-मिलन सिन्हा
होली के बाद ट्रेन में बहुत भीड़ थी. सैंकड़ों
मजदूर ट्रेन की छत पर सवार थे. सब अपना –अपना गांव छोड़कर अन्य प्रदेशों में रोजगार
के लिए जा रहे थे. सबके पास रेल टिकट था, पर डिब्बे में उनके लिए जगह नहीं थी. सो,
वे छत पर सवार थे . न कोई गिला, न कोई
शिकवा . न कोई गम था, न कोई उदासी . बड़े इत्मीनान से से छत पर बैठे थे सभी.
पूछने पर उनमें से एक बताता है, ‘घर पर जमीन
भी है, मैट्रिक तक पढ़ा भी है, परन्तु न खेतों को पानी है , न खाद. बिजली भी नहीं,
सड़क खस्ताहाल. रोजगार का कोई अन्य साधन भी नहीं है. लगभग सारे –के –सारे युवक
बेरोजगार हैं.’
दूसरा हस्तक्षेप करता है, है जी, बहुत कुछ है
हमारे यहां. जातिवादी उन्माद है, साम्प्रदायिक तनाव है, आतंक का माहौल है.
राजनीतिक हल्लेबाजी है , बूढ़े , बेबस
मां-बाप हैं, अनब्याही बहनें हैं, दहेज़ का दानव है ....’
पहला फिर कहता है, ‘परन्तु इस सबके बावजूद
जीना तो फिर भी है न. तो इस जहालत में क्यों जीयें, इस जहालत में क्यों मरें. सो ,
हमलोग रोटी कमाने परदेश जा रहे हैं. चार कमायेंगे, दो बचायेंगे. मां –बाप को
भेजेंगे. इसी तरह जियेंगे, शायद इसी तरह मरेंगे. अपनी धरती पर बोझ तो नहीं न
बनेंगे.’
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# लोकप्रिय अखबार , 'हिन्दुस्तान'
में 22 मई , 1997 को प्रकाशित
this is the truth of bihar
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