बात मात्र युवाओं या नौकरी पेशा लोगों पर लागू नहीं होता है, बल्कि उन सबके लिए है जो सहज और सुचारू ढंग से अपने दैनंदिन जीवन में अपने लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं. यह तब और अहम हो जाता है जब पेशेवर क्षेत्र में, जहाँ आजकल लोगों को, एक साथ एकाधिक कार्य करने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है. कहने की जरुरत नहीं कि हमारे घरेलू कामकाज में भी योजना की अहम भूमिका से कोई इन्कार नहीं कर सकता है. आज आप कहां हैं, कल आप कहाँ पहुंचना चाहता हैं और इसके लिए आपको क्या–क्या करना जरुरी है – इन सवालों का जवाब योजना के अहमियत को सिद्ध करते हैं. प्रसिद्ध फुटबॉल कोच पॉल ब्रायंट कहते हैं, ‘योजना बनायें, उसे ईमानदारी से अमल में लायें और फिर देखें कि आप कितने सफल हो सकते हैं. अधिकतर लोगों के पास कोई योजना नहीं होती. इसी कारण उन्हें हराना आसान  होता है.’

सच ही तो है कि योजना अपने आप में एक अनोखा एवं विचार समृद्ध प्रक्रिया है, जिसमें अनेक प्रबंधकीय तत्वों को समझदारी और खूबसूरती से शामिल किया जाता है. दरअसल, योजना के जरिए बताये व सुझाये गए मार्ग से होकर ही हम सभी प्रोजेक्ट को उसके लिए नियत मानदंडों के अनुरूप सफलतापूर्वक गंतव्य तक पहुंचाते हैं. दिलचस्प बात यह भी है कि योजना प्रक्रिया में किसी भी संभावित-असंभावित  व्यवधान के कारण कार्य की गति में  पड़ने वाले दुष्प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जाता है. संक्षेप में कहें तो प्लानिंग एक डायनामिक प्रोसेस है जिसका हमारे परफॉरमेंस से गहरा रिश्ता है.

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Monday, May 2, 2016

लघु कथा : खुशहाली

                                                                                               - मिलन सिन्हा 
मेरा यह मित्र अपने कारोबार में माहिर था. सुबह से रात तक  वह अपने काम में लगा रहता. बहुत धन भी अर्जित किया था उसने. फिर भी और धन अर्जित करने की उसकी इच्छा कम नहीं हुई थी. इस धुन में उसे न तो अपने परिवार का ख्याल रहता और न ही अपने शरीर –स्वास्थ्य का , खान –पान का.

एक दिन दोपहर के वक्त मै उसके दफ्तर में बैठा था. वह मुझसे बीच –बीच में एक –आध बातें कर पाता. बाकी वक्त वह फोन पर कारोबार की बातें करता. कभी –कभी तो वह एक साथ दो फोन  थामे रहता.

इस बीच नौकर घर से उसका खाना ले आया और उसके पास ही छोटे,  पर खूबसूरत से टेबुल पर रख गया . कुछ क्षण बाद उसकी पत्नी का फोन भी आया. गरम-गरम खाना खा लेने का अनुरोध किया, लेकिन वह फिर टेलीफोन पर वार्तालाप में लग गया. मै बैठा यह सब देख रहा था. बातचीत के लिए मैं जब भी कुछ कहने को होता, वह मुझे इशारे से थोड़ी देर और रुकने को कहता और फिर वही फोन.....

काफी वक्त गुजर गया. मैं बैठा रहा, खाना पड़ा रहा . फोन पर उसकी बातचीत जारी थी. अब मुझसे रहा न गया और मैंने उसके हाथ से फोन का चोगा करीब –करीब छीनते हुए पूछा, ‘भाई आखिर यह आपाधापी, इतनी व्यस्तता किस चीज के लिए ?’

‘रोटी कमाने के लिए, रोटी कमाने के लिए. और क्या ?’ – उसने थोड़ा तल्खी से जवाब दिया .

‘तो फिर यह रोटी खा’ - मैंने उसके खाने के तरफ इशारा करते हुए कहा.

उसने तुरन्त खाने का डब्बा खोला. मुझसे भी साथ देने का आग्रह किया .

सुना है , अब वह और उसका परिवार दोनों खुश हैं, सुखी हैं.

                और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

# लोकप्रिय  अखबार , 'हिन्दुस्तान' में 26 जून , 1997   को प्रकाशित